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गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

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By Siddharth Arora 'Sahar'
गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी
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गुलज़ार की दुलारी बोस्की के लिए: वो 13 दिसंबर 1973 का दिन था और दुनिया, ख़ासकर मुंबई की क्वीन ऑफ सबर्ब्स (उपनगर) कहलाई जाने वाली जगह बांद्रा में क्रिसमस का इंतज़ार बड़े ज़ोर शोर से हो रहा था. माहौल में आने वाले जश्न की रवानगी महसूस की जा सकती थी. पहले से ही हिल रोड से लिंकिंग रोड तक हर तरफ सजावट ही सजावट नज़र आ रही थी. क्रिसमस से ठीक 12 दिन पहले लेखक, निर्देशक और एक शानदार इंसान गुलज़ार और उनकी ख़ूबसूरत पत्नी और एक बेहतरीन अदाकारा को पहली औलाद नसीब हुई. डॉक्टर गोखले उनके फॅमिली डॉक्टर थे, उनकी देख-रेख में जच्चे और बच्चे दोनों को भला क्या हो सकता था, उन्होंने बताया कि दोनों पूरी तरह सुरक्षित और सेहतमंद हैं.
Ali Peter John

दिलीप कुमार के जन्मदिन के ठीक दो दिन बाद ही तो बोस्की का जन्मदिन आता है

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

गुलज़ार उस वक़्त अपने कैरियर के चरम पर थे, वो तुरंत मैटरनिटी होम पहुँचे और जैसे ही उन्होंने गोद में अपने रुई के फाये जैसे बच्चे को लिया, उसके कान के पास धीरे से मुस्कुराते हुए उनके मुंह से निकला 'बोस्की'. बोस्की, इसका मतलब होता है कुछ नरम, कुछ गुदगुदा सा.... जब गुलज़ार ने उसे गोद में लिया था तब उन्हें एक अलग ताज़गी महसूस हुई, ऐसा लगा था जैसे कोई रेशम का टुकड़ा उनके हाथों में छुपा गया है. इसलिए उन्होंने मेघना को गोद में लेते ही उसके कान में फुसफुसा दिया 'बोस्की'

गुलज़ार की वो छोटी सी बोस्की को क्या अंदाज़ा था कि वो अपनी उम्र के 47वें बरस में भी बोस्की ही कहलायेगी, तब जबकि वो एक फेमस डायरेक्टर बन चुकी होगी।

13 दिसंबर को को बोस्की अपना जन्मदिन दिलीप साहब के जन्मदिन के दो दिन बाद और लीजेंडरी राज कपूर और उस्तादों में शुमार होते गीतकार शैलेन्द्र के जन्मदिन के एक दिन पहले मनाती है.

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

एक पत्रकार होने के नाते जो मेरे शुरुआती कुछ दोस्त बने, उनमें सम्पूर्ण सिंह कालरा का नाम सबसे पहले आता है, हालांकि आप उन्हें गुलज़ार के नाम से बेहतर जानते हैं. कोज़ीहोम में मेरा आना-जाना रेगुलर हुआ करता था, उस वक़्त वहीं गुलज़ार का घर और ऑफिस दोनों थे. मैंने बोस्की को पहली बार चलते देखा है, मैंने उसकी किलकारियां सुनी हैं, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने दिनों-दिन बड़े होते देखा है. कमाल की बात है न कि मात्र पाँच साल की उम्र में बोस्की कवितायें लिखने लगी थी और अपने बोस्कीयाने की दीवारें रंगा करती थी. बोस्कीयाना, गुलज़ार ने जब पाली हिल में अपना बंगला बनवाया तो उसका नाम भी अपनी बोस्की के नाम पर रख दिया। बोस्की पढ़ने के लिए पाली हिल के पास ही जेबी पेटिट गर्ल्स स्कूल में जाती थी. ये स्कूल पेरिन विला के पास है, वही पेरिन विला का पुराना बंगला जहाँ संजीव कुमार जैसा होनहार कलाकार एक डब्बे जैसे कमरे में रहा करता था.

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

बोस्की स्कूल के सबसे होनहार छात्रों में से एक थी, फिर जब उसने स्कूल ख़त्म किया और सेंट ज़ेवियर कॉलेज में दाखिला लिया तो वहाँ भी उसे सब आल राउंडर कहने लगे. बोस्की पर गुलज़ार का बहुत बहुत ज़्यादा प्रभाव रहा, शुरु से ही. ख़ासकर तबसे तो और ज़्यादा जब गुलज़ार ने मेघना के 13वें जन्मदिन पर उसके लिए एक किताब लिखकर उसे तोहफे में दी.

