1955 की क्लासिक फ़िल्म 'Devdas', जिसकी कहानी और इतिहास आज भी जवां है

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित एक कालातीत  बंगाली उपन्यास 'देवदास' , भारतीय साहित्य और सिनेमा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. लेकिन क्या आप जानते हैं...

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित एक कालातीत  बंगाली उपन्यास 'देवदास' , भारतीय साहित्य और सिनेमा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस अद्भुत अर्ध-आत्मकथात्मक कहानी का इतिहास क्या है? नहीं न? तो चलिए मेरे साथ, उस काल खंड में जहां कहानियां लिखी नहीं जाती थी, वो पुष्प माला की तरह पिरोई जाती थी, बुनी जाती थी, रची जाती थी और सींची जाती थी.

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 'देवदास' नाम से  सर्वप्रथम 1901 में एक उपन्यास लिखा था लेकिन पैसों की तंगी के कारण वो उसे पब्लिश नहीं कर पाएं. आखिर शुरुआती अड़चन के बाद 1917 में वो प्रकाशित हुआ. 'देवदास'  के प्रकाशित होते ही साहित्यिक महकमें में हलचल मच गई और इस उपन्यास ने उस समय से लेकर आज तक के पाठकों और फिल्म निर्माताओं के दिलों पर कब्जा कर रखा है. हालाँकि शरत बाबू ने उसके बाद 'निश्कृति,' 'परिणीता' और 'श्रीकांत' सहित कई उल्लेखनीय रचनाएँ लिखीं, लेकिन यह देवदास ही है जो उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में सामने आई है.

उड़ते उड़ते जब इस उपन्यास का मर्म सिनेमा जगत तक पहुंचा तो फ़िल्म इंडस्ट्री भी देवदास की कथा  से मंत्रमुग्ध हो गई और भारत के सभी निर्माता निर्देशक लगातार इसके दर्द भरी कथा की ओर आकर्षित होते रहे. 1928 में नरेश मित्रा द्वारा, बनाई गई सबसे पहले 'देवदास' का रूपांतरण फ़िल्म के रूप में की गई.

1930 के दशक में, पी.सी. बरुआ के त्रिभाषी संस्करणों में, इस कहानी की विभिन्न भाषाओं में कई व्याख्याएँ देखी गईं. कोरी केक्रीकमुर ने सटीक रूप से देवदास को एक सांस्कृतिक कसौटी के रूप में वर्णित किया था, जिसने भारतीय और प्रवासी समुदायों के अंतर्मन में, एक खट्टा मीठा स्मरण, दोहराव और आत्मनिरीक्षण की  प्रक्रिया को बढ़ावा दिया.

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बिमल रॉय, संजय लीला भंसाली और अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित देवदास के तीन हिंदी रूपांतरणों के बारे में बात करे तो इन सभी फिल्म मेकर्स ने अपने अपने अपूर्व डाइरेक्टरी लेंस से, शरत बाबू के इस क्लासिक कथा में निहित सूक्ष्मता को शानदार ढंग से उजागर किया, जो सेल्युलाइड की दुनिया में उनकी विशिष्ट निर्देशकीय शैलियों और व्याख्याओं को रेखांकित करता है.

लेकिन इन प्रस्तुतितियों में सबसे ज्यादा जिस फ़िल्म को आज भी एतिहासिक माना जाता है वो है 1955 की दिलीप कुमार और सुचित्रा सेन अभिनीत फिल्म 'देवदास'. चलिए इस बात का विश्लेषण करें कि कैसे ये 'देवदास' आधुनिक प्रेम की जटिलताओं को पार करती हैं और बॉलीवुड सिनेमा की भव्यता के भीतर अपनी एक जगह बनाती हैं.

