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यूं तो पूरे विश्व में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल होते रहते हैं। फ्रांस के कांस फेस्टिवल के साथ ही कनाडा का टोरंटो फेस्टिवल और भारत का ‘ईफ्फी’ काफी लोकप्रिय है। भारत में 20 नवंबर से गोवा में ‘इफ्फी’ होने जा रहा है। यह सभी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल सरकारी या बड़े संगठन द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जबकि हर वर्ष जनवरी माह में राजस्थान की राजधानी जयपुर शहर में आयोजित होने वाला ‘‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’’ अकेले हनु रोज की मेहनत व इच्छाशक्ति का परिणाम है, जो कि कभी आईएएस की परीक्षा देने की तैयारी कर रहे थे। हनु रोज का यह फिल्म फेस्टिवल कई मायनों में अनूठा है। वह सिनेमा के विकास के लिए काम कर रहे हैं। (Hanu Roz Bollywood statement)
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पेश है हनु रोज से हुई बातचीत के खास अंश...
आपको सिनेमा का चस्का कैसे लगा?
-हर व्यक्ति सिनेमा प्रेमी होता है और वह मुझ में भी था और रहेगा। इसके साथ ही जब मैं सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रहा था, उस तैयारी को करने के दौरान मैं थोड़ा बीमार हुआ। तब मेरे सामने दो विकल्प थे। मैंने पत्रकारिता और फिल्म को जोड़ा। फिर मैंने पत्रकारिता के कोर्स से ब्रेक लिया और ब्रेक करने के बाद फिल्म को प्रमुखता दी। मैंने जहांगीराबाद इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड मीडिया इंस्टीट्यूट, लखनऊ से फिल्म मेकिंग का कोर्स किया। उसी दौरान मैंने दो-तीन फिल्में बनाईं। एक कश्मीर पर ‘आफ्टर फ्रीडम’। इसमें पुलिस की जो नेगेटिव इमेज है, उस पर बात की तथा दूसरी फिल्म किसानों की आत्महत्या पर बनाई। उसके बाद दिल्ली आकर डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से इंटर्नशिप की और वहीं मुझे परमानेंट नौकरी मिली। लेकिन मैंने तय कर रखा था कि मैं गवर्नमेंट जॉब में जाऊंगा, तो सिर्फ सिविल सर्विसेस में, अन्यथा नहीं। इसलिए मैंने वह नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद एक बार फिर मैं वापस सिविल सर्विसेस की तरफ लौटना चाहता था, लेकिन वही पहले वाली परिस्थितियां थीं। अंततः मैंने हमेशा के लिए सिविल सर्विसेस करने का इरादा त्याग दिया। फिर मैंने फिल्मकार बनने का फैसला किया। लेकिन कुछ दिन बाद ही तय किया कि एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार करूं, जो कि सिनेमा के विकास में योगदान देने के साथ ही दूसरे फिल्मकारों के लिए भी मददगार साबित हो। तो मेरा जो अनुभव था, मेरी जो समझ थी, मेरी सोच थी, उसके आधार पर मैंने यही फैसला लिया कि शुरू में मैं दूसरे फिल्म मेकरों व सिनेमा के विकास के लिए प्लेटफॉर्म क्रिएटर बनूंगा। इस फैसले के साथ मैं दिल्ली से जयपुर आ गया। फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का मेरे पास एक छोटा सा अनुभव था। मैंने फिल्म मेकिंग का कोर्स करने के दौरान ‘नेशनल स्टूडेंट वीडियो फेस्टिवल’ आयोजित किया था। वह अनुभव मेरे काम आया। हमने तय किया कि हमें दो दिन का पहला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आयोजित करना है तो पहला ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ दो दिन का, दूसरा तीन दिन का, तीसरा चार दिन का और चौथा वाला 5 दिन का किया। उसके बाद से हर वर्ष हम पांच दिवसीय ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ आयोजित करते आ रहे हैं। जनवरी 2026 में 18वां संस्करण आयोजित होगा। (Jaipur International Film Festival news)
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आपके ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ शुरू करने से पहले ऐसा करने की बात जयपुर में किसी ने नहीं सोची थी?
