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2024 में ‘स्त्री 2’ और ‘भूल भुलैया 3’ के अलावा एक भी फिल्म सफलता दर्ज नही करा पायी. जबकि तेलुगू भाषा की फिल्म ‘पुष्पा 2: द रूल’ हिंदी में डब होकर हिंदी क्षेत्रो में लगभग आठ सौ करोड़ रूपए क्लैक्शन की दिशा में आगे बढ़ रही है. 2024 में बाॅलीवुड के इस हालात पर हमने ‘तिरंगा’, ‘क्रांतिवीर’ सहित 48 सुपर डुपर हिट फिल्मों के लेखक, निर्माता व निर्देशक मेहुल कुमार से बात की. मेहुल कुमार ने खुलकर अपने विचार रखे.
2024 में भारतीय सिनेमा के जो हालात रहे, उस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
2024 में भारतीय सिनेमा में बहुत अच्छी खबरें कम ही आयी. हिंदी में ले देकर दो तीन फिल्में ही सफलता दर्ज करा पायी. जबकि दक्षिण की फिल्मों ने कमाल किया है. तेलुगु भाषा में बनी फिल्म ‘पुष्पा 2: द रूल’’ डब होकर हिंदी के साथ छह भाषाओं में रिलीज हुई और उसने जबरदस्त कमायी की. हिंदी फिल्मों की बात करुं तो ‘स्त्री 2’ के अलावा अनीस बज़मी निर्देशित फिल्म ‘भूल भुलैया 3’ ही सफल हुई हैं. बड़े बजट के चलते ‘सिंघम अगेन’ अपनी लागत वसूल नहीं कर पायी. ‘मुंज्या’ जैसी एक दो छोटे बजट की फिल्में अपनी लागत वसूल करने में सफल रही. अन्यथा ब्लाॅक बूस्टर फिल्म कोई नही रही. इस तरह देखा जाए तो 2024 का साल बाॅलीवुड के लिए बहुत अच्छा नही रहा. अब सवाल उठता है कि बाॅलीवुड की फिल्में बाॅक्स ऑफिस पर ढेर हो गयी, तो फिर दर्शकों ने दक्षिण की फिल्में क्यों देखी? तो इसकी सबसे बडी वजह यह रही कि दक्षिण की फिल्मों में आज भी कहानी के साथ भारतीय कल्चर, माता पिता के किरदार, इमोशंस, सेटीमेंट यह सारी चीजें सही अनुपात में परोसा जा रहा है. दक्षिण भारतीय कलाकार, निर्माता व निर्देशक आज भी कहानी पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. जबकि बाॅलीवुड के फिल्मकार हो या कलाकार हों, सभी कहानी को, क्रिएशन को हाशिए पर रखकर केवल प्रपोजल बनाने पर ही अपना सारा ध्यान दे रहे हैं. जिसके चलते एक भी बाॅलीवुड फिल्म ऐसी नही आ रही है, जिसे दर्शक देखना चाहे या जिस फिल्म को दर्शक याद रखे. या वह उस फिल्म को देखने के लिए थिएटर में जाए. अब हिंदी फिल्में केवल शुक्रवार ,शनिवार या रवीवार को ही मौज मस्ती या समय बिताने के लिए लोग देखने चले जाते हैं. सोमवार से यह फिल्में सिनेमा थिएटर से उतार दी जाती है. अन्यथा सिनेमा देखने के मकसद से कोई नही जा रहा है. इस पर बाॅलीवुड के हर कलाकार, निर्माता, निर्देशक, संगीतकर व लेखक को गंभीरता से सोचना होगा.
बाॅलीवुड की फिल्मों की असफलता की क्या वजहें आपकी समझ में आता है?