DEVDAS 1955 FULL MOVIE

चलिए हम सिनेमैटिक एंगल के माध्यम से देवदास के चिर स्थाई आकर्षण और प्रासंगिकता का निरीक्षण करें. 'देवदास', प्रेम, स्वाभिमान, बर्बादी और अफसोस की एक कालातीत कहानी है. बचपन की मासूमियत और अटूट प्यार किस तरह समाज की कठोर वास्तविकताओं से टकराती है और स्त्री के सम्मान और प्रेम की रक्षा ना कर पाने की नामर्दानगी, जब स्वाभिमान की कसौटी बन जाती है तो क्या होता है, उसका सटीक चित्रण है फ़िल्म 'देवदास' में.

देवदास और पारो (पार्वती) की कहानी, दो प्रेमी आत्माओं की कहानी है जो भाग्य से आपस में जुड़ी हुई हैं लेकिन उनका जीवन हमेशा के लिए  दर्द और स्वाभिमान के दुखद झंझावात में उलझा हुआ है. ग्रामीण बंगाल के मध्य में, देवदास, एक रईस जमीदर का बिगड़ैल और शरारती बालक है, जो अपने पड़ोसी मध्यम वर्गीय परिवार की बालिका पारो के साथ खेलता कूदता बड़ा होता है. बचपन की परिस्थितियों में बना उनका बंधन इतना गहरा प्यार बन जाता है कि वह दोनों कभी एक दूसरे से अलग होने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

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वे जवान हो जाते हैं लेकिन भाग्य का क्रूर हाथ उनके प्रेम में हस्तक्षेप करके उनके आड़े आ जाता है. देवदास का पारो के प्रति आकर्षण देखकर देवदास के घरवाले उसे कलकत्ता शहर में अध्ययन करने के लिए भेज देता है. वर्षों बाद, जब देवदास वापस आता है, तो उनका प्यार फिर से परवान चढ़ने उठता है, यह देखकर पारो की नानी, देवदास के घर बेटी के शादी का प्रस्ताव रखती है. लेकिन उन दोनों परिवारों के बीच आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का बड़ा फासला आड़े आ जाता है. देवदास का परिवार सामाजिक अपेक्षाओं से  अंधे होकर, इस जोड़ी को अस्वीकार कर देते है, जिससे पारो का दिल टूट जाता है.

उधर पारो के परिवार वाले इस अपमान को ना सह पाने के कारण पारो की शादी देवदास के परिवार से भी ज्यादा धनवान जमीदर से तय कर देते हैं जो एक विधुर, कई बालिग बच्चों के पिता और उम्र में पारो से दुगनी उम्र का है. व्याकुल, चिंतित और दुखी पारो अपने बचपन के प्रेमी देवदास के साथ विवाह के लिए बेताब होकर उससे छिपकर मिलती है और विनती करती है कि वो अपने परिवार को मना ले, लेकिन देवदास अपने परिवार को मना नहीं पाता और उस स्थिति का सामना ना कर पाने के कारण पारो को मंझधार में छोड़ कोलकाता भाग जाता है.

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पारो देवदास की कायरता देख अवाक रह जाती है और अपने परिवार द्वारा पसंद की गई बूढ़े पुरुष से शादी के लिए तैयार हो जाती है. शादी का सारा खर्च वर पक्ष उठाते हैं और पारो को गहनों से लाद देते हैं. उधर कोलकाता जाने के बाद देवदास को अपनी गलती का एहसास होता है और वो वापस गाँव आकर पारो से मिलने की कोशिश करता है लेकिन पारो इंकार कर देती है. तब आवेगपूर्ण क्रोध के क्षण में, देवदास पारो के सर पर प्रहार करता है और एक ऐसा निशान छोड़ देता है जो जीवन भर के लिए उनके शाश्वत प्रेम का प्रतीक बन जाता है लेकिन उनका प्यार हमेशा के लिए विश्वासघात और स्वाभिमान के टकराहट से कलंकित  रह जाता है. वो पारो से ये कहकर वहां से निकल जाता है कि मरने से पहले वो एक बार उससे मिलने जरूर आएगा.