बोस्की चाहती तो आसानी से अपने पिता की असिस्टेंट बनकर अपना कैरियर शुरु कर सकती थी पर उसने सईद मिर्ज़ा के साथ काम सीखना चुना, फिल्म मेकिंग की छोटी-छोटी बारीकियां सीखीं और अपने पिता को ही एक दिन कह दिया कि अब वो अपना पहला कदम इंडस्ट्री में रखने के लिए पूरी तरह तैयार है.

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

गुलज़ार और राखी एक समय बाद एक टूटे शीशे की तरह अलग-अलग हो गए।  तब बोस्की ने अपनी सुबह और अपनी दोपहरें गुलज़ार के साथ  बोसकियाना में रहना चुना वहीं अपनीशामें और रातें माँ के पास मुक्तांगन (राखी का बंगला) में गुज़ारीं।

मेघना बचपन से ही अपने 'पाप्पी' के बहुत क्लोज़ रही. जी हाँ, पाप्पी, यही नाम बोस्की ने अपने पिता  के लिए अपनी पहली किताब में मेंशन किया। 'Because he is' (वही मेरी होने की वजह हैं...) इस किताब का नाम था, मुझे उस वक़्त सख़्त हैरानी हुई जब गुलज़ार और बोस्की ने अपनी किताब की पहली प्रति मुझे गिफ्ट करने के लिए कहा. किताब का विमोचन तारदेओ में क्रॉसरोड्स में हुआ था.

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

वो गुलज़ार का 60वां जन्मदिन था और जो गुलज़ार को अच्छे से जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि गुलज़ार अपना जन्मदिन नहीं मनाते। वो 18 अगस्त के पूरे दिन वेस्ट एन्ड होटल, बंगलौर में छुपकर गुज़ारते हैं और अपनी कहानियों को, स्क्रिप्ट्स को पूरा करते हैं.

लेकिन बोस्की तो बोस्की है, वो चाहती थी कि इस रोज़ बोसकियाना में एक पार्टी हो लेकिन गुलज़ार राज़ी न थे. बोस्की जानती थी कि मैं और गुलज़ार कितने अच्छे दोस्त हैं; सो उसने गुलज़ार को मनाने का ज़िम्मा मुझे सौंप दिया। मैंने गुलज़ार से रिक्वेस्ट की, यूँ पहली बार गुलज़ार ने अपने जन्मदिन मनाया, कम लोगों के साथ ही सही पर मैं गुलज़ार के साथ एक शानदार जश्न में शामिल हुआ, उस गुलज़ार के साथ जिसके बारे में सब जानते थे कि वो कम ही बोलता है मगर उसकी ज़िन्दगी ही किसी जश्न से कम नहीं है.

बोस्की ने एक राजकुमार जैसे लड़के गोविन्द संधू से शादी की और वो दोनों उसी कोज़ीहोम में रहे जहाँ बोस्की पली-बढ़ी थी. उन दोनों का एक बेटा है, समय!

गुलज़ार की छोटी सी बोस्की, न जाने कब एक जानी-मानी दिग्दर्शक बन गयी

मैंने उस दिन समझा कि समय क्या कुछ नहीं कर सकता है जब मैं बोस्की से मेघना गुलज़ार हो चुकी डायरेक्टर के सामने 'तलवार' की रिलीज़ के समय प्रेस कांफ्रेंस में था. बोस्की चारों ओर से मीडिया से घिरी हुई थी और मैं एक टक उसकी तरफ देखता रहा. मैं आज सोचता हूँ कि क्या अब बोस्की मुझे पहचान पायेगी जो मेघना गुलज़ार बनने के बाद फिलहाल, तलवार, राज़ी और छपाक जैसी एक से बढ़कर एक फ़िल्में बना चुकी है. जिसका नाम एक उम्दा डायरेक्टर्स की लिस्ट में सगर्व शामिल होता है. मैं नहीं जानता कि वो मुझे भूल चुकी होगी या अभी भी मैं उसे याद होऊंगा पर मैं वो दिन नहीं भूल सकता जो दिन मैंने उसके पिता और उसके साथ बिताए हैं. तब जब कोई भी भविष्य के गर्भ में क्या होगा इसका अंदाज़ा नहीं लगा सकता था, उसके पाप्पी गुलज़ार भी नहीं, पर मैंने गुलज़ार से उन्हीं दिनों एक बार कहा था कि बोस्की एक दिन कलाकारों की कलाकार बनेगी देखना।

समय क्या खेल खेलता है इंसान के साथ और इंसान बस देखता रह जाता है. कब खोलोगे तुम तुम्हारा राज़, ए समय!

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'>सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'

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