देखिए, छोटी छोटी कई वजहें हैं. लेकिन फिल्म मेकिंग एक क्रिएशन है. पर हमारे यहां कारपोरेट के जुड़ने के बाद फिल्म मेकिंग क्रिएशन या रचनात्मक काम नही रहा, बल्कि शुद्ध धंधा बन गया. अब प्रपोजल बन रहे हैं. कहानी कोई नहीं सुनना चाहता. कारपोरेट एक ही सवाल पूछता है कि फिल्म में कौन कौन से कलाकार हैं? कलाकारों के नाम के आधार पर वह कई सौ करोड़ रूपए देेने को तैयार हो जाता है. वह कहानी तो सुनना ही नहीं चाहता. आज के नए निर्देशकों से या कारपोरेट वालों से कोई सवाल करेंगे, तो एक ही रटा रटाया जवाब आता है-‘‘सर,सम थिंग ड्फिरेंट..’ भाई अहम सवाल यह है कि ‘डिफरेंट क्या? इसका जवाब न तो आज के फिल्मकारों के पास है और न कारपोरेट के पास है. हमारी जड़े तो वही हैं. हमारे कल्चर भी वही है. हमारे देश के त्यौहार आज भी वही हैं. हमारा पहनावा,खान पान सब कुछ वही है. इसके बावजूद सभी एक ही रट लगाते हैं -समथिंग डिफरेंट..’. आज लोग तकनीक के दीवाने हैं. सभी अपनी फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स, वीएफएक्स पर सारा ध्यान देते हैं, ऐसे में कहानी को नजरंदाज कर दिया जाता है. हकीकत यही है कि फिल्म में कहानी को नजरंदाज कर आप चाहे जो भर दें, वह फिल्म नहीं चलेगी. क्योंकि दर्शकों तक सिनेमा को पहुॅचाने का काम तो कहानी ही करती है. फिल्मकार चाहता है कि वह हर द्रश्य को इतना सुंदर बना दे कि दर्शक कहानी को तलाषने की बजाय सिर्फ उन विज्युअल्स में ही खोया रहे. मगर हकीकत यह है कि जब कहानी न हो, तो दर्शक उस सिनेमा के साथ जुड़ नहीं सकता. उसका इंवाल्बमेंट नहीं होता. कहानी के साथ ही सबसे बड़ा माइनस प्वाइंट संगीत है. आज का संगीत कर्णप्रिय नही रहा... 2024 में कौन सा ऐसा गाना है जिसे लोग सुनना या गुनगुनाना चाहते हैं? जवाब आएगा. एक भी गाना नही है... पहले फिल्म का संगीत यादगार होता था. कुछ फिल्में तो ऐसी रही हैं, जो कि अपने संगीत की वजह से सुपर डुपर हिट साबित हुई. पर अब ऐसा नही है. पहले फिल्म की कहानी से फिल्म के गाने जुड़े होते थे, गाने कहानी को आगे ले जाते थे. अगर आप एक गाना हटा दे तो अहसास होता था कि कहानी में कहीं कुछ गड़बड़ी है. लेकिन आज की तारीख में गाने सिर्फ ठॅूंसे जा रहे हैं. अगर फिल्म से गाने हटा दे, तो भी कोई अंतर नही पड़ेगा और आज के गाने कर्णप्रिय भी नही है. अब तो फिल्म में चार चार संगीतकार होते हैं, जिसकी वजह से भी किसी गाने को सुनकर यह कहना मुश्किल हो जाता है कि यह गाना किस फिल्म का हो सकता है. अब एक ही फिल्म में चार चार संगीतकार होेते हैं, जिसके चलते संगीत भी डूब रहा है. इतना ही नही अब संगीत कंपनियां किसी का भी गाना खरीदकर अपनी लायब्रेरी में रख लेती हैं. फिर निर्देशक से कहती हैं कि इन पच्चीस गानों में से चुनकर फिल्म में डाल दो. अब जिन गानों का कहानी से संबंध ही नही है, उन्हे फिल्म में डालेंगे, तो क्या होगा? तभी आज की फिल्मों में गानों का कहानी से कोई लेना देना नही होता है. मैं फिल्म ‘तिरंगा’ की बात करना चाहॅूंगा. मैंने संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लिया. उन्होेने