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Mayapuri tribute to Manoj Kumar: मनोज कुमार को मायापुरी परिवार की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित

Mayapuri tribute to Manoj Kumar: 87 वर्ष की उम्र में भारत कुमार, यानी हमारे भारतीय सिनेमा के दिग्गज अभिनेता, निर्माता, निर्देशक मनोज के निधन से हिंदी सिनेमा के एक अध्याय का अंत हो गया...

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By Sulena Majumdar Arora
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Mayapuri family pays heartfelt tribute to Manoj Kumar
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Mayapuri tribute to Manoj Kumar: 87 वर्ष की उम्र में भारत कुमार, यानी हमारे भारतीय सिनेमा के दिग्गज अभिनेता, निर्माता, निर्देशक मनोज के निधन से हिंदी सिनेमा के एक अध्याय का अंत हो गया. ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से लेकर नब्बे के दशक तक, मनोज कुमार ने हिंदी सिनेमा जगत में अपना वो साम्राज्य स्थापित कर लिया था, जो आने वाली कई पीढ़ियों तक उनकी यादों और उपलब्धियों को सहेजती रहेगी. 24 जुलाई, 1937 को एबटाबाद (तब ब्रिटिश भारत) में जन्मे हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी के रूप में मनोज कुमार संघर्षों के पायदान पर चढ़ने वाले एक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे. उनका जीवन एक छोटे से शहर से शुरू हुआ जो बाद में विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया. एक बच्चे के रूप में, मनोज ने विभाजन के दौरान अपने परिवार के साथ दिल्ली जाने की विभीषिका और कई अपनों को इसी जुनूनी भीड़ में खो जाते और मर जाते देखा. पाकिस्तान से भारत भागकार आने वाले शरणार्थियों से भरे ट्रेन में अपने परिवार से बिछड़ कर ट्रेन से दिल्ली उतरने वाले मनोज कुमार ने उस वक्त सोचा भी ना होगा कि उसकी जिंदगी यहीं दिल्ली की सड़कों पर ख़त्म हो जाएगी या वो जिंदा रह जाएगा. उस भयानक उथल-पुथल ने मनोज कुमार के जीवन वो आकार दिया जहां से उनके मन मस्तिष्क में देशभक्ति का जन्म हुआ. उन्होने कहा था, "मुझे आज भी वो भागदौड़, वो अनिश्चितता याद है," उन्होंने उन अशांत पलों को याद करते हुए कहा था, "अगर मैंने वो त्रासदी ना झेली होती तो मैं मनोज कुमार ना होता."

Manoj Kumar article by Chaitanya Padukone

दिल्ली में कुछ दिन सरकारी शरणर्थियों के कैंप में रहते हुए आखिर परिवार से उनका मिलन हो गया. वे सभी दिल्ली में बस गए जहाँ उन्होंने हिंदू कॉलेज में अपनी शिक्षा पूरी की.

फ़िल्म 'शबनम'

ग्यारह वर्ष की उम्र में, पढ़ाई के दौरान मनोज को फिल्में देखने का शौक लग गया. वे दिलीप कुमार के फैन बन गए. एक दिन वे दिलीप कुमार की फ़िल्म 'शबनम' देखने गए. उन्हे उसमें दिलीप कुमार के किरदार का नाम 'मनोज' इतना पसंद आया कि उन्होने अपना ऑरिजिनल नाम हरिकृष्ण को छोड़कर मनोज रख लिया. दिल्ली से बैचळर्स डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्होने मुंबई आकर फिल्मों में स्ट्रगल करना शुरू कर दिया. मुंबई में रहने खाने के लिए पैसों की जुगाड़ करना भारी पड़ रहा था तो उन्होने फिल्म लेखकों के लिए घोस्ट राइटिंग शुरू कर दी और हर सीन लिखने के लिए उन्हे ग्यारह रुपए मिलते थे. 3 फुट 1 इंच लंबे मनोज कुमार इतने हैंडसम थे कि आखिर वे बॉलीवुड के निर्माताओं की नजरों में आ ही गए है और उन्हें बतौर हीरो फिल्मों में काम मिलने लगा. बतौर एक्टर उनका सफर फ़िल्म 'फैशन ब्रांड' (1957) से शुरू हुआ, जो उनकी पहली फिल्म थी जिसने मुश्किल से ही धूम मचाई. लेकिन मनोज अडिग रहे. "असफलताएं बस सीढ़ी के पत्थर हैं," वे कहा करते थे, और अपने शब्दों के अनुसार, वे उन सीढ़ियों पर चढ़ते रहे.

