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बाबा बिस्मिल्लाह खाँ की सीख ‘किसी के कहने से अपने वजूद को मत खोना’ आज तक नहीं भूली...”
डॉ. सोमा घोष
2001 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित मशहूर शहनाई वादक स्व. बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को एक औपचारिक वाद्य यंत्र से भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रमुख वाद्य यंत्र बनाया। शहनाई को विश्वविख्यात बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। मूलतः शिया मुसलमान होते हुए भी वे माँ सरस्वती के भक्त थे। उन्होंने हिंदू ब्राह्मण लड़की और शास्त्रीय गायिका डॉ. सोमा घोष को अपनी दत्तक पुत्री माना था। उन्होंने अपने जीवनकाल में अमेरिका जाकर बसने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था, क्योंकि उनकी संगीत यात्रा गंगा, काशी, और बालाजी के मंदिर से गहराई से जुड़ी थी। ऐसे महान शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराँव में हुआ था, जबकि 21 अगस्त, 2006 को उनका निधन वाराणसी में हुआ। उनकी दत्तक पुत्री व शास्त्रीय गायिका डॉ. सोमा घोष पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को दिए गए वचन का निर्वाह करते हुए हर वर्ष स्व. बिस्मिल्लाह खाँ को याद करने के लिए उनकी पुण्यतिथि, 21 अगस्त को दिल्ली में एक संगीत कार्यक्रम का आयोजन करती हैं। (Dr. Soma Ghosh and Ustad Bismillah Khan relationship)
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हाल ही में डॉ. सोमा घोष ने मायापुरी से बात करते हुए स्व. बिस्मिल्लाह खाँ को लेकर ढेर सारी यादें साझा कीं...
आप भी मूलतः वाराणसी की रहने वाली हैं और मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खाँ भी वाराणसी से थे। इस वजह से आप दोनों की मुलाकात हुई थी?
हमारी पहली मुलाकात को लेकर बहुत ही अलग किस्सा है। मेरी गुरु माँ श्रीमती बागेश्वरी देवी जी का 2000 में अचानक देहांत होने पर मैंने उनकी याद में मुंबई के नेहरू सेंटर में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था, जिसमें हमने बिस्मिल्लाह खाँ जी को बुलाया था। वास्तव में मेरी गुरु माँ बागेश्वरी देवी जी विंध्याचल में रहा करती थीं, जहाँ मैं उनसे संगीत सीखने जाया करती थी। वे हमेशा मुझसे कहा करती थीं कि जब वे नहीं रहेंगी, तब भी मैं उनकी शहनाई को सुनाऊँगी। उनका शहनाई वादन प्यारा है। वे बनारस की प्योर गायिका थीं और हम लोग वही गाते हैं, क्योंकि वे गायकी ही बजाती थीं। उनका अचानक निधन भी अद्भुत था। लगभग सभी जानते हैं कि बनारस में मुख्य कलाकार को कोई पैसे नहीं देता। उनके साथ जो बजाते हैं, उन्हें थोड़ा-बहुत धन मिल जाता है। इसीलिए मेरी गुरु माँ बनारस छोड़कर विंध्याचल में साधना करने गई थीं। उनके साथ भी आर्थिक संकट बहुत था। उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली थी, क्योंकि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। दुर्भाग्य की बात है कि पहले के ज़माने में कलाकार डिग्री लेने की नहीं सोचते थे। वे तो सिर्फ़ कला की साधना में रत रहते थे। पहले के ज़माने में राजा लोग कला व कलाकार को संरक्षण देते थे। दरभंगा के दरबार में कलाकारों को संरक्षण प्राप्त था। बनारस के राजा काशी नरेश भी कलाकारों की रक्षा करते थे। उन्हें ज़मीन देना, उनका पूरा खर्च उठाना, दिल्ली दरबार में भी नवरत्न हुआ करते थे। लेकिन अब असली साधक कलाकार का संरक्षण थोड़ा कम हो गया है। असली