कहा कि इस फिल्म के गीत कई देशभक्ति वाले गाने लिख चुके संतोष जी से लिखवाया जाए? मैने कहा कि वह लिखेंगे? लक्ष्मीजी ने कहा कि बात कीजिए. उन दिनों वह लखनऊ में थे. मैंने संतोष जी को लखनउ फोन किया. उन्होने बताया कि अब वह फिल्मों के लिए गीत लिखना बंद कर चुके हैं. मैने उनसे कहा कि,‘हमारी फिल्म ‘तिरंगा’ की कहानी ऐसी है कि आपको गीत लिखना चाहिए.. उन्हे संक्षेप में कहानी के बारे में बताया. फिर वह आठ दिन के लिए मुंबई आए और फिल्म ‘तिरंगा’ के गाने लिखकर वापस लखनऊ चले गए थे. मैने हसरत जयपुरी, आनंद बक्शी, इंदीवर से भी गाने लिखवाए. यह सभी गीतकार पहले फिल्म की पूरी कहनी सुनते थे, उसके बाद गाने लिखते थे. इसलिए उनके गानों में कहानी नजर आती थी, जो कि आज के गानो में नहीं मिलता. इतना ही नहीं. पता चलता है कि फिल्म खत्म हुई, क्रेडिट लाइन्स शुरू हुए, दर्शक सिनेमा घर से बाहर निकल रहा है. तभी गाना आ जाता है. पर अब दर्शक रूक कर उस गाने को देखना ही नही चाहता. फिल्म में चार चार संगीतकार के होते हुए भी एक भी गाना हिट नहीं होता. तो आज कल कहानी के साथ ही संगीत को भी हाशिए पर डाल दिया गया है. अब पहले की तरह फिल्मों में हमारे त्योहार, माता पिता आदि नजर नहीं आ रहे हैं. फिल्मकार दावा करता हैं कि युवा दर्शक यह सब नही देखना चाहता. तो फिर दर्शक देखना क्या चाहता है? यदि एक निर्माता या निर्देशक के तौर पर आप अपने दर्शक को नही समझ पा रहे हैं , तो दोषी कौन है? इस पर सोचना चाहिए... लेकिन अब कोई कुछ नही सोचना चाहता. लोग सिर्फ दो ही बाते करते है पैसा और प्रपोजल.
तो क्या कलाकार भी महज पैसे के लिए किसी भी किरदार किसी भी फिल्म में काम करने को तैयार हो जाता है?
जी हाॅ! यही सच्चाई है. पहले हर कलाकार कहानी सुनता था. पर अब कोई भी कलाकार कहानी नही सुनता. अब कहानी तो उनके बिजनेस मैनेजर सुनते हैं. उनके बिजनेस मैनेजर कहानी सुनते नही है, कहते हैं कि कहानी ईमेल पर भेज दो. अब आपने कहानी ईमेल कर दी. पर कलाकार के बिजनेस मैनेजर ने ईमेल खोलकर क्या फिल्म की कहानी या स्क्रिप्ट पढ़ी? सच यह है कि वह नही पढ़ता. इससे भी बड़ा बदलाव एड फिल्म को लेकर है. पहले का कलाकार एड फिल्में नही करता था, मगर आज की तारीख में हर कलाकार एड फिल्में करता हुआ नजर आ रहा है और वह एड फिल्म करने के लिए मोटी रकम ले रहा है. मेरी जानकारी के अनुसार कलाकार को एक एड करने के लिए दो से पांच करोड़ रूपए तक मिल रहे हैं. हर कलाकार की रूचि फिल्म से ज्यादा एड फिल्म करने में है. एक एड के लिए ज्यादा से ज्यादा दो दिन की शूटिंग करता है और उसे पांच करोड़ रूपए तक मिल जाते हैं. पहले कलाकार सबसे पहले कहानी सुनता था, कहानी पसंद आने के बाद आगे बातचीत बढ़ती थी. लेकिन अब पहले पैसे की बात होती है. कहानी व संगीत पर कोई चर्चा ही नही होती है. कलाकार अब फिल्म को क्रिएशन नही, धंधा मानकर ही काम कर रहा है. एक फिल्म के असफल होने के बाद उससे जुड़े हर इंसान को सोचना चाहिए कि उनकी फिल्म क्यों असफल हुई, लेकिन कोई नहीं सोचना चाहता है.