-जब मैं जयपुर पहुंचा, तब जयपुर में फिल्म को लेकर नेगेटिव माहौल था। निराश होने की बजाय मैंने सोचा कि इनमें कोई ना कोई कमियां रही हैं, जो कि यह आयोजन नहीं कर पा रहे हैं। फिर उन कमियों का सार भी मेरे पास पहुंचा कि लोग उतनी मेहनत नहीं करना चाहते। दूसरा आर्थिक मसला भी रहा। क्योंकि फिल्म फेस्टिवल से जेबें भरने का सपना देखना गलत है। तो मैंने ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का आयोजन शुरू करते हुए आर्थिक मसले को बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह तय कर लिया कि इससे कमाई नहीं होना है, जेब से कुछ धन जा सकता है। मैंने एक ही लक्ष्य रखा कि मुझे सिनेमा के विकास के लिए काम करना है। मुझे ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ के साथ हर फिल्मकार को जोड़ना है। मैं इसे वह ऊंचाइयां दूंगा, जिससे पूरे देश को नाज हो।
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‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का पहला संस्करण दो दिन का था, जिसमें 150 फिल्में आईं थीं। इसमें से 49 फिल्में स्क्रीन की थीं। अब हम 18वें संस्करण की तैयारी में जुटे हुए हैं। इस यात्रा तक बहुत सारी उपलब्धियां इस फेस्टिवल की रही हैं। जिसमें हमने ‘को प्रोडक्शन मीट’ भी रखा। जयपुर फिल्म मार्केट अलग से किया। कोविड के दौरान भी फेस्टिवल आयोजित किया। आपको पता है कि हर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में आठ से 12 फुल लेंथ फिल्में ही कंपटीशन में हुआ करती थीं। फिर चाहे आप ‘ईफ्फी’ को ले लें या फ्रांस के ‘कांस’ को ले लें। किसी भी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को जगह नहीं मिलती थी। लघु फिल्में भी नहीं हुआ करती थीं। हमने ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में इन सभी का दायरा बढ़ाया। तथा अब दूसरे हमारा अनुकरण करने पर मजबूर हुए हैं। (Bollywood industry controlled by few people)
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आपके ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ के आयोजन से सिनेमा का विकास कहां और कैसे हो रहा है?
-देखिए, जब 2009 में ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ की नींव रखी गई, उस समय एक रीजनल सिनेमा, नेशनल सिनेमा, इंटरनेशनल सिनेमा सभी एक तरह के संवाद कर रहे थे। उस वक्त तक सभी लोगों का मानना यह था कि फिल्म फेस्टिवल का मतलब समानांतर सिनेमा है। जिसमें श्याम बेनेगल व मणि रत्नम, मणिपुर जैसे फिल्मकारों द्वारा निर्मित सिनेमा है। अब तो मणि रत्नम भी अलग तरीके से सिनेमा बनाने लगे हैं। बहरहाल, हमने मेन स्ट्रीम सिनेमा और समानांतर सिनेमा के बीच एक सामंजस्य बनाया। हमने पहला शोध कार्य यही किया कि कहां-कहां इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल होते हैं और वहां कौन-कौन सा सिनेमा और कितना दिखाई जा रहा है। हमने पाया कि फिक्शन के तहत फुल लेंथ सिनेमा की 8 से 12 फिल्में ही कांस, वेनिस, ईफ्फी सहित हर फेस्टिवल में होती हैं। तो हमने इस दायरे को बढ़ाया। बढ़ाने की वजह यह रही एक तो हमें फेस्टिवल में फिल्म मेकरों की भागीदारी को बढ़ावा देना था। हर फिल्म फेस्टिवल में हर बार एक ही फिल्मकार की फिल्म दर्शक को मिलती थी, जिससे सिनेमा का विकास नहीं हो रहा था। हम कुएं का मेंढक बनते जा रहे थे। हमने इस परिपाटी को तोड़ने का बीड़ा उठाया। हमने ज्यादा से ज्यादा नए, नवोदित फिल्म मेकरों को भी मंच देने का प्रयास शुरू किया। हमने तय किया कि जब लोगों तक अच्छा सिनेमा पहुंचेगा, तभी अच्छे सिनेमा की डेफिनेशन में कुछ बदलाव होंगे या लोग सोचेंगे। तो जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मंच ने सिनेमा की विकास यात्रा में योगदान देना शुरू किया। दूसरे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवलों की भांति फेस्टिवल में फिल्में आईं और दिखा दीं, तक ही खुद को सीमित नहीं रखा। हमने उसके परे जाकर काम किया। अब ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में कंपटीशन सेक्शन में सौ फिल्में फुल लेंथ की फीचर फिल्में आती हैं। 