manoj kumar film faishion

उनकी पहली लीडिंग भूमिका 'कांच की गुड़िया' (1961) में आई, उसके बाद 'हरियाली और रास्ता' (1962) और 'वो कौन थी?' (1964) जैसी हिट फ़िल्में आईं. बाद वाली फ़िल्म उनके करियर में मील का पत्थर साबित हुई, न सिर्फ़ अपने मनोरंजक रहस्यों के लिए बल्कि "लग जा गले" जैसे अपने अविस्मरणीय गीतों के लिए भी. फिर भी, मनोज सिर्फ़ एक अभिनेता बनकर संतुष्ट नहीं थे. वे ऐसी कहानियाँ बताना चाहते थे जो मायने रखती हों. उनके निर्देशन की पहली फ़िल्म 'उपकार' (1967) प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ बातचीत से पैदा हुई. मनोज कुमार का उस ज़माने में नेताओं से काफी पहचान हो चुकी थी. 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद एक दिन मनोज कुमार की मुलाकात लाल बहादुर शास्त्री के साथ हुई जिन्होंने उन्हें अपना प्रसिध्द नारा 'जय जवान जय किसान' के ऊपर एक किसान-सैनिक के जीवन को चित्रित करते हुए फ़िल्म बनाने को प्रेरित किया. इस तरह मनोज कुमार ने फ़िल्म 'उपकार' का निर्माण किया और उस फ़िल्म की सफलता ने उन्हें भारतीय सिनेमा में देशभक्ति के चेहरे "भारत कुमार" के रूप में प्रतिष्ठित किया.

'कांच की गुड़िया' (1961)

हरियाली और रास्ता(1962)

manoj kumar film  vo kaun thee, gumanaam, himaalay ki god

मनोज कुमार की फ़िल्में मनोरंजन से कहीं बढ़कर होती थीं. वे समाज के संघर्षों और आकांक्षाओं को दर्शाती हुई आईना थीं. फ़िल्म 'शहीद' (1965), 'रोटी कपड़ा और मकान' (1974), और 'क्रांति' (1981) जैसी फ़िल्मों ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया. वे अक्सर कहते थे, "मैं चाहता था कि मेरी फ़िल्में अर्थपूर्ण हों, विचारोत्तेजक हो, हृदय को झकझोरने और आत्मा को जगाने वाली हों." निस्वार्थ, आदर्श नायकों के उनके चित्रण ने उन्हें कई पुरस्कार दिलाए, जिनमें सात फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, 1992 में पद्म श्री और 2015 में प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार शामिल हैं.

manoj kumar film upkar shaheed

manoj kumar ki film roti kapda aur makaan

kranti

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वरिष्ठ अभिनेता मनोज कुमार के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी फिल्में "राष्ट्रीय गौरव की भावना जगाती हैं और पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी."

कैमरे और देशभक्ति के जोश के पीछे मनोज कुमार एक पारिवारिक व्यक्ति थे जो अपनी जड़ों से प्यार करते थे. उन्होंने शशि गोस्वामी से शादी की और उनके दो बेटे विशाल और कुणाल हुए . एक बार जब शशि को फ़िल्म में काम करने का ऑफर आया था और शशि ने मनोज से पूछा था कि क्या वो फ़िल्म में काम कर सकती है? तब मनोज कुमार ने जवाब दिया था तब मनोज ने जवाब दिया था कि उन दोनों में से किसी एक को घर से निकल कर काम करना होगा. दोनों एक साथ घर से निकल कर काम नहीं कर सकते. तब शशि ने कदम पीछे हटा लिए. अपनी प्रसिद्धि के बावजूद, मनोज जमीन से जुड़े रहे. उनकी सादगी, अशोक कुमार और कामिनी कौशल जैसे अभिनेताओं के प्रति उनके प्यार में झलकती थी.

manoj kumar family

मनोज के उत्तरार्ध के वर्षों में उन्होंने 'क्लर्क' (1989) जैसी फिल्मों के बाद लाइमलाइट से दूरी बना ली, जो उनकी पिछली सफलताओं को दोहराने में विफल रही. फिर भी, उनकी विरासत बेदाग रही. बहुतों को नहीं पता कि वह बॉलीवुड में पाकिस्तानी अभिनेताओं को कास्ट करने वाले पहले लोगों में से थे. यह सीमाओं को पार करने वाली कला में उनके विश्वास का प्रमाण है.

manoj kumar  'क्लर्क' (1989)

