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महान फिल्म निर्माता और अभिनेता गुरु दत्त एक ऐसा नाम है जो अपने जन्म के एक सदी बाद भी अपनी हर एक फ़िल्म से दर्शकों के दिलों को छूता है. उनकी फिल्में, खासकर प्यासा, आज भी अपनी गंभीर और गहरी विचार उत्तेजना के साथ दर्शकों से मुखातिब होती हैं. उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी फिल्में यह साबित करता है कि कला कैसे जीवित रहती है और किस तरह लोगों के जीवन को इस तरीके से छूती है जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. वैसे तो उन्होने कई कल्ट और इतिहास रचने वाली फिल्में बनाई हैं लेकिन प्यासा को अक्सर उनके सबसे भावपूर्ण काम के रूप में देखा जाता है. यह फिल्म सिर्फ स्क्रीन पर एक चलचित्र नहीं थी, बल्कि यह गुरु दत्त के अपने जीवन का प्रतिबिंब था.
पर्दे के पीछे, वे भावनाओं के तूफान से गुजर रहे थे, अस्वीकृति, अकेलापन और एक हाड़ मांस के इंसान के जज्बातों से लबरेज़ कहानी बनाने की अंतहीन इच्छा के साथ. फिल्म उनके लिए वह सब कुछ कहने का एक तरीका बन गई जो वे महसूस करते थे. ऐसा लग रहा था जैसे वे अपनी आत्मा को दुनिया के सामने प्रकट कर रहे हों. प्यासा की कहानी गुरु दत्त के बॉम्बे में बिताए शुरुआती दिनों से प्रेरित थी, जहाँ उन्हें भयंकर संघर्षों का सामना करना पड़ा. उनके पिता भी एक लेखक का दिल रखते थे , लेकिन वे केवल क्लर्क के रूप में काम करते रह गए. नन्हे गुरुदत्त ने हमेशा अपने पिता को अपनी इच्छाओं को दमन करते देखा. पिता के मन में रचनात्मकता की यह चाहत और अधूरे सपनों की निराशा ने गुरु दत्त के बचपन को आकार दिया. उनकी बहन ललिता लाजमी के अनुसार फ़िल्म प्यासा कि थीम आंशिक रूप से उनके पिता की हताशा और उनकी अपनी कठिनाइयों से प्रेरित थी. अर्थात गुरु दत्त को यह भावनात्मक स्वभाव विरासत में मिला था, जिसने उन्हें एक संवेदनशील और प्रखर बुद्धिमान व्यक्ति बनाया.
उन दिनों भारत को अभी-अभी आज़ादी मिली थी. देश अपने इस विभाजन की त्रासदी से टूट चुका था. गुरु दत्त और उनका परिवार एक छोटे से किराए के फ़्लैट में रहते थे और अपना गुज़ारा चलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. जब गुरु दत्त पहली बार 1940 के दशक के अंत में बॉम्बे आए थे , तब उनकी उम्र सिर्फ़ 22 साल थी. रोजी रोटी की जुगाड़ की तलाश में हर जगह किस्मत आजमा रहे थे. इसी सिलसिले में कई दरवाज़े खटखटाए, लेकिन उन्हें लगातार अस्वीकृति का सामना करना पड़ा. आखिर फ़िल्म इंडस्ट्री में कोरियोग्राफर और निर्देशक के हेल्पर के तौर पर उन्हे काम मिल गया. लेकिन इस रूप में उन्हे सफलता मिलना मुश्किल था. अपने परिवार की चुनौतियों और उस भीषण कठिन समय के दौरान, उन्होंने एक कलाकार के दर्द और हताशा के बारे में, 'कश्मकश' नामक एक कहानी भी लिखी. यह कहानी उनकी बहुत ही निजी कृति थी, जिसमें उनकी अपनी निराशा की भावनाएँ भी भरी हुई थीं, और तब उन्होंने खुद से वादा किया कि वे एक दिन इस पर फ़िल्म जरूर बनाएँगे.