साधक कलाकार तो अपनी संगीत की कोई नुमाइश नहीं करता। आजकल तो ग्लैमर का ज़माना है। पूरा मसला ‘जो दिखता है, वही बिकता है’ का हो गया है। लेकिन जो संगीत साधना में रत होते हैं, वे ईश्वर जैसे धर्म पथ पर रहते हैं। वे ईश्वर के सिवा कुछ नहीं देख सकते। इसी तरह संगीत के जो साधक कलाकार होते हैं, उन्हें संगीत के सिवा कुछ नहीं सूझता। तो स्वाभाविक रूप से उनके हाथ में पैसा नहीं होता। संगीत साधना में वे इस कदर डूबे रहते हैं कि नौकरी के लिए भी प्रयास नहीं करते। हमारी गुरु माँ के हाथ में पैसा नहीं था, वे नौकरी करना चाहती थीं, पर दुर्भाग्य की बात है कि उनके पास वह डिग्री नहीं थी, जो उन्हें नौकरी दिला देती। इसलिए उन्हें नौकरी नहीं मिली। आर्थिक तंगी बढ़ती गई, जिसका उन्हें ऐसा सदमा लगा कि अचानक उनका निधन हो गया। मुझे लगता है कि यह सदमा हर कलाकार का सदमा है। खैर, गुरु माँ के निधन के बाद मैंने उन्हें खास अंदाज़ में श्रद्धांजलि देने का फैसला किया। मैंने मुंबई के नेहरू सेंटर में संगीत का कार्यक्रम रखा। यह 2001 की बात है। मैंने अपने इस कार्यक्रम के लिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को निमंत्रित किया। उस वक्त तक उन्हें ‘भारत रत्न’ नहीं मिला था। यह अलग बात है कि जब वे मेरे कार्यक्रम में शिरकत करने आए, तब तक उन्हें भारत रत्न मिल गया था। मैंने अपने कार्यक्रम के लिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को 15 जनवरी 2001 को बुक किया था और 26 जनवरी 2001 को उन्हें भारत रत्न मिला। इस तरह भारत रत्न मिलने के बाद बिस्मिल्लाह खाँ ने सबसे पहले मेरे कॉन्सर्ट में ही शहनाई बजाई। मेरे म्यूज़िक कॉन्सर्ट में आने से पहले उन्हें मेरे बारे में कुछ नहीं पता था। मैं भी उनसे कभी नहीं मिली थी। जब मैं उन्हें बुला रही थी, तब कई दूसरे कलाकारों ने मुझे उन्हें न बुलाने की सलाह दी थी। एक बड़े कलाकार ने तो ऑफ़र दिया था कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की जगह पर मैं उन्हें अपने कार्यक्रम में बुलाऊँ, उसके बाद वे मुझे अपने साथ लंदन में 15 म्यूज़िकल कॉन्सर्ट के लिए ले जाएँगे। पर मैंने अपना इरादा नहीं बदला। मैंने कहा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, मुझे तो अपनी गुरु माँ को श्रद्धांजलि देनी है। मेरे इस निर्णय ने मुझे बहुत कुछ दिया। ईश्वर भी शायद मेरी परीक्षा ले रहा था। मेरे कार्यक्रम में भारत रत्न बिस्मिल्लाह खाँ जी आए। हमारे मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख व गृहमंत्री कृपाशंकर सिंह के अलावा सुनील दत्त भी उस दिन हमारे कार्यक्रम में आए और बिस्मिल्लाह खाँ जी का स्वागत-सत्कार किया। बिस्मिल्लाह खाँ जी को ‘स्टेट गेस्ट’ घोषित किया गया। कार्यक्रम सात बजे शुरू होना था, पहले मैं गा रही थी। बिस्मिल्लाह खाँ जी को हमने पौने आठ बजे का समय दिया था, पर मेरा गाना शुरू होते ही वे आ गए। उन्हें मंच के पीछे बैठाया गया। शायद मेरी गुरु भक्ति और निष्ठा काम कर रही थी। (Who is Bismillah Khan’s adopted daughter)