तेलुगु की फिल्म ‘पुष्पा 2 द रूल’ पूरे विश्व में दो हजार करोड का आंकड़ा पार करने जा रही है, जिसने हिंदी में साढ़े सात सौ करोड़ क्लैक्शन कर लिया हैं. इसकी क्या वजह है?
मैने फिल्म देखी है. फिल्म के हीरो अल्लु अर्जुन का अभिनय जबरदस्त है. कहानी बहुत अच्छी है. अंत में माता पिता का एंगल लाकर कमाल की फिल्म बनायी गयी है. माता पिता का एंगल आते ही सारे इमोशंस व संजीदगी आ गयी है. इसलिए आज की पीढ़ी को भी यह फिल्म पसंद आयी. इसमें महज तकनीक की जुगलबंदी नही है. माना कि फिल्म के गाने सुपरहिट नही है, मगर ठीक ठाक हैं. ‘पुष्पा राज’ के किरदार को उसके स्वैग को यंग जनरेशन ने काफी पसंद किया. फिल्म रिकाॅर्ड तोड सफलता तभी पाती है ,जब उस फिल्म को यंग जनरेशन देखना चाहे. आपको शायद नही पता होगा, मगर दक्षिण के सिनेमा में हर कलाकार निर्देशक के सामने सरेंडर होकर काम करता है. बाॅलीवुड में हर कलाकार, डायरेक्टर को ही सरेंडर करवा कर उसकी फिल्म से जुड़ता है. बाॅलीवुड का कलाकार निर्देशक की सुनता ही नही है. हमारे यहा डायरेक्टर को साइड लाइन कर दिया गया है. बाॅलीवुड कलाकार उन निर्देशकों के साथ काम करते हैं, जो निर्देशक उनकी बात सुनकर सब कुछ तय करे. डायरेक्टर पैसे के लिए फिल्म कर रहा होता है, इसलिए वह कलाकार के आगे नतमस्तक हो जाता है. इसलिए हिंदी फिल्मों में वह बात नजर नही आ रही है. पहले की फिल्मों में लेखक, निर्देशक, संगीतकार नजर आते थे. यही वजह है कि अब हिंदी में यादगार फिल्में नहीं बनती. साल एक या दो टुक्के से बन जाती हैं. भारत मतलब पूरे विश्व में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला देश. हमारी फिल्में विश्व भर में हंगामा मचाती रही हैं. हिंदी फिल्मों की असफलता की सबसे बड़ी वजह बजट है. बजट की वजह से भी फिल्में असफल हो रही हैं. मैं कई बार यह बात कह चुका हूँ, पर मेरी कोई सुनने को तैयार ही नही है. आज की तारीख में फिल्म का बजट कहां से कहां पहुॅचा दिया गया है. इन कारपोरेट कंपनियों ने बीस लाख कीमत लेने वाले कलाकार को पचास लाख देना शुरू कर दिया. पचास लाख वालों को एक से पांच करोड़ मिलने लगा. जो हीरोइनें टाॅप पर होते हुए भी 25 लाख ले रही थीं, उन्हे इन्होने पचास लाख रूपए देना शुरू कर दिया. आज तो कलाकारों को करोड़ो रूपए पारिश्रमिक राशी के रूप में दिए जा रहे हैं, कहानी पर ध्यान नहीं. इसलिए फिल्में असफल हो रही हैं. यदि आज भी कलाकारों की पारिश्रमिक राशी रीजनेबल हो जाए, फिल्म का बजट रीजनेबल हो जाए, तो फिल्में सफल हो सकती है. फिल्मों का बिजनेस आज भी अच्छा होता है. मेरी राय में सबसे बड़ी सुपरहिट फिल्म सौ करोड रूपए के अंदर ही बननी चाहिए. दूसरी बात पहले कलाकार केवल अभिनय पर ध्यान देते थे, पर अब कलाकार को फिल्म की कमायी में भी भागीदारी चाहिए. भागीदारी होते ही उनकी दखलंदाजी बढ़ जाती है.
फिल्म ‘पुष्पा 2 द रूल’ को जिस तरह से हिंदी क्षेत्रों में सफलता मिल रही है, उससे कहा जा रहा है कि अब दक्षिण का सिनेमा बाॅलीवुड के लिए खतरा है. आप क्या मानते हैं?
