Iftekhar: क्या बनना चाहता था क्या बन गया

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By Sulena Majumdar Arora
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Iftekhar: क्या बनना चाहता था क्या बन गया

कलाकार ऐसे होते हैं कि उन्हें कोई भी चोला पहना दो वे उसी रूप में ढल जाते हैं. लेकिन कई कलाकार अपनी विशिष्ट अदाओं के कारण किसी एक भूमिका पर बखूब जँच जाते हैं जैसे हमारे फिल्म इंडस्ट्री के बुजुर्ग कलाकार श्री इफ्तिखार साहब उनकी चढ़ी हुई भ्रकुटि, गर्वोन्नत माथा, रहस्यमय फिल्मों चमकती आँखे और चुस्त डील डौल गायक को देखकर दर्शकों को वे एक आदर्श पुलिस इंस्पेक्टर, चतुर वकील, बेहद कठोर पिता, रहस्यमय सी.आई.डी के सिवा कुछ और नज़र नहीं आते. वे हमारे इंडस्ट्री के पुराने कला की नींवों में से एक हैं. उनके पास बम्बई फिल्म इंडस्ट्री का तो पल पल बदलते रूप का इतिहास है, अपने जीवन के अफसाने हैं. मैं उनसे मिलना चाहती थी.

अकेले अकेले दोपहर के वक्त क्या कर रहे थे? मैंने बातचीत की शुरूआत की.

अच्छा एकांत के मौकों पर आप अपने गुजरे हुए जमाने को याद कर लेते हैं?

याद करता नहीं हूँ, अतीत से नटखट बालक की तरह अपने आप मेरे गले में झूल जाती है और मैं उसे प्यार कर लेता हूँ फिर उनसे मिलने का वक्त जब खत्म, होता है जब वर्तमान में लौटना पड़ता है. तो अतीत को किसी बच्चे की तरह थपकी देकर सुला देता हूँ.

बहुत खूब इफ्तिखार जी, आपके अंदाजे बया वाकई खूबसूरत हैं, अच्छा अब यह बताइये कि आप कहाँ के हैं?

वैसे मैं कानपुर का हूँ, पटकापुर के पास रहता था. बहुत पहले की बात है. मेरा जन्म 22 फरवरी 1920 में हुआ था और बचपन की खेल कूद से किशोरा- वस्था की शरारतें सब कानपुर में ही हुआ बहुत आवारा गर्दी करता था. कोई और का तो था नहीं, अच्छे अमीर घर के बच्चे अकसर मेरी तरह आवारा गर्दी करते. नज़र आते. मुझे गाने का जबरदस्त क्रेज था. जानती हो बचपन में मैं अभिनेता बनने की कभी सोच ही नहीं पाया था अलबत्ता गायक बनने का जुनून जरूर था. ज़हन पर भूत की तरह सवार था

हूँ... तो मैं कहाँ था गाने बजाने पर था. हाँ तो मैंने क्राइस्ट चर्च कॉलेज से मैट्रिक पास किया था. यूँ पढ़ने लिखने में मन था नहीं लेकिन शायद गधों में घोड़ा था इसलिए अच्छे नम्बर आये थे. मुझे ड्राईंग में डिस्टिग्शन मिला था. मुझे गाने के बाद पेंटिंग का भी शौक था. मेरे नम्बर वगैराह देखकर वालिद साहब ने लखनऊ स्कूल ऑफ ऑर्ट भेज दिया. वहाँ से कोर्स करके जब वापस आया तो वालिद साहब ने अपनी फैक्टरी में मुझे सिर्फ इसलिए डाल दिया ताकि मैं आवारा गदीं न करूँ कोई और काम भी नहीं आता था इसलिए उन्होंने मुझे पचास पैसे दर दिन पाने वाले कूलियों के साथ मुझे डाल दिया. वे कहा करते थे कोई भी काम छोटा  नहीं होता. वहीं धीरे धीरे मैं प्रोमोशन पाता गया.' इफ्तिखार जी ने बीच में एक क्षण ठहर कर मुझे शायद कुछ पूछने का मौका दिया

मैंने पूछा लेकिन फिल्मों में प्रवेश कैसे हुआ जबकि आप गायक बनना चाहते थे?