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तीन-चार मिनट तक मेरा गाना सुनने के बाद उन्होंने पूछा, “कौन गा रही है? यह तो पुरानी रसूलन बाई की आवाज़ है?” उस वक्त वहाँ पर उनके साथ मेरे पति व तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष जी बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि जिन्होंने आपको बुलाया है, वही गा रही हैं। तब उन्होंने कहा, “अच्छा, वह गाती भी है। अब तो मैं पहले उसी से मिलूँगा, जो गा रही है।” यह हमारे शास्त्रीय संगीत का ही कमाल है। और उस पहली मुलाकात में ही हमारे बीच पिता-पुत्री का रिश्ता बन गया था। भारत रत्न बिस्मिल्लाह खाँ से सभी डरते थे। लेकिन मेरे सामने वे एक शिशु की तरह हो गए। हमारा संगीत का कार्यक्रम बड़ा शानदार हुआ। जब मैं उन्हें विदा कर रही थी, तब उन्होंने ख़ुद मुझसे कहा, “बेटी! मैं तुम्हारे साथ बजाऊँगा।” यह आज से लगभग 24 साल पहले की बात है। तब तो मेरी उम्र काफ़ी कम थी। अब मेरी समझ में आ रहा है कि उस दिन मुझे कितना बड़ा पुरस्कार मिला था। (Ustad Bismillah Khan and Indian classical music legacy
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जब भारत रत्न बिस्मिल्लाह खाँ ने मुझसे कहा था कि वे मेरे साथ बजाएँगे, तो मेरे दिमाग़ में आया था कि यह कहने की बात है। कुछ दिन बाद ‘रात गई बात गई’ वाली बात हो जाएगी। छह माह बाद मैं कोलकाता अपनी ससुराल में थी। कोलकाता में ही एक म्यूज़िकल कार्यक्रम में बाबा आए हुए थे। मैं उनसे मिलने होटल पहुँची। पता चला कि वे कल से ही मुझे याद कर रहे थे। जब मैं बाबा के सामने पहुँची, तो बाबा ने कहा, “मैंने जो कहा था, वह तुम भूल कैसे गई? तुमने क्या सोचा था कि मैंने तुम्हारे साथ मज़ाक किया है? यह मज़ाक नहीं है... यह अल्लाह का करम है... तो मुझे करना पड़ेगा तुम्हारे लिए। कल मेरा यहाँ प्रोग्राम था। बहुत बड़ी गायिका हमारे साथ गा रही थी। पर उस वक्त मैं तुम्हें याद कर रहा था। तुम्हारे पास तो 50 साल पुरानी गायकी है, जो इस समय किसी में नहीं मिलता है।” तब मैंने रोते हुए कहा, “बाबा, यह कैसे मुमकिन होगा? आप भारत रत्न और मेरी इतनी कम उम्र है और लोग क्या कहेंगे?” उस वक्त बाबा ने कहा, “सुर किसी की बपौती नहीं है। सुर उसे ही मिलता है जो ईश्वर की इबादत समझकर साधना करता है। ईश्वर तुम्हें देना चाहते हैं। इसमें कोई हम तुमको दया-धर्म नहीं कर रहे। हम उनकी इच्छा पूरी कर रहे हैं।” (Bismillah Khan’s teaching “Never lose your identity for others”)
उसके बाद उन्होंने मुझसे बनारस में मिलने के लिए कहा, जहाँ वे हमारे साथ जुगलबंदी करना चाहते थे। और वही हुआ।
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आपको नहीं लगता यह संगीत की ताकत का असर था?
देखिए, हम तो बार-बार कह रहे हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की ताकत का कोई मुकाबला ही नहीं है। शास्त्रीय संगीत को बच्चों तक पहुँचाना है। लोग मंदिर में दान-धर्म करते हैं, मंदिर का जीर्णोद्धार करते हैं। सब कुछ हो रहा है। तो शास्त्र कला के लिए क्यों नहीं? धर्म से पहले संगीत था। ‘ओमकार...’। ओमकार रूप में संगीत तो ब्रह्मांड में सृष्टि से पहले से था। प्रलय के बाद सृष्टि उत्पन्न हुई और सृष्टि के बाद जो पहली धर्म पुस्तक आई, वह वेद था - सामवेद। वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हर चीज़ शांत हो तभी वह मिलेगा। अब आप ख़ुद देखिए... वातावरण कितना खराब हो रहा है। किस तरह से खंड, प्रलय हो रहा है। इस समय संगीत के प्रति जागरूकता की ज़रूरत है। यह सोचने का समय है। प्रकृति को देखिए... दुर्गा पूजा के वक्त बारिश मैंने तो बचपन से नहीं देखी। इस साल जो बारिश हो रही है दुर्गा पूजा में, लगातार हो रही है। इस साल कितना भयंकर प्लेन का एक्सीडेंट हुआ। उत्तराखंड देवभूमि है, लेकिन वहाँ भूस्खलन हो रहा है। वेद में लिखा है कि हमारे वातावरण को हमें शांत रखना पड़ेगा। हमारी प्रकृति की शक्ति को शांत