25 से 30 डॉक्यूमेंट्री रखीं। डेढ़-डेढ़ सौ नॉन फिक्शन, फिक्शन में शॉर्ट फिक्शन में रखीं। अब पूरी दुनिया में डायलॉग शुरू होता है। ऑस्कर में होता है। ईफ्फी गोवा ही नहीं कांस में भी होने लगा है। यूरोप से आने वाले फिल्म मेकर्स चर्चा करते हैं। जबकि जयपुर शहर एक नॉन फिल्मी कल्चर कैपिटल है। राजस्थान की राजधानी जयपुर का कल्चर पूरे विश्व में लोकप्रिय है। यहां लोग शूटिंग करने आना चाहते हैं। अब फिल्म फेस्टिवल को लेकर यह पूरे विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय शहर बन गया है। एकदम ‘लालटेन लाइट’ बन गया है, कि वह दूर से दिखाई देने लगा है। यूरोपीय फिल्मकार भी इसकी वजह यह मानते हैं कि ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ सौ फिल्में दिखाता है, जिसके चलते साठ से सत्तर फिल्मकार इसमें शिरकत करते हैं। जब आठ फिल्में दिखाते थे, तो आठ फिल्मकार ही आते थे। इस तरह फिल्मकारों की भागीदारी दस से बीस गुणा बढ़ गई। इसी से आप अंदाजा लगा लें कि सिनेमा के विकास में ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का योगदान कितना हो रहा है। जो थिएटर में फिल्म आ रही थी, हमारी हिंदी सिनेमा की भी हर माह एक-दो फिल्में आती थीं। हमने पांच दिवसीय फिल्म फेस्टिवल में पचास देशों की ढाई सौ से 300 फिल्में स्क्रीन कीं। इससे फिल्ममेकरों की भागीदारी, फिल्मों की संख्या बढ़ी, तो स्वाभाविक तौर पर सिनेमा के विकास की गति में भी बढ़ोतरी हुई। इस तरह से शुरू हुआ और पूरी दुनिया में आज नॉन फिक्शन फिक्शन शॉर्ट फिक्शन और फुल लेंथ का डबल ट्रिपल दायरा हुआ है। तो यह हमारा एक कंट्रीब्यूशन था, जिसको हमने बड़ी मेहनत और कोशिश करके अंजाम दिया। कोई भी फिल्म फेस्टिवल जब ऑर्गेनाइज करते हैं, तो फाइनेंशियल अस्पेक्ट होते हैं, जैसे एक फिल्म बनाने के लिए होते हैं। यह एक टीम वर्क है। इन चीजों को हमने समझा और हमने उसे किया, जिसके चलते पूरी दुनिया में दरवाजे खुले। सिनेमा के विकास की राह बनी, फिल्मों व फिल्म मेकरों की संख्या बढ़ी। अच्छा सिनेमा बनाने के लिए लोग इच्छुक हुए। इस विकास में हमारे एक निर्णय का बड़ा अच्छा योगदान रहा, जिसे आजकल कोई करता नहीं है। हमने आज तक किसी भी अवार्ड को और किसी भी तरह से फिल्म के चयन में किसी की सिफारिश नहीं सुनी। हमने अपनी कमेटी के निर्णय को ही सर्वोपरि माना। हमारी कमेटी में बड़े, अनुभवी और नए लोग भी हैं। तो कुछ बहुत पुराने लोग भी हैं। मसलन- हमने सिनेमा के विकास यात्रा के लिए ‘नेशनल टॉर्च कैंपेन टू प्रमोट इंडियन रीजनल सिनेमा’ आयोजित किया था, जिसमें तमिल, तेलुगू, मलयालम, मराठी, बंगाली व असामी की 12 फिल्में थीं। हम असम, कोलकाता, चेन्नई, मुंबई सब जगह उसको लेकर यात्रा की थी। इसकी ज्यूरी में बड़े लोग थे। मसलन ‘‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’’ के निर्देशक पीटर जैक्सन थे। भारत की तरफ से शाजी एन करुण के साथ ‘तेजाब’, ‘रंग दे बसंती’ फिल्मों के लेखक कमलेश पांडे, जॉनी बख्शी, फिल्म ‘नो मैंस लैंड’ के लिए ऑस्कर जीत चुके दानिश तानोविक आदि थे। इसका फायदा यह हुआ कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में यह संदेश जाने लगा कि ‘जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में फिल्मों के चयन और अवार्ड का एक स्पेशल डेमोक्रेटिक दायरा है, जिसमें किसी की नहीं चलती। इससे जो अच्छा सिनेमा है, जो मेहनतकश लोगों का सिनेमा है, जो पहले थिएटर तक पहुंचने की बजाय केवल फेस्टिवल सर्किट में ही घूमता रहता था, उनके अंदर विश्वास आया कि वह अच्छा सिनेमा बनाएंगे तो फेस्टिवल के साथ ही थिएटर तक पहुंचेंगे। हमने एक साफ संदेश दिया कि आप आइए, आप जितनी मेहनत से सिनेमा बनाते हैं। उसी मेहनत और लगन से हम आपका स्वागत करते हैं। (Decision-making power in Bollywood film production)
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आपके अनुसार इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल तक न पहुंच पाने वालों को भी आप प्लेटफॉर्म दे रहे हैं। पर ऐसे लोगों की तलाश कैसे करते हैं?