खतरा तो है. क्योंकि एक वक्त वह था जब दक्षिण की फिल्मों को नार्थ में सिनेमा नही मिलते थे. दक्षिण की फिल्में सफल भी कम होती थी. पर अगर अपने कंटेंट के चलते दक्षिण का सिनेमा लोकप्रिय हो रहा है, तोडरने की क्या जरुरत. जीतू जी यानी कि अभिनेता जीतेंद्र ने कई दक्षिण की फिल्में की थी. उन्ही फिल्मों ने उन्हें स्टार बनाया था. उस वक्त भी दक्षिण की फिल्में अच्छी बनती थीं. प्रेम कहानी वाली फिल्मों में भी कहानी के साथ बेहतरीन गाने हुआ करते थें पर यह सच है कि उस वक्त हिंदी स्क्रीन पर दक्षिण की फिल्मों का क्रेज कम था. इसकी वजह यह थी कि हिंदी में भी अच्छी फिल्में बन रही थी. पर आज दक्षिण की फिल्मो ने हिंदी फिल्मों को साइड लाइन कर दिया. तो कोई न कोई वजह है,जिस पर हर किसी को सोचना चाहिए. पर यहां पैसे के पीछे भागने वाले कब कला को लेकर सोचेंगेें?
क्या भारतीय सिनेमा को भाषा के आधार पर विभाजित कर देखना गलत है?
यह तो गलत है. पहले सिर्फ भारतीय सिनेमा ही होता था. पूरे विश्व में भारतीय सिनेमा की ही धाक रही है. पर अब हमने स्वार्थ के चलते भाषा के आधार पर सिनेमा को बांट कर अपनी पीठ लाल करने का प्रयास कर रहे हैं. सिर्फ भारतीय सिनेमा ही होना चाहिए.
2025 में क्या हो सकता है?
हमने अभी जिन मुद्दों पर बात की,उन पर हर शख्स को गंभीरता से सोचना चाहिए, तभी 2025 में भारतीय सिनेमा का भविष्य उज्ज्वल होगा. लेकिन सोचने वाले नजर नही आ रहे हैं. कारपोरेट कंपनियां सोचती हैं कि बड़े कलाकारों को लेकर प्रपोजल बना डालो. दो तीन दिन यानी कि शुक्रवार, शनिवार व रविवार में जो कमायी हो जाए,वह ठीक. मगर बड़े कलाकार के होेते हुए भी कहानी अच्छी नही होगी,तो प्रपोजल वाली फिल्में सफल नही हो सकती. बजट पर भी सोचना होगा. देखिए, फिल्मों के बाॅक्स ऑफिस के आंकड़े भी शेयर बाजार को ध्यान में रखकर बताए जाते हैं. जनता को तो पता ही नही कि ग्राॅस और नेट क्लैक्षन क्या होता है. प्रोडक्षन कंपनियां ग्राॅस कलेक्षन के ही विज्ञापन देेती हैं. मैंने कई बार इस पर सवाल उठाया. मेरे सवाल पूछने पर वह कहते हैं कि, ‘सर हमारा तो शेयर बाजार का गेम है. जनता को नेट या ग्राॅस के बारे पता ही नही है. मैं यहां बता दूं कि बाॅक्स ऑफिस पर जो ग्राॅस क्लैक्शन होता है, उसमें से खर्च निकालने पर जो बचता है, वह नेट क्लैक्शन होता है. इस तरह यदि बाक्स आफिस पर सौ करोड़ रूपए का ग्राॅस क्लैक्शन होने पर सिनेमा हाल 70 करोड़ और 10 प्रतिशत पब्लिसिटी में लैस हो जाता है नेट सिर्फ 20 करोड़ ही प्रोड्यूसर को मिलता है, प्रोड्यूसर को संगीत और चैनल से पैसे मिल जाते है. पर ग्राॅस क्लैक्षन बताने पर कंपनी के शेयर के दाम दस से बीस रूपए बढ़ जाते हैं, तो इससे कंपनी को 50 से 70 करोड़ रूपए की कमाई आसानी से शेयर बाजार मे हो जाती है.
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