रखना पड़ेगा। उत्तराखंड में आप देखिए, जहाँ बाढ़ आई थी, वहाँ सारे के सारे होटल हैं। इन होटलों में डेस्टिनेशन मैरिज होती हैं। लेकिन अब मैरिज में शहनाई तो बजती नहीं। जबकि शादी के अवसर पर शहनाई बजनी चाहिए, क्योंकि शहनाई वादन मंगल का प्रतीक है। संगीत के सात सुर हमारे सात मूलाधार चक्र में बसे हुए हैं। जो साधक सुर की साधना करेगा और साधना करके जब वह बजाएगा, चारों ओर ईश्वर की औरा है, ईश्वर का आशीर्वाद है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि विवाह ही सबसे बड़ा उत्सव, सबसे बड़ा संस्कार है। विवाह मात्र विवाह नहीं, बल्कि एक सृष्टि का आरंभ है। वहाँ से सृष्टि चलती है। शिव-शक्ति का मिलन है। आख़िर हम सभी उसी के प्रतिनिधि हैं। वे हमारे अंदर अपना सृष्टि धर्म निभा रहे हैं। हम इसे तो समझ ही नहीं पाए। पति-पत्नी के बीच चाहे विचारों में भिन्नता हो, पर नारी को सम्मान दिया जाना चाहिए। एक घर अगर सही हो जाए, तो सारा घर, समाज, देश सही हो जाएगा, क्योंकि माँ पहली टीचर होती है। बाबा का जो आशीर्वाद मुझे मिला, वह सिर्फ़ मेरे साथ बजाना नहीं, मुझे स्टेज पर वह सम्मान देना अपने आप में शक्ति पूजा है। आप कार्यक्रम का वीडियो देखेंगे तो पाएँगे कि वे मेरे गायन में हस्तक्षेप नहीं करते, बल्कि मेरा गायन ख़त्म होने पर शहनाई बजाते हैं। इतने महान कलाकार, भारत रत्न, और मुझे शुरू से पहले यह बोलकर बजा रहे हैं कि “डरना मत कि भारत रत्न तुम्हारे साथ है। तुम शेर की तरह गाना, हम तुम्हारे पीछे-पीछे...” (Dr. Soma Ghosh’s musical journey and devotion to her guru
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आपने बताया कि कला को आश्रय मिलना बंद हो गया था। आपको लगता है यह सारा कहीं न कहीं पैसे का महत्वपूर्ण हो जाना है?
जी... अब कला नहीं, ग्लैमर व पैसे की चमक-दमक का बोलबाला है। आप ख़ुद देखिए कि दुर्गा पूजा में भी फिल्म वालों को करोड़ों रुपये देकर बुलाया जा रहा है। शास्त्रीय गायक को कोई पूछ ही नहीं रहा। पहले शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार व सम्मान इतना था कि फिल्म हावी नहीं थी। पहले ऋत्विक घटक, बिमल रॉय, व्ही. शांताराम जैसे फिल्म निर्देशकों ने शास्त्रीय संगीत को सम्मान दिया। संगीतकार नौशाद जी को तो मैं देवता मानती हूँ। इन लोगों ने शास्त्रीय संगीत व साहित्य को आगे बढ़ाया। आज फिल्मकार साहित्य व शास्त्रीय संगीत से दूर हो गए, जिसके चलते सिनेमा का पतन हो रहा है। यश चोपड़ा जी ने शिव-हरी की सेवाएँ संगीतकार के रूप में ली थीं। रवि शंकर जी को संगीतकार के रूप में लिया। पंडित राम नारायण जी ने फिल्मों को संगीत से सँवारा। लेकिन आज शास्त्रीय संगीत से जुड़े लोगों को कहीं नहीं बुलाया जाता, इन्हें कोई याद नहीं करता। जबकि पश्चिमी देशों के लोग भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए भारत आ रहे हैं। तभी तो पंडित रवि शंकर जी को पूरे विश्व में पहचाना गया। लेकिन अब कहीं भी शास्त्रीय कलाकारों को सामने नहीं लाया जा रहा। तभी तो मजबूरन शास्त्रीय संगीत से जुड़े कलाकार फ्यूज़न में उतर गए। अब वे खड़े-खड़े सितार बजाते हैं, बांसुरी बजाते हैं। जबकि ये सारे वाद्य यंत्र बैठकर साधनारत होकर बजाए जाते रहे हैं। पर मजबूरी है, पेट भी भरना है। बड़े-बड़े उस्ताद लोग भी आजकल रॉक व पॉप संगीत पर उतर गए हैं।
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पहली बार आपने बाबा बिस्मिल्लाह खाँ के साथ जुगलबंदी कहाँ की थी? और कौन-सा गाना गाया था?