'हाँ यह तो एक चमत्कार सा था. एक बार एच.एम.वी में एक नये कलाकारों को गायन में चांस देने का प्रोग्राम हुआ. दोस्तों ने जबरदस्ती उसमें मुझे जाने की जिद्द की वैसे मैं कलकत्ता किसी ऑफिशीयल काम से जा ही रहा था सोचा हर्ज क्या है. मैंने एच.एम.वी में जाकर देखा कि वहाँ कई बंगाली लोग थे. बचपन से ही मैं बंगालियों के बीच रहा हूँ अतः वहाँ के अदब कायदे कानून से मैं खूब वाकिफ था मैं लग गया बंगला बोलने फिर क्या उन्होंने प्यार से मुझे गाने का चांस दिया. उन दिनों हेमन्त कुमार भी नया नया था, वहीं मेरी मुलाकात हेमन्त और तलत महमूद से हुई. उन दिनों (1943) न्यू थियेटर्स में बहुत सारी फिल्में बन रही थी. मैं संगीत निर्देशक पंकज जी के साथ गायन के लिए लगा था कि अचानक उन्हें लगा कि मैं बहुत खूबसूरत नौजवान हूँ लाहौल विला... उन्होंने मुझे हीरो का रोल ऑफर कर दिया. घर से इजाजत लेनी थी सो घर वापस आया. पिता जी ने इजाजत दे दी मैं चार सौ पचास घर से मिला फिर हिम्मत बढ़ी, हितेन चौधरी के द्वारा अशोक कुमार से मिलना तय हुआ. अशोक जी से जब मैं मिला तो उन्होंने बहुत खातिर की. कई प्रोडक्शन के पास मिलाया लेकिन उस वक्त प्रायः जिनसे भी मिला वे हीरो चुन चुके थे. फिल्म 'मुकद्दर' में सज्जन को हीरो ले लिया गया था और एक साइड हीरो का महत्वपूर्ण रोल बाकी था मैंने कर लिया. अशोक कुमार से मेरी ऐसी दोस्ती हो गयी कि हम एक दूसरे के निजी बातों में भी दखल देने लगे. उनकी देखा देखी मैंने फ्रेंच सीखना शुरू किया और मेरी देखा देखी उन्होंने पेंटिंग शुरू किया लेकिन धैर्य उनमें नहीं था सो जल्द ऊब गये. मैंने उनको शतरंज खेलना सिखाया. तब तक मैंने कई टॉप के हीरो के साथ साइड रोल में काम कर लिया था. मिर्जा गालिब', 'जागते रहो', नासिर खाँ की कई फिल्में राजकपूर नर्गिस के साथ की. फिल्म 'संगम' से लोग मुझे पहचानने लगे. अब तक साइड रोल्स नौकरी छोड़कर चार सौ वाली नौकरी न करने फिल्म इंडस्ट्री कलकत्ता चला आया. पहली फिल्म एम.पी. प्रोडक्शन की तकरार' में निर्देशक हेमेन गुप्ता के निर्देशन में जमुना देवी के साथ आया. फिर तो सात फिल्मों में हीरो बना 'घर' -'तुम और मैं', 'शादी के बाद', 'ऐसा क्यों कुछ फिल्में एम.पी. प्रोडक्शन के नीचे मासिक वेतन पर की और कुछ बाहर की फिल्में इसलिए की क्योंकि मेरी शादी हो चुकी थी. इधर मेरी फिल्में सभी बुरी तरह पिट चुकी थीं सिर्फ 'घर' चली थी उधर कलकत्ता में हिन्दू मुस्लिम फसाद शुरू हो गया था.

हमें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. बीवी थी एक बेटी भी पैदा हो गयी और एक पैसे की नौकरी नहीं.

भाग्य की बात बचपन से ही बंगालियों का हर मोड़ पर मिलन होता आया था जहाँ मुसीबत होती वहीं ईश्वर की तरह कोई बंगाली बाबू मिल जाता था ऐसे ही अचानक अनिल विश्वास से मुलाकात हो गयी लेकिन जिस वक्त मिला उनकी फिल्म की कास्टिंग लगभग पूरी हो चुकी थी एक साइड हीरो का रोल बचा था मरता क्या न करता मैंने वो रोल ले लिया. 

फिर हिम्मत बढ़ी, हितेन चौधरी के द्वारा अशोक कुमार से मिलना तय हुआ.