जैसा कि आप आज मनोज कुमार को याद करते हैं, उन्हें केवल एक अभिनेता या निर्देशक के रूप में नहीं बल्कि एक कहानीकार के रूप में सोचें जो भारत की आत्मा में विश्वास बनकर समाए हुए हैं. उन्होंने एक बार कहा था, "सिनेमा केवल ग्लैमर, कहानी और नाच गाना नहीं है, यह दिलों को छूने, देशवासियों को कुछ समझाने, कुछ सिखाने की बात है." और मनोज कुमार ने सिर्फ भारतवासियों का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के दिलों को छुआ - हर फ्रेम, हर संवाद, हर गाने के माध्यम से.

manoj kumar dada saheb phalke award

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manoj kumar award

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मैं आपको मनोज कुमार के बारे में थोड़ा और बताना चाहती हूँ, जो आपने स्क्रीन पर नहीं देखा, तिरंगा लहराते नायक के पीछे का आदमी. आप जानते हैं, उन्होंने एक बार एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था, “मैं कभी भी सिर्फ़ एक अभिनेता नहीं बनना चाहता था. मैं आम आदमी का आईना बनना चाहता था.” यही कारण है कि अपनी प्रसिद्धि के चरम पर भी, वह मुंबई की लोकल ट्रेनों में चढ़ते, दफ़्तर जाने वालों के साथ बैठते और उनकी कहानियाँ सुनते. “ अगर मैं ऐसा नहीं करता तो मैं कैसे जान पाता कि 'रोटी, कपड़ा और मकान' का असली मतलब क्या है?” वह पूछते.

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क्या आप जानते हैं कि अपनी शुरुआती फ्लॉप फ़िल्मों के बाद उन्होंने लगभग अभिनय छोड़ दिया था? उनका संघर्ष वास्तविक था. वे मरीन ड्राइव की बेंचों पर सोते थे, वड़ा पाव खाकर गुज़ारा करते थे, सोचते थे कि क्या बॉम्बे कभी उन्हें स्वीकार करेगा. लेकिन फिर उन्हें अपने पिता के शब्द याद आते थे, उन्होने कहा था “गोस्वामी लोग कभी हार नहीं मानते.” इसलिए जब मनोज को काम ना पाने की थकान और भूख हताश करने लगती तब वह अपने कुर्ते की धूल झाड़ते, माथे पर अपना ट्रेडमार्क तिलक ठीक करते और फिर एक और ऑडिशन के लिए निकल पड़ते.

Manoj Kumar article by Chaitanya Padukone

यहाँ एक दिलचस्प बात और है, मनोज, कुमार पूर्णता के लिए हमेशा तैयार रहते थे. 'उपकार' के दौरान, उन्होंने एक्स्ट्रा कलाकार के तौर पर, धोती पहने, मेकअप किए आर्टिस्ट नहीं, बल्कि असली किसानों को रखने पर जोर दिया. वे कहते थे “मुझे अभिनेता नहीं चाहिए, मुझे ऐसे लोग लाओ जिनके हाथ और चेहरे धूप से झुलसे हुए हों” वे चिल्लाते थे. जब क्रू ने देरी की शिकायत की, तो वे झल्लाकर कहते, “तुम्हें लगता है कि भारत की आज़ादी के बाद एक भी किसान नहीं है?” और हाँ , मनोज कुमार का सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत बढ़िया था. 'रोटी कपड़ा और मकान' के दौरान, जीनत अमान एक बार अपनी लाइनें भूल गईं. उसे डांटने के बजाय, वे फुसफुसाए, “चिंता मत करो, .आजकल देश के युवा भी भ्रमित हैं!” पूरा सेट ठहाके लगाकर हंस पड़े थे.

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परिवार उनका सहारा था. शशि, उनकी पत्नी, उनकी स्क्रिप्ट सलाहकार, उनकी आलोचक, उनकी चट्टान थीं. “शशि ही वो वजह है कि मैं घमंडी और मूर्ख नहीं बना,” वे हंसते थे. उनके बेटे? विशाल एक बार अभिनेता बनना चाहते थे, लेकिन मनोज ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी. “यह इंडस्ट्री तुम्हें चबा जाएगी. डॉक्टर बनो- बिना कैमरे की निगरानी के लोगों की सेवा करो.” यह अलग बात है कि विशाल और कुणाल दोनों ने फिल्मों में अपने किस्मत आजमाए और अलग भी हो गए.

अब, यहाँ एक रहस्य है जो शायद Google भी आपको न बताए, मनोज कुमार का एक आदत नुमा अनुष्ठान था. हर शूटिंग से पहले, वे सिद्धिविनायक मंदिर जाते थे, सफलता के लिए प्रार्थना करने के लिए नहीं, बल्कि यह माँगने के लिए कि, “भगवान, मुझे सच्चाई को विकृत न करने दें.”