कोलकाता में किए गए वादे के अनुसार हम बाबा से मिलने बनारस में उनके घर गए। बाबा ने अपने पूरे परिवार को इकट्ठा किया। मैंने सभी को एक गाना सुनाया। फिर बाबा ने सभी से कहा, “मैंने इसे अपनी बेटी बनाया है। तुम लोग इजाज़त दे रहे हो?” सभी ने कहा, “बाबा, यह आपके साथ बैठकर गाने लायक है।” उस दिन से मैं बाबा बिस्मिल्लाह खाँ की दत्तक पुत्री बन गई। उसके बाद बनारस में ही जुगलबंदी का कार्यक्रम रखा गया। बाबा ने कहा कि मैं अपनी बेटी की तारीफ़ करने, उसकी प्रशंसा करने के लिए काली टोपी पहनकर मंच पर शहनाई बजाऊँगा, जो मैं देश स्वतंत्र होने से पहले बजाता था। “काला कोट और काली बंद टोपी पहनकर जब हम बजाएँगे, तब लोग समझेंगे कि मैं दिल से बजा रहा हूँ। यह मेरी तरफ़ से तुम्हारे लिए पुरस्कार होगा।” फिर काली टोपी पहनकर मेरे साथ फ़ोटो शूट किया गया। हमारे शो के टिकट अति महँगे दामों में बिके थे। संगीत से हमें जो कुछ मिलता है, वह हम समाज को ही वापस दे देते हैं। यह हमारे लिए व्यवसाय नहीं है। फिर दोबारा जुगलबंदी का कार्यक्रम मुंबई के नेहरू सेंटर में हुआ, जहाँ जया बच्चन जी भी टिकट खरीदकर हमें सुनने आई थीं। यह तो एक ऐतिहासिक जुगलबंदी थी। तीन घंटे के बाद भी एक भी श्रोता उठने के लिए तैयार नहीं था। तब बाबा ने सभी से कहा, “मैं शहनाई बजाता हूँ। मेरी ताकत लगती है। तो हम कुछ देर बैठेंगे। तब तक मेरी बेटी सोमा गाएगी।” कुछ देर मैंने अकेले गाया। यह और आश्चर्य की बात है। उस दिन उनका जो आशीर्वाद था, वह माँ सरस्वती की कृपा हो गई मेरे ऊपर। आप यक़ीन नहीं करेंगे, उस दिन मैंने बिहाग गाया था, जिसे सुनकर एक कमांडर, जिसे पानी के नीचे पैरालिटिक अटैक हुआ था, वह बिहाग सुनकर बिना सर्जरी के ठीक हो गया। तो जुगलबंदी में इतनी ताकत है कि कमांडर को दवा की भी ज़रूरत नहीं पड़ी।
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बिस्मिल्लाह खाँ के साथ पहली जुगलबंदी के बाद किस तरह का बदलाव महसूस किया था?
मेरी तो दुनिया ही बदल गई। ढेर सारे जुगलबंदी के ऑफ़र आने लगे। लेकिन बाबा ने कहा कि, “मेरी बेटी को मैंने दया-धर्म नहीं किया है। जुगलबंदी के लिए बीस से 25 लाख रुपये देने पड़ेंगे।” यह एक रिकॉर्ड है कि उसके बाद बाबा ने सिर्फ़ मेरे लिए ही जुगलबंदी के कार्यक्रम किए, अन्य किसी के लिए नहीं किए। उन्होंने मेरे एनजीओ ‘मधु मूर्छना’ के लिए ही जुगलबंदी की। वैसे भी उन्होंने जितनी कीमत माँगी, वह देने को कोई तैयार न था। और क्योंकि बाहर इतना पैसा कौन देता, लेकिन मेरी संस्था के लिए वे कोई माँग नहीं करते थे। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कह दिया था, “मेरी बेटी जो देगी, मेरे लिए वही काफ़ी होगा। अपनी बेटी के लिए हमेशा शहनाई बजाऊँगा।”
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आप दोनों की जुगलबंदी का संकल्प कहाँ और किस ढंग से पूरा हुआ?