-हमारे देश में शोध को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना अमेरिका व अन्य देशों में दिया जाता है। हमारे पुराने बुजुर्ग कह गए हैं कि जब नींव मजबूत होगी, तो सब मजबूत होगा। हम पहले दिन से ही रिसर्च करते हैं। हम पता लगाते रहते हैं कि कौन सा फिल्म मेकर कहां, किस तरह की फिल्म बना रहा है। फिर चाहे वह फिल्म स्कूल का हो या चाहे प्रोफेशनल हो। सभी के अलग एंगल्स होते हैं। हम उस डाटाबेस तक पहुंचते हैं। फिर हम निजी स्तर पर नहीं बल्कि सामूहिक रूप से उन तक पहुंचकर अपनी बात, अपनी सोच उन तक पहुंचाते हैं। हम किसी एक इंसान से उसकी फिल्म देने का निवेदन नहीं करते। ऐसा हमने आज तक नहीं किया। हमने बल्क में एक सामान्य प्रक्रिया में कि हम कौन हैं और क्या कर रहे हैं और हम आपके सिनेमा के लिए आप हम पर विश्वास करेंगे। हम विश्वास को बढ़ाने वाली चीज डेवलप करते हैं। तो इस तरह लोग हमारे साथ जुड़ने लगे। दक्षिण भारत के फिल्मकार भी हमारे साथ आए हैं। हम उनको प्रमोट करने के लिए सिनेमाघरों तक पहुंचाने के लिए गाइड भी करते हैं। जैसे कि हमने एक फिल्मकार को सलाह दी कि वह चार या पांच आज के सेटअप में जो भी स्टार्स हैं, उनसे आशीर्वाद ले लीजिए। अब आशीर्वाद कैसे लेना है और पहुंचना कैसे है, वह सामने वाले का काम है। पर ऐसा करने से फिल्म चल देगी। उन्होंने वही किया और उनकी फिल्म सफल हो गई। तो ढेर सारे अलग-अलग तरीके और बातें होती हैं। यह वही सिद्धांत हैं, जो हम अलग-अलग चीजों का अध्ययन कर सीखते आ रहे हैं। अमूमन हर फिल्म फेस्टिवल क्या करता है? वह फिल्म दिखा कर फ्री हो जाता है, जबकि हम फिल्म दिखाकर बिजी होते हैं।
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आपके फिल्म फेस्टिवल से भारतीय सिनेमा का विकास हो, इसके लिए आप विदेशी फिल्में लाते समय किन बातों पर ध्यान देते हैं?
-हमें भारतीय सिनेमा, हिंदी सिनेमा और इंटरनेशनल सिनेमा को एक साथ समझना पड़ेगा। जब हम टॉर्च प्रमोशन कर रहे थे तब गौतम घोष ने कहा था-‘‘कई बार कुछ फिल्में क्षेत्रीय फिल्में बनकर रह जाती हैं। कई बार कुछ फिल्में नेशनल फिल्में और कई बार कुछ फिल्में इंटरनेशनल फिल्में बन जाती हैं।’’ हम मानते हैं कि भारत में जितना सिनेमा बन रहा है, वह सब भारतीय सिनेमा ही है। उसी में हिंदी में बन रही फिल्में भी आती हैं। मैं गौतम घोष की बातों से सहमत हूं। गौतम घोष के अनुसार हिंदी सिनेमा भी रीजनल है। पर हिंदी राष्ट्रीय भाषा है, इसलिए हम इसे क्षेत्रीय सिनेमा की बजाय नेशनल सिनेमा मानते हैं। जो सिनेमा कंटेंट के अनुसार या तकनीक के अनुसार हो। जो पूरी दुनिया को प्रभावित करे, वह इंटरनेशनल सिनेमा है। कुछ विषय मसलन-राजनीति या हमारे कस्टम्स आदि इंटरनेशनल सब्जेक्ट हैं। जो विषय पूरी दुनिया को प्रभावित करे वह इंटरनेशनल है। हमारे देश की हर भाषा का सिनेमा क्षेत्रीय सिनेमा है। जब विदेशी फिल्में हमारे यहां आएं, तो जिस देश से आया है, उस देश का वह नेशनल सिनेमा है। पर हमारे यहां वह इंटरनेशनल हो जाता है, क्योंकि वह एक देश से दूसरे देश में आया है। जब हम तुलना करते हैं, मसलन, ईरानी सिनेमा के मुकाबले हमारे देश की फिल्में नहीं हैं। हमारा हिंदी का कमर्शियल सिनेमा भी हमारे देश के क्षेत्रीय सिनेमा व इंटरनेशनल सिनेमा के मुकाबले का नहीं है। भारत की कुछ फिल्में अच्छी होती हैं और वह फेस्टिवल के दायरे में भी आ जाती हैं। मसलन- ‘फिल्मिस्तान’ या ‘भाग मिल्खा भाग’। फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की सभी फिल्में अच्छी होती हैं। वह फिल्म बनाते समय आर्थिक पक्ष पर गौर नहीं करते। वह ऐलान कर चुके हैं कि वह पैसे के लिए सिनेमा नहीं बनाते। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की सभी फिल्में इंटरनेशनल हैं, क्योंकि उनकी सभी फिल्में पूरे विश्व के लोगों को कहीं न कहीं छूती हैं। ‘दंगल’ भी इंटरनेशनल फिल्म है। ‘दंगल’ में जो कुछ दिखाया गया, वही चीन के गांव की भी स्थिति है। इसलिए ‘दंगल’ ने चीन में काफी पैसा कमाया। सत्यजीत रे का सिनेमा आज भी पूरे विश्व में पसंद किया जाता है।
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इरानियन सिनेमा या दक्षिण भारत की फिल्मों के मुकाबले हिंदी सिनेमा कमजोर क्यों है?
-इसमें मोटा-मोटा आकलन यह रहा कि हमारी कोई भी एक मानसिक स्थिति डेवलप हो चुकी होती है। उत्तर भारत में पश्चिम और मध्य भाग पूरी तरह से हिंदी भाषी है। पूर्व या नॉर्थ ईस्ट में अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाएं हैं। मतलब असम, मणिपुर या बाकी 7 सिस्टर स्टेट्स और बंगाल यह अलग हो जाते हैं। तो यह जो पूरा दर्शक है वह उस मार्केटिंग की उपज है कि हमें इस स्टार की फिल्में देखनी हैं। मार्केटिंग के बल पर एक स्टार कल्चर डेवलप हो गया। वह स्टार कल्चर हमारी ऑडियंस के माइंड में आ गया। अब लोग इंतजार करते हैं अपने पसंदीदा स्टार की फिल्म देखने के लिए। यह मार्केटिंग की वजह से हुआ है। मार्केटिंग इतने बड़े स्तर पर होती है कि दर्शक कुछ सोच ही नहीं पाता। दर्शक क्षेत्रीय सिनेमा के बारे में भी नहीं सोच पाता। अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के बारे में सोच नहीं पाता। हकीकत यह है कि हम सभी सिनेमा प्रेमी मार्केटिंग के नीचे दब गए हैं। हिंदी सिनेमा वाले जो दर्शक हैं, उन्हें अब धीरे-धीरे दक्षिण की फिल्में देखने लगे हैं।
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इसी तरह मान लो किसी ने गलती से एक ईरानियन फिल्म देख ली या गलती से लघु फिल्म देख ली, तो उसकी सोच बदल जाती है। जब आप ईरानियन सिनेमा की बात कर रहे हैं तो ईरानियन सिनेमा में बॉलीवुड की तरह की एक जो एक टेक्निकल वीकनेस होती है या स्टार का भी इसमें बहुत सारा कंट्रीब्यूशन आ जाता है तो फिल्म अपनी लाइन और लेंथ भूल जाती है और ईरानियन सिनेमा में आप देखिए सिनेमैटिक रिदम प्रॉपर मिलती है। कहानी की रिदम प्रॉपर मिलती है। डायलॉग डिलीवरी प्रॉपर मिलती है। ऐसा नहीं है कि हम जबरदस्ती कुछ भी ठूंस दें। हमारे सिनेमा में तो बस आदमी को खुश करना है। दर्शक को खुश करने की ही सोच रहती है। सब पैसा वसूल फिल्म बनाने पर ध्यान देते हैं। इसी भारतीय सिनेमा में कुछ लोगों ने अच्छी फिल्में बनाईं। देव आनंद, राज खोसला, प्रकाश झा की कई फिल्में अच्छी हैं। अंजुमन राजाबली की लिखी हुई सारी फिल्में ही अच्छी हैं। वह बनाने वाले पर डिपेंड है। लेकिन उसमें जब निर्माता और निर्देशक दूसरों के इशारे पर फिल्म बनाता है, तब सब गड़बड़ हो जाता है। हमारा बॉलीवुड तो मोनोपोली का शिकार रहा है। अब मैं नाम नहीं लूंगा। लेकिन आप भी जानते हैं कि पूरे बॉलीवुड पर सिर्फ पांच-सात लोगों का ही कब्जा है। यह कंट्रोल जब टूटेगा, तो हिंदी में भी अच्छी फिल्में बनने लगेंगी। अभी भी कुछ अच्छी फिल्में बनती हैं, लेकिन फिर इन पांच-सात लोगों के दबाव के चलते डिब्बों में बंद हो जाती हैं। यह पांच-सात लोग दूसरे फिल्मकार को आगे आने ही नहीं दे रहे