अशोक जी से जब मैं मिला तो उन्होंने बहुत खातिर की. कई प्रोडक्शन के पास मिलाया लेकिन उस वक्त प्रायः जिनसे भी मिला वे हीरो चुन चुके थे. फिल्म 'मुकद्दर' में सज्जन को हीरो ले लिया गया था और एक साइड हीरो का महत्वपूर्ण रोल बाकी था मैंने कर लिया. अशोक कुमार से मेरी ऐसी दोस्ती हो गयी कि हम एक दूसरे के निजी बातों में भी दखल देने लगे. उनकी देखा देखी मैंने फ्रेंच सीखना शुरू किया और मेरी देखा देखी उन्होंने पेंटिंग शुरू किया लेकिन धैर्य उनमें नहीं था सो जल्द ऊब गये. मैंने उनको शतरंज खेलना सिखाया. तब तक मैंने कई टॉप के हीरो के साथ साइड रोल में काम कर लिया था. मिर्जा गालिब', 'जागते रहो', नासिर खाँ की कई फिल्में राजकपूर नर्गिस के साथ की. फिल्म 'संगम' से लोग मुझे पहचानने लगे. अब तक साइड रोल्स

करते करते मुझ पर चरित्र अभिनेता का लेबल लग चुका था. मेरा पहला ब्रेक फिल्म 'इतफाक' था. उस फिल्म से मुझे सभी लोग जान गये. मैं बी०आर० चोपड़ा जी का अहसान मंद हूँ. फिर तो मैं पुलिस इंस्पैक्टर और वकील के रूप में मशहूर हो गया और हालांकि आजकल कम फिल्में मिल रही हैं तो भी मुझे आज सभी जानते हैं.' उन्होंने अतीत की गिरफ्त से अपने को मुक्त करते हुए कहा. 

मैंने पूछा- आपको कुल मिलाकर यह फिल्म लाइन कैसी लगी और क्यों?

मुझे यह फिल्म लाइन बड़ी ही सुन्दर लगा. फिल्म लाइन न कहकर अगर मैं अभिनय लाइन कहूँ तो बेहतर. मुझे यह अभिनय लाइन इसलिए पसंद है क्योंकि इस आर्ट में सभी आर्ट आ जाते हैं इसमें संगीत भी है, गीत भी है, नृत्य भी है रंगों की बौछारों वाली पेंटिंग भी है.

अब गाने नहीं गाते? 

नहीं कभी कभी सोच कर आश्चर्य लगता है कि मैं बनने चला था क्या और क्या बन बैठा गायक बनते बनते अभिनेता बन बैठा और ऐसा रम गया कि गाना तक भूल गया. अब तो आवाज नहीं रही. रियाज के बिना गले का सुर नहीं रहता. अब तो यह भी सपना लगता है कि मैंने बहुत सारे गाने गाये थे. कई रिकॉर्ड भी बने थे. इस बात का अफसोस होता है कि इस वक्त एक भी रिकार्ड मेरे पास नहीं है. 

पेंटिंग का शौक भी छोड़ दिया?

हाँ छूट गया. सारा दिन शूटिंग करने के बाद इतना वक्त नहीं बचता कि पेंटिंग करूँ 

कोई सीन करते वक्त आपको दिल को कुछ छू गया, कौन सा सीन था वो?' मैंने पूछा.

'यूँ तो मेरे रोल्स हमेशा सड्स कठोर तरह का होता है लेकिन फिर भी कुछ फिल्मों में रोल करते वक्त मैं भावुक हो गया था जैसे 'मिर्जा गालिब', 'नूरी' 'निकाह' में सारे फिल्म में कोई विशेष बात नहीं थी लेकिन एक सीन ऐसा था जो सब सीन पर हावी हो गया. 

आपको आपका कल ज्यादा पसंद है.या आज?

"मुझे हर पल गवारा है जिन्दगी का हर टुकड़ा अपनी तरह के अलग खूबसूरती समेटे हैं. मैं कल भी इफ्तिखार था आज भी है पर पता नहीं कल रहूंगा या नहीं. नहीं रहूंगा लेकिन मुझे इस बात कि खुशी है कि मेरे मरने पर मेरे प्रशंसकों के दो आंसू तो मिलेंगे…

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