बाबा की हर ख़्वाहिश पूरी हुई। बाबा ने मुझसे कहा था कि, “बेटा, मुझे संसद में शहनाई बजाना है। इंडिया गेट पर शहनाई बजाना है। भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी जी के साथ एक कॉन्सर्ट करना है।” बाबा ने बताया था कि बचपन में बाबा और पंडित भीमसेन जोशी बहुत अच्छे दोस्त थे। पर अब उन्हें एक साथ कोई नहीं गवा पाता, क्योंकि दोनों ‘भारत रत्न’ हैं। ऐसे में दोनों को एक साथ बुलाना मामूली बात नहीं थी। बाबा के साथ 12 लोगों का काफ़िला और पंडित भीमसेन जोशी के साथ छह लोग। प्लेन का टिकट, रहना, खाना-पीना, काफ़ी खर्चे... इसी के साथ बाबा का जो मूड, उसे संभालना सभी के वश की बात नहीं। मैंने बाबा से वादा किया कि उनकी सारी ख़्वाहिशें पूरी होंगी। यह ऊपर वाले की मर्ज़ी भी थी। मेरे ही एनजीओ ने बाबा की सारी ख़्वाहिशें पूरी कीं। लेकिन इसका श्रेय स्व. बालासाहेब ठाकरे जी को जाता है। उन्होंने ही सारे आयोजन किए थे। हमारा पेमेंट भी कराया था, क्योंकि वे बाबा को हृदय से बहुत मानते थे।
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संसद में बाबा के साथ जुगलबंदी का कार्यक्रम हुआ, उससे पहले की बाबा की कुछ बातें मैं शेयर करना चाहती हूँ। कहते थे कि संतों का आशीर्वाद लिया करो। हर कलाकार को संतों का आशीर्वाद लेना चाहिए। उन्हें भी बालाजी के मंदिर में भगवान शिव का तीन बार दर्शन मिला था। वे हमेशा कहते थे कि जब रियाज़ को रियाज़ समझकर करोगे, तो कुछ नहीं मिलता। जब इसे पूजा समझोगे, तभी मिलेगा। “यह सुर महाराज हैं, कितने लोगों को ईश्वर के दर्शन होते हैं? लेकिन हम भगवान के रूप में ईश्वर को नहीं, सुर को तो देख सकते हैं ना! यही ईश्वर है। इसमें ‘ई’ लगने से स्वर हो जाता है। तो वही सुर में ‘अ’ लगने से असुर हो जाता है।” जब हमारा नेहरू सेंटर में हुआ था, उससे पहले उज्जैन में रह रहे मेरे सतगुरु ने कहा था, “तुम इसमें ख़ुश हो रही हो, पर मैं ख़ुश नहीं हूँ। हम तो तुम्हें बिस्मिल्लाह खाँ के साथ संसद में देखना चाहते हैं।” उस वक्त मैंने कहा था, “बाबा, संसद में मैं कैसे जाऊँगी?” सब होगा। सिर्फ़ तुम कोशिश करो। उसके बाद मैंने कोशिश शुरू करते हुए बालासाहेब ठाकरे को फ़ोन किया। बस बात बनती चली गई। हम संसद गए। संसद में बाबा की शहनाई बजी। 2002 की बात है। मेरा गायन हुआ। पहले कार्यक्रम में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के साथ सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, सांसदों आदि को आना था। संसद में एक ऐतिहासिक कार्यक्रम होना था। लेकिन उससे कुछ दिन पहले बाबा को ‘हीट स्ट्रोक’ हो गया। अब चिंता बढ़ गई कि कार्यक्रम कैसे होगा? मैं भागकर बनारस बाबा बिस्मिल्लाह खाँ के घर पहुँची। मैंने बाबा के कान में उसी की शहनाई बजाई। चंद मिनटों में उन्हें होश आ गया। और संसद में कार्यक्रम संपन्न हुआ। लेकिन उस दिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी तेज़ बुखार के चलते नहीं आ पाए थे, पर राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी आए थे। उस कार्यक्रम को सुनकर राष्ट्रपति इस कदर अभिभूत हुए कि उन्होंने दूसरे दिन हमें व बाबा को मिलने बुलाया। मैं अकेले ही गई थी, बाबा नहीं गए थे। तब राष्ट्रपति जी ने बताया कि उनका सपना है कि मुगल गार्डन में उनके कार्यकाल के ख़त्म होने से पहले ही बिस्मिल्लाह खाँ का शहनाई वादन व मेरे गायन की जुगलबंदी का कार्यक्रम हो जाए। मुगल गार्डन में 4 मार्च 2006 को यह जुगलबंदी का कार्यक्रम संपन्न हुआ और 21 अगस्त 2006 को उनका निधन हुआ था। 4 मार्च के कार्यक्रम में अद्भुत घटना घटी थी। उनकी शहनाई नहीं बजी थी। मुझे ऐसा एहसास हुआ कि शहनाई में उनके प्राण थे और उनके प्राण जा चुके थे। उस वक्त कार्यक्रम में शायद आधा खाली शरीर था। तब उन्होंने गाकर मेरे साथ जुगलबंदी की थी। (Varanasi and the eternal bond with the shehnai)