सालों बाद, वह कहानी प्यासा की ब्लूप्रिंट बन गई. 1956 तक गुरु दत्त एक प्रसिद्ध फिल्म निर्माता बन चुके थे. उन्होंने बाजी, आर-पार और मिस्टर एंड मिसेज 55 जैसी सफल फिल्में बनाई थीं. सफलता ने उन्हें प्रसिद्धि, पाली हिल में एक सुंदर बंगला, एक प्रतिभाशाली पत्नी, गायिका गीता रॉय के साथ एक संपूर्ण परिवार दिलाया. तीन खूबसूरत बच्चे हुए तरुण, अरुण और नीना.
लेकिन अंदर ही अंदर गुरु दत्त को गंभीर, सार्थक फिल्में बनाने की गहरी इच्छा महसूस होती थी.
'प्यासा' उनकी वास्तविक जीवन में देखी कहानी थी जो वह वास्तव में बताना चाहते थे. यह एक ऐसी फिल्म थी जो अदम्य इच्छाओं , अधूरे सपनों और सत्य की खोज को खंगालती थी. गुरु दत्त प्यासा में खुद अभिनय नहीं करना चाहते थे. उन्होंने दिलीप कुमार को कास्ट करने का सपना देखा, क्योंकि दिलीप कुमार अपने समर्पण के लिए जाने जाते हैं. जब गुरु दत्त दिलीप कुमार से मिले, तो उन्होंने उन्हें मुख्य भूमिका निभाने के लिए कहा. पहले दिलीप कुमार राजी नहीं हुए क्योकि वे ट्रेजेडी फिल्में करते करते खुद उदासी की दुनिया में डूबने लगे थे और डॉक्टर ने उन्हे हल्की फुल्की फिल्में करने को कहा था. आखिर गुरुदत्त के जोर देने पर वे सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गए परंतु उन्होंने ऊंची कीमत तय की. लेकिन फिर वे पहले दिन शूटिंग के लिए नहीं आए. गुरु दत्त ने और इंतजार न करते हुए खुद ही आगे बढ़ने का फैसला किया. उन्होंने नायक विजय की भूमिका निभाई, जो सपनों और दर्द की अपनी दुनिया में खोया हुआ कवि है.
उनके शानदार अभिनय ने उस भूमिका में किसी और की कल्पना करना मुश्किल कर दिया. फ़िल्म की नायिका कलाकार को कास्ट करना भी एक चुनौती थी. कई अभिनेत्रियों पर विचार किया गया, लेकिन अंत में वहीदा रहमान, जो उस समय अपनी शुरुआत कर रही थीं, को गुलाबो नामक वेश्या की भूमिका के लिए चुना गया. गुरु दत्त ने वहीदा की क्षमता देखी और उन्हें विश्वास था कि वे इस भूमिका में बहुत कुछ ला सकती हैं. उनकी टीम की ओर से कुछ शुरुआती संदेहों के बावजूद, वहीदा के आत्मविश्वास ने उन्हें सही साबित कर दिया. एस डी बर्मन के संगीत बद्ध और साहिर लुधियानवी द्वारा लिखे फ़िल्म के सारे गाने आज भी कालजेयी मानी जाती है, जैसे, आज सजन मोहे अंग लगालो जन्म सफल हो जाए, जाने क्या तूने कही, जाने वो कैसे लोग थे जिनके, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, हम आपकी आंखों में, सर जो तेरा चकराये,, जिन्हे नाज़ है हिन्द पर कहाँ है, तंग आ चुके हैं कश्म कशे जिंदगी से हम.