हैं। इनकी मोनोपोली का टूटना सिनेमा के हित में होगा। आज तो सिनेमा ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि थिएटर बंद हो गए हैं। अब मल्टीप्लेक्स आ गए हैं, पर वह भी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। दर्शक नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि हम अच्छी फिल्में नहीं दे रहे हैं। दूसरी बात फिल्मों के ट्रीटमेंट में भी दोहराव है। मार्केटिंग तो स्टार तक सीमित है। जबकि अब स्टार कल्चर ब्रेक हो चुका है। सुभाष कपूर के सिनेमा ने भी स्टार कल्चर को ब्रेक किया है। हालांकि अब वह स्टार अक्षय कुमार को लेकर जॉली एलएलबी तीन बना दिए, पर बात नहीं बनी। कोविड के बाद स्टार को लेकर दर्शकों में कोई रुचि नहीं है (Hanu Roz interview at Jaipur Film Festival)
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यदि मैं आपके जयपुर इंटरनेशनल फेस्टिवल को चार भागों में डिवाइड करें, तो एक 2009 से 2015, फिर दूसरा 2015 से कोविड तक, फिर कोविड काल और अंतिम कोविड के बाद से अब तक का समय। 2009 से 2015 के बीच ओटीटी प्लेटफॉर्म कोई जानता नहीं था। 2015 से ओटीटी ने अपने कदम बढ़ाए। कोविड में उसको पसरने का पूरा मौका मिल गया और उसके बाद अलग तो अब यह जो चार भाग है, जयपुर फिल्म फेस्टिवल के आपके अपने अनुभव कहां-कहां क्या रहे और क्या आपको बदलाव करने की जरूरत महसूस हुई?
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-देखिए, ओटीटी की वजह से हमारे फिल्म फेस्टिवल पर फर्क नहीं पड़ता है। वह इसलिए कि थिएटर वाले को भी फेस्टिवल में फिल्म भेजना है। ओटीटी वाले को भी भेजना है। अब इसमें उनका फायदा यह होता है कि फलां फेस्टिवल में फिल्म नॉमिनेट हो गई या अवार्ड मिल गया। तो यह ओटीटी के रिलीज के लिए फायदेमंद होता है। लेकिन जो सिनेमा का विकास है और जो पहले सबसे बड़ा फर्क आया वह उसकी आर्थिक संरचना पर... क्योंकि थिएटर के लिए फिल्म बनाते समय आपको पूरा सेटअप, टेक्निकल टीम, कैमरा टीम, लोकेशन आदि तामझाम करना पड़ता है। ओटीटी की वजह से बहुत सारे लोग अपनी फिल्म को अपने डीएसएलआर से ही बना रहे हैं। आजकल आई फोन सहित बड़े-बड़े अच्छे-अच्छे मोबाइल कैमरा आ गए हैं। जिनसे लोग काफी चीजें क्रिएट कर रहे हैं। जब आपको छोटी स्क्रीन पर ही कंटेंट देखना है तो पिक्सल से फर्क नहीं पड़ता। क्वालिटी अच्छी है तो इसका सबसे बड़ा असर आर्थिक पक्ष पर पड़ता है। परिणामतः युवा फिल्म मेकर्स को फिल्म बनाने में जो बहुत परेशानी आ रही थी, वह काफी कम हो गईं। अब उसे पूरा सेटअप बनाने या पूरी टीम जुटाने की जरूरत नहीं पड़ रही है। इसी वजह से दर्शकों के सामने कुछ ऐसी कहानी, ऐसी फिल्में भी आईं, जिन पर इससे पहले बजट की वजह से लोग काम करने से डर रहे थे। फेस्टिवल्स पर तो उसका ज्यादा ही फायदा हुआ। क्योंकि जब बड़ी संख्या में फिल्में बनती हैं, तो फेस्टिवल्स के लिए फायदा होता है। यह बात अलग है कि जब 2018 में जीएसटी का पीरियड आया था, उससे सिनेमा को नुकसान हुआ था। कोविड में और कोविड के बाद तक थोड़ा नुकसान हुआ। लगभग दो-तीन साल कोविड का असर रहा। दो-तीन साल ही जीएसटी का रहा। कुल मिलाकर फिल्म फेस्टिवल्स के लिए 2018 से लेकर 2023 तक का नुकसानदायक व बुरा समय था। इस काल में अच्छा सिनेमा नहीं बना।
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Jagadhatri की विशेष स्क्रीनिंग में सितारों की चकाचौंध, टीवी जगत के दिग्गजों ने दी शो को शुभकामनाएँ!