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मैंने बाबा बिस्मिल्लाह खाँ से बहुत कुछ सीखा। 21 अगस्त को उनके निधन से दस दिन पहले मैं बनारस उनसे मिलने के लिए गई थी। बनारस में गंगा महोत्सव में मेरा कॉन्सर्ट भी था। तब बाबा ने मुझसे कहा था, “किसी के कहने से अपने वजूद को मत खोना। सबसे पहले थोड़ा ख्याल ज़रूर गाना, उसके बाद तुम्हें जो भी गाना है, तुम गाना। घबराना मत। अगर तुम्हारा गाना सुनकर 10 लोगों में से आठ लोग चले भी जाते हैं, तो घबराना मत। लोग वापस आएँगे, तुम्हारा गाना सुनने के लिए... यह मेरा आशीर्वाद है।”
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वे कहते थे कि जब किसी को कुछ कमेंट करो, तो उसे ज़रूर निभाना। मैंने हमेशा निभाया। बनारस के मणिकर्णिका घाट के ट्रस्टी ने मुझसे कहा कि चैताली नवरात्रि में नगर वधू डांस करने आती हैं। तब लोग शराब पीकर गलत भावना से उन्हें सुनने आते हैं। इसे कैसे दूर कर सकते हैं? तब मैंने उनसे वादा किया कि इस बार मैं गाऊँगी। उन्होंने कहा, “आप ब्राह्मण कन्या हो... आप क्या कह रही हो?” मैंने उनसे कहा, “भक्ति के सामने कोई ब्राह्मण वगैरह नहीं होता... भक्ति से किसी का स्तर नीचे नहीं गिरता...” जब राजा ने मंदिर का जीर्णोद्धार किया था, तब हर किसी ने यहाँ गाने से मना कर दिया था कि यह तो श्मशान है। तब नगर वधुओं ने यहाँ डांस करने आईं कि यहाँ शिव बसते हैं। और पिछले 350 वर्षों से वे नाचने के लिए आती हैं। तो यह नगर वधुएँ साक्षात शिव के रूप में हैं, माँ दुर्गा के रूप हैं। मैंने अपने ख़र्च पर आने का वादा भी किया था। अब देखिए, ईश्वर कैसे परीक्षा लेता है। मैंने यहाँ पर कमिटमेंट किया और प्लेन पकड़कर मुंबई पहुँची। तभी मेरे पास इलाहाबाद से जजों की एसोसिएशन की तरफ़ से फ़ोन आया कि जज क्लब का डेढ़ सौ साल का समारोह इलाहाबाद में है और मुझे इस कार्यक्रम में गाना है। यहाँ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी आएँगे। मैंने मना कर दिया। वे तो बहुत बड़ी रकम दे रहे थे। पर मैंने कहा कि मैं पहले ही किसी को कमिट कर चुकी हूँ। अफ़सोस की बात यह है कि आजकल लोग अपने कमिटमेंट की कीमत नहीं करते। लोग कमिट करते हैं, पर जैसे ही कहीं से उन्हें ज़्यादा पैसे मिलते हैं, वे तुरंत अपना कमिटमेंट भूलकर दूसरी जगह ज़्यादा धन के लालच में चले जाते हैं।
आपने बिस्मिल्लाह खाँ पर ‘बाबा एंड मी’ किताब लिखने की क्यों सोची?
इसलिए क्योंकि वे तो फ़कीर कलाकार थे। मैंने उनमें भगवान शिव को ही पाया है। हमारे सारे जो गुण हैं - सत्यम शिवम सुंदरम... तो वे मेरे शिव ही थे। मैंने इस किताब में अपने बचपन का ज़िक्र किया है। मेरी पूरी यात्रा है। इस किताब में मेरा घर-परिवार और बनारस घराना को लिया है। बनारस घराने के महत्व तथा बाबा बिस्मिल्लाह खाँ के साथ मेरी 2001 से 2006 तक की जो यात्रा रही है, उसका विवरण है। हमने उन्हें कैसे पाया, वह सारा वृत्तांत है।
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बिस्मिल्लाह खाँ जी की याद हमेशा ताज़ा रहे, इसके लिए आप क्या-क्या कर रही हैं?