जैसे-जैसे यह फिल्म आकार लेती गई, गुरु दत्त के निजी जीवन में धीरे धीरे उथल-पुथल मचने लगी. गीता रॉय के साथ उनके रिश्ते में तनाव आने लगा. खबरों के मुताबिक वहीदा के साथ गुरुदत्त की गहरी होती दोस्ती के कारण गीता को लगा कि उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है और उनकी सराहना नहीं की जा रही है, खासकर तब, जब गुरु दत्त खुद ने गीता से कहा था कि वो किसी बाहर की फ़िल्म के लिए ना गाए और सिर्फ उनकी फिल्मों में गाएं और अपने परिवार पर ध्यान दें. वहीदा के साथ उनकी नज़दीकियों की अफ़वाहें बढ़ती गईं, जिससे तनाव और बढ़ गया. इस बीच, गुरु दत्त अपने आंतरिक संघर्षों से गुज़र रहे थे. वे प्रत्येक दृश्य में पूर्णता चाहते थे और बार-बार सीन शूट करते थे, कभी-कभी सौ से ज़्यादा बार. हर शॉट को सही से शूट करने के उनके जुनून ने उनके मन और दिमाग पर भारी असर डाला. उन्होंने ज़्यादा शराब पीना शुरू कर दिया, नींद की गोलियाँ लेनी शुरू कर दीं और ज़्यादा एकांतप्रिय हो गए. पत्नी से अलग होकर वे अकेले रहने लगे.
10 ऑक्टोबर 1964 को वे अपने पेडर रोड फ्लैट पर निर्जीव बिस्तर पर पाए गए. कुछ खबरों के मुताबिक यह सुसाइड केस था कुछ खबरों के मुताबिक यह गल्ती से नींद की गोलियों के ओवरडॊज़ के कारण हुआ था. उनके परिवार के अनुसार यह सुसाइड नहीं था क्योकि उन्होने अगले दिन राज कपूर और माला सिन्हा के साथ मिलने का अप्पोइंटमेंट रखा था अपनी फ़िल्म 'बहारें फिर भी आएँगी' के लिए. वे दो और फिल्में भी बनाने वाले थे, साधना के साथ फ़िल्म 'पिकनिक' और के आसिफ के साथ 'लव and गॉड'. दरअसल उन्हे नींद ना आने की बीमारी थी. पहले उन्होने रोज़ से ज्यादा शराब पी होगी और फिर नींद की गोली ली होगी. यह एक भयानक कॉम्बिनेशन है. पिकनिक अधूरी रह गई और लव एंड गॉड बीस साल बाद एक अलग रूप से बनाई गई, संजीव कुमार के साथ. 'बहारें फिर भी आएंगी ' में गुरु दत्त खुद हीरो की भूमिका निभा रहे थे, कुछ रील्स शूट भी हो गई थी. गुरुदत्त के निधन के दो साल बाद, निर्देशक शहीद लतीफ ने गुरु दत्त की जगह धर्मेंद्र को लेकर फ़िल्म पूरी की.
उनके शांत व्यक्तित्व के पीछे एक ऐसा व्यक्ति था जो अपने काम में दिल से लगा हुआ था, जो अपने बचपन, संगीत के प्रति अपने प्यार और अपने दर्द से प्रेरणा लेता था. प्रकाश और छाया का उनका उपयोग, विशेष रूप से क्लोज-अप शॉट्स, उनकी फिल्मों को दृष्टिगत रूप से अन्य निर्देशकों से अलग और विशेष बनाते थे. उनका मानना था कि आंखें शब्दों से कहीं अधिक व्यक्त कर सकती हैं, और मोटे चश्मे के पीछे उनकी अपनी आंखें, ख्वाविश और उदासी की गहरी भावनाओं को व्यक्त करती थीं.
प्यासा उनकी आत्मा से बनी एक फिल्म थी. इस फ़िल्म ने समाज के पैसे और सफलता के प्रति जुनून पर सवाल उठाया और कला और सच्चाई का जश्न मनाया. फिल्म के सशक्त संदेश और काव्यात्मक सुंदरता ने इसे एक कालातीत क्लासिक बना दिया है, जिसे दुनिया भर में मान्यता मिली है. आज भी प्यासा अनगिनत फिल्म निर्माताओं और दर्शकों को प्रेरित करती है, जो हमें गुरु दत्त की दुर्लभ प्रतिभा और दिल को छू लेने वाली ईमानदार भावना की याद दिलाती है.
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