जीएसटी क्यों?
-देखिए, कड़वा सच यह है कि सिनेमा में ब्लैकमनी का उपयोग काफी होता है। लेकिन जीएसटी की वजह से फिल्में कम संख्या में बनीं। तो स्वाभाविक तौर पर फेस्टिवल में भी फिल्में कम आईं। जब कोरोना आया तब भी फिल्में बनना बहुत कम हुई तो वह भी फेस्टिवल्स के पास कम आएंगी। लेकिन जनवरी 2025 के एडिशन में हमारी उम्मीद से ज्यादा इंटरनेशनल व नेशनल लेवल पर लोगों ने शिरकत की। हमें ओपनिंग सेरेमनी में सिर्फ फिल्म मेकर्स को बैठाने की जगह दी गई थी। मजबूरन हमने स्थानीय दर्शकों को ओपनिंग सेरेमनी का निमंत्रण ही नहीं दिया।
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जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के 17 सीजन हो गए हैं। इसमें कब-कब आपने बदलाव करने की जरूरत महसूस की?
-बदलाव तो प्रकृति का नियम है। ऐसे में हम अछूते कैसे रह सकते हैं। हम अपने फिल्म फेस्टिवल के लगभग हर एडिशन यानी कि हर वर्ष कुछ नया जोड़ते रहते हैं। चौथे सीजन में हमने प्रोडक्शन मीट करवाकर सिनेमा के विकास में एक नया कदम बढ़ाया। चौथे व पांचवें से हमने डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट फिल्में दिखानी शुरू कीं। फेस्टिवल में फिल्म मेकरों की हिस्सेदारी की संख्या बढ़ाते गए। हमने एक वर्ष यह नियम बनाया था कि एक कैटेगरी में वही 12 से 25 वही फिल्में होंगी, जो कि ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हो चुकी हैं। उसके बाद हमने दर्शकों के रुझान का अध्ययन किया। बहुत उत्साहवर्धक रिस्पॉन्स नहीं मिला। फिर हमने अलग-अलग सेशन में संवाद किए फिर हमने ऑडिटोरियम की बजाय थिएटर में फिल्म दिखाने का फैसला किया। हर विषय पर बहस आयोजित करते हैं। अलग-अलग कैटेगरी में वर्कशॉप और सेमिनार आयोजित करने लगे।
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हमने अलग-अलग कैटेगरी के अलग-अलग अवार्ड रखे। फीचर फिल्मों में सभी तरह के अवार्ड हैं। डॉक्यूमेंट्री, लघु फिल्मों, मोबाइल फिल्मों, वेब सीरीज के साथ ही हमने ओटीटी में फिक्शन और नॉन फिक्शन कैटेगरी रखी है। अब हम लगभग 125 अवार्ड वितरित करते हैं। हर बार कुछ न कुछ नया करने व सुधार लाने की कोशिश करते हैं।
कई देश भारतीय फिल्मों के उनके देश में फिल्मांकन पर सब्सिडी दे रहे हैं। लेकिन ऐसी फिल्में असफल ही क्यों हो रही हैं?