21 अगस्त 2006 को जब बिस्मिल्लाह खाँ ने इस संसार को अलविदा कहा था, उसी दिन मेरे पास राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का फ़ोन आया था। उन्होंने कहा, “सोमा जी, बिस्मिल्लाह खाँ के जाने से एक पिलर गिर गया। आप इन्हें ज़िंदा रखिएगा।” मैंने उनसे वादा किया था कि मैं हमेशा उन्हें ज़िंदा रखूँगी। तो मैं अपनी तरफ़ से कई तरह के प्रयास कर रही हूँ। हमने उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है, जिसे तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके शुभंकर घोष ने निर्देशित किया है। यह एक अद्भुत फिल्म है, जिसमें उनकी पूरी ज़िंदगी को समेटने का प्रयास किया है। उन पर किताब ‘बाबा एंड मी’ लिखी है। हर वर्ष उनकी पुण्यतिथि पर मैं उनकी याद में दिल्ली में कार्यक्रम का आयोजन करती हूँ। अब हम बिस्मिल्लाह खाँ की याद में दूसरों को उस दिन सम्मानित भी करते हैं। मैंने पहला सम्मान पंडित किशन महाराज जी, दूसरा पंडित भारत रत्न भीमसेन जोशी जी, तीसरा विदुषी पद्मश्री प्रभा अत्रे जी, चौथा पद्म विभूषण पंडित जसराज जी, और इस वर्ष पाँचवाँ सम्मान पद्म विभूषण उस्ताद अफज़ल अली खान और पद्मश्री सुरेश तलवलकर जी को दिया। क्योंकि हम बिस्मिल्लाह खाँ जी को याद रखना चाहते हैं। उन्हें याद रखने से हमारे संगीत की विरासत बचेगी।
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आप हर साल बिस्मिल्लाह खाँ की याद में उनकी पुण्यतिथि पर कार्यक्रम करती हैं... तो सिर्फ़ उन्हें याद करने के लिए?
हमारा मकसद सिर्फ़ इतना ही नहीं होता। इस बार हमने दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में सभी शहनाई वादकों या उनके परिवार के दो सदस्यों को बुलाया था। देखिए, कुछ शहनाई वादकों के परिवार के सदस्य प्रतिष्ठित हैं। कुछ के परिवार के सदस्य व्यापार कर रहे हैं। लेकिन कुछ तकलीफ़ से गुज़र रहे हैं। उनके पास तो चिकित्सा कराने का भी पैसा नहीं है। कईयों की हालत बहुत बदतर है। मेरा धर्म इंसानियत है। मैं जाति-पाँति आदि को नहीं मानती। कोई भी कलाकार किसी भी जाति का हो और वह एक इंसान अच्छा है, उसमें अगर इंसानियत है, तो उसकी मदद करना हमारा धर्म है। मैं कभी पीछे नहीं हटती हूँ। हाल ही में मेरा पटना में म्यूज़िक का कार्यक्रम था, तो वहाँ पर भी मैं तीन शहनाई वादकों को लेकर गई थी। मैं तो लुप्त हो रहे वाद्य यंत्रों को भी बचाने की पहल कर रही हूँ।
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FAQ
प्रश्न 1. डॉ. सोमा घोष कौन हैं?
डॉ. सोमा घोष प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय गायिका हैं और स्वर्गीय श्रीमती बागेश्वरी देवी की शिष्या रही हैं। उन्हें भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की दत्तक पुत्री के रूप में भी जाना जाता है।
प्रश्न 2. डॉ. सोमा घोष उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की दत्तक पुत्री कैसे बनीं?
साल 2001 में अपनी गुरु माँ की स्मृति में आयोजित संगीत कार्यक्रम में जब उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को आमंत्रित किया, तो उसी कार्यक्रम के बाद दोनों के बीच गहरा आत्मीय संबंध बना। उसी दिन से उस्ताद खाँ ने उन्हें अपनी दत्तक पुत्री के रूप में स्वीकार किया।
प्रश्न 3. उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने डॉ. सोमा घोष को क्या सीख दी थी?
उन्होंने कहा था — “किसी के कहने से अपने वजूद को मत खोना।” यह बात आज भी डॉ. सोमा घोष के जीवन और संगीत का आधार बनी हुई है।
प्रश्न 4. डॉ. सोमा घोष उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की याद में क्या करती हैं?
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को दिए वचन के अनुसार, वे हर साल 21 अगस्त को दिल्ली में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की पुण्यतिथि पर एक विशेष संगीत समारोह का आयोजन करती हैं।
प्रश्न 5. उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का भारतीय संगीत में क्या योगदान है?
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को मंदिरों और शादियों के पारंपरिक वाद्य यंत्र से भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बना दिया और इसे विश्व प्रसिद्ध किया।
प्रश्न 6. उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म और निधन कब हुआ था?
उनका जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमराँव में हुआ था और 21 अगस्त 2006 को वाराणसी में उनका निधन हुआ।
प्रश्न 7. डॉ. सोमा घोष के संगीत में अध्यात्म का क्या महत्व है?
डॉ. सोमा घोष का संगीत भक्ति और साधना से ओतप्रोत है। वे मानती हैं कि सच्चा संगीत ईश्वर की साधना है — यह विचार उन्हें अपनी गुरु माँ बागेश्वरी देवी और उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ से मिला।
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