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उनकी देशभक्ति सिर्फ़ फ़िल्मों तक ही सीमित नहीं थी. 1965 के युद्ध के दौरान, उन्होंने गुप्त रूप से अपना आधा वेतन सेना कल्याण कोष में दान कर दिया था. “अगर आप देशभक्त की तरह नहीं जीते तो देशभक्त की भूमिका निभाने का क्या मतलब है?”

और यह जान लें- उन्हें “लीजेंड” कहलाना बिल्कुल पसंद नहीं था. “लीजेंड किताबों में मरे हुए लोग होते हैं,” वे कहते थे. “मुझे छात्र कहो. मैं अभी भी सीख रहा हूँ.”

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तो आज, जब मुंबई में बादल छाए हुए अपने आंसुओं को दबाए बैठे हैं तो कोकिलाबेन अस्पताल के बाहर चुपचाप बॉलीवुड के तमाम उनके चाहने वाले आंसू बहा रहे हैं. पिछले दो महीनों से वे बेहद बीमार और बहुत सारी शारीरिक तकलीफों से जूझ रहें थे. अब वे तकलीफ मुक्त हो गयें. लेकिन कल्पना करें कि वे कहीं मुस्कुरा रहे हैं, कोई पुरानी स्क्रिप्ट पलट रहे हैं और फुसफुसा रहे हैं, “कट! प्रिंट करो. बस हो गया.” क्योंकि मनोज कुमार के लिए, जीवन पुरस्कार या प्रसिद्धि नहीं था. यह उस एक बेहतरीन टेक के इंतज़ार का था, जिसमें किसान का पसीना असली लग रहा था, सैनिक के आंसू सच्चे लग रहे थे और हर फ्रेम में देश की धड़कन गूंज रही थी.

क्या आप मनोज कुमार के बारे में और भी कुछ जानना चाहते हैं? चारों ओर देखिए. उनकी विरासत सिर्फ, रूपहले पर्दों पर, रीलों या डीवीडी में नहीं है. यह ऑटो ड्राइवर में है जो "मेरे देश की धरती" गुनगुनाता है, कॉलेज के लड़के में है जो कहता है "हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है." यह मनोज कुमार हैं - हमेशा जीवित, हमेशा हमें सिखाते हुए कि बिना छाती ठोकें देश से कैसे प्यार किया जाए, बिना चीखें चिल्लाए कहानियाँ कैसे सुनाई जाएँ.

"एंड क्रेडिट? No नहीं," वे शायद कहेंगे. "मेरी कहानी एक अंतहीन लूप है. भारत की भावना की तरह. देखते रहिए."

मनोज कुमार का जीवन वास्तव में एक महाकाव्य की तरह है - विभाजन की आग से बचने वाले उस विस्मित आंखों वाले दस साल के लड़के से लेकर 70 मिमी स्क्रीन पर देशभक्ति को परिभाषित करने वाले व्यक्ति बनने तक. यदि आप कभी 'उपकार' को फिर से देखें, तो ध्यान दें कि उस प्रसिध्द दृश्य में खेत जोतते समय उनके हाथ कैसे कांप रहे थे. वह अभिनय नहीं था, वह हरिकृष्ण गोस्वामी थे जो दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने पिता के संघर्षों को याद कर रहे थे और भावनाओं से भरे हुए काँप रहे थे.

Manoj Kumar article by Chaitanya Padukone

उनके सफ़र की खूबसूरती? उन्होंने कभी भी एबटाबाद के उस लड़के की तरह रहना बंद नहीं किया. यहां तक कि 'क्रांति' जैसी बड़ी फिल्मों का निर्देशन करते समय भी, वे स्पॉट बॉय के साथ लंच करने पर जोर देते थे, वे कहते थे, "यह हेल्पर, स्पॉट बॉय हमारी फिल्मों के असली सितारे हैं, जो सेट को जीवंत रखते हैं."

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क्या आप जो उनके चाहने वाले हैं, उनके इंसानियत की लिगेसी को आगे ले जाना चाहते हैं? तो वही करें जो वे करते थे - आज किसी अजनबी की मदद करें, बिना किसी को बताए. यही असली भारत कुमार की विरासत है, मौन सेवा, हृदय से देशभक्ति.

उनकी कहानी को जीवित रखने के लिए उनके चाहने वालों का शुक्रिया. अब किसी का दिन बेहतर बनाते हुए "मेरे देश की धरती" गुनगुनाएँ. यही वह दोहराव है जो वे चाहते थे, चाहते हैं और चाहते रहेंगे.

Manoj Kumar article by Chaitanya Padukone

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