-मैं कई लोगों के संपर्क में हूं। इसके पीछे महज एक कारण नहीं है। इसमें से कुछ फिल्में तो उनकी सब्सिडी देने की शर्तों में फंस जाती हैं। शर्तों में फंस जाने से कहानी भी उसी हिसाब से देनी होती है। वहां के जो कुछ लोग लोकल उनके एसोसिएशंस होते हैं उसके टर्म कंडीशन ऐसे होते हैं कि वह फिल्म लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। यूरोप में बहुत से देश ऐसा कर रहे हैं। अब यूरोप की नकल यूएई कर रहा है। यूएई में सिनेमा के दरवाजे पिछले 5-7 साल में खुले हैं। यूएई का फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन अभी बहुत सुविधा दे रहा है। बहुत जल्द फिल्म मेकर के लिए मुफ्त वीजा का प्रावधान शुरू करने वाला है यूएई। आपको कुछ जरूरत ही नहीं लगेगी। तभी तो दो-तीन वर्ष के अंतराल में यूएई में काफी सिनेमा बना है। अब दुबई में आपको कम से कम सौ थिएटर मिल जाएंगे। दुबई तथा यूएई अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अपने देश को पूरी दुनिया में ले जाने के लिए बहुत सब्सिडी दे रहा है। यूरोप के कई देश दे रहे हैं। लेकिन ज्यादातर सिनेमा जो सब्सिडी के लिए बनता है, वह स्क्रीन पर उतना सफल नहीं होता। जो सिनेमा बनाने के हिसाब से बनता है, सब्सिडी उसका सिर्फ एक हिस्सा होती है, वह फिल्में सफल हो जाती हैं। ऐसे सिनेमा में एक एनर्जी होती है।
जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में आगे की आपकी क्या योजनाएं हैं?
-जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की आगामी योजनाओं के लिए हमने एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट डिजाइन किया है। क्योंकि हम ‘नई दिल्ली फिल्म फेस्टिवल’ भी हम करते हैं। जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल भी करते हैं। 2026 में ग्लोबल सिनेमा का एक ऐसा आयोजन, भारतीय सिनेमा का एक ऐसा आयोजन, जो कम से कम भारत में नहीं हुआ। हम करने वाले हैं। जैसे कि हमने नेशनल टॉर्च कार्यक्रम किया था। वह छोटा हिस्सा था। लेकिन अब हम यह आयोजन दिल्ली में कर रहे हैं। उस दौरान सिनेमा को लेकर मल्टी लेवल मल्टी स्टार मल्टी पॉलिसी मल्टी मैनेजमेंट और मल्टीपल ऑडियंस डेवलपमेंट के हिसाब से बड़ काम करने जा रहे हैं, जिसकी चीज हमें धीरे-धीरे एनाउंस करेंगे। वह प्रोजेक्ट डिजाइन है। सारा टीम ड्राफ्टिंग वेबसाइट वगैरह तैयार है। उसके बाद जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का जो सिनेमैटिक काम है वह और एक नई तरीके से आप लोगों को देखने को मिलेगा। (Influence of few people in Bollywood)
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आपने वियतनाम को लेकर भी कुछ काम किया था?
-हमने जो पहले टॉर्च कैंपेन किया था, acknowledging नेशनल टॉर्च कैंपेन टू प्रमोट रीजनल सिनेमा उसका सेकंड पार्ट ‘इंटरनेशनल टॉर्च कैंपेन टू प्रमोट वर्ल्ड सिनेमा’, वह हमने वियतनाम की राजधानी में किया था। अभी हम हमारा अगला कार्यक्रम इंग्लैंड में करने जा रहे हैं। क्योंकि 2026 में हम पूरे सिनेमा को, सिनेमा बनाने वालों को एक जगह लाना चाह रहे हैं। इसे हमने ‘ग्लोबल सिनेमा कॉन्फ्रेंस’ नाम दिया है। इसमें हम कई बिंदुओं पर बातचीत करने वाले हैं।
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FAQ
प्रश्न 1: हनु रोज ने बॉलीवुड को लेकर क्या कहा?
उत्तर: हनु रोज ने कहा कि बॉलीवुड इंडस्ट्री कुछ ही लोगों के चंगुल में फंसी हुई है।
प्रश्न 2: यह बयान कहाँ दिया गया?
उत्तर: यह बयान उन्होंने जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिया।
प्रश्न 3: हनु रोज ने किसी का नाम लिया?
उत्तर: नहीं, उन्होंने किसी विशेष व्यक्ति का नाम नहीं लिया।
प्रश्न 4: इस बयान का मतलब क्या है?
उत्तर: इसका मतलब है कि बॉलीवुड में फिल्म बनाने और फैसले लेने की शक्ति कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित है।
प्रश्न 5: यह बयान क्यों महत्वपूर्ण माना जा रहा है?
उत्तर: यह बॉलीवुड इंडस्ट्री में शक्ति और निर्णय प्रक्रिया के केंद्रीकरण पर प्रकाश डालता है।
प्रश्न 6: हनु रोज का यह दृष्टिकोण इंडस्ट्री के लिए क्या संदेश देता है?
उत्तर: यह इंडस्ट्री में पारदर्शिता, विविधता और अवसरों की समानता की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
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