परेशान देवदास कोलकाता लौट जाता है और एक दोस्त के चंगूल में फंसकार शराब पीने लगता है. वही दोस्त उसे एक वैश्या, चंद्रमुखी के पास ले जाता है लेकिन भद्र घर के देवदास को चंद्रमुखी का शारीरिक सौंदर्य और नाच गाना लुभा नहीं पाता. चन्द्रमुखी उसे किसी भी तरह से अपनी तरफ खींच नहीं पाती, देवदास दिनरात पारो के विचारों में शराब पीता और धीरे धीरे बीमार होने लगता है. उधर चन्द्रमुखी देवदास से प्यार करने लगती है और अपना कोठा, ठाट बाट, साज शृंगार त्याग कर  एक छोटे से भाड़े के कमरे में रहने लगती है.

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देवदास के पिता की मृत्यु और उसकी माँ का काशी चले जाने की खबर सुनकर देवदास गाँव लौटता तो है लेकिन उसके भाई और रिश्तेदारों द्वारा सारा जमीन जायदाद बंट जाने और पारो के विवाह हो जाने के गम से वो हारा हुआ वापस कोलकाता लौट जाता है और शराब में डूब जाता है और भयंकर रूप से बीमार पड़ जाता है. चन्द्रमुखी को जब देवदास की ऐसी दशा की खबर लगती है तो वो उसे ढूंढती है और सड़क पर बेहोश पड़े देवदास को उठा कर अपने कमरे में ले आती है, अपनी चूड़ियाँ बेचकर उसकी दवा और डॉक्टर का खर्च उठाती है. डॉक्टर आगाह करता है कि अब एक बूंद शराब भी देवदास की जान ले सकता है. चन्द्रमुखी अपने जी जान से देवदास की सेवा करती है.

जब देवदास थोड़ा संभलता है तो वो पारो को एक बार देखने और अपना एक वादा पूरा करने की इच्छा से कोलकाता छोड़ देता है, लेकिन उसे पता नहीं कि पारो कहाँ रहती है. वो रेलगाड़ी में बैठ जाता है, गाड़ी में उसे अचानक अपना वही दोस्त मिल जाता है जिसने उसे पीना सिखाया था. वो देवदास को फिर से शराब पेश करता है और कमजोर दिल का देवदास फिर बहक कर शराब पी लेता है. दोस्त तो गाड़ी से उतर कर चला जाता है लेकिन देवदास पीता रहता है. फिर वो गांव पहुंच कर एक गाड़ीवान की गाड़ी में बैठ जाता है और उसे पारो के जमींदार पति के दरवाजे तक ले जाने को कहता है.

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गाड़ीवान गाड़ी हांकता रहता है और आखिर जब वो देवदास से ज़मींदार का सटीक पता पूछता है और उसे कोई जवाब नहीं मिलता तब वो गाड़ी रोककर माजरा देखने पीछे जाता है.देवदास को बेहोश और मरणासन्न देख वो उसे वहीं सड़क पर उतार कर भाग जाता है. अद्भुत संयोग यह होता है कि जहां उसे उतारा जाता है वहीं पारो का ससुराल वाला विशाल बंगला है. बंगले का बड़ा सा कपाट हमेशा बंद रहता है जहां पारो इस सोने के पिंजरे में घुट घुट कर जी रही है.

जब नौकरों के मुंह से पारो को पता चलता है कि फलां फलां रंग रूप का कोई व्यक्ति सड़क पर अर्ध मूर्छित अवस्था में मृत्यु शैया पर पड़ा पारो पारो पुकार रहा है तो वो चौंक जाती है और उसका प्रेम फिर से धू धू करके जल उठता है. वो अपने विशाल बंगले के प्रांगण को पार करती हुई पागलों की तरह अपने देवदास से मिलने दौड़ पड़ती है, लेकिन एक प्रतिष्ठित ज़मीदर की बहू होने के कारण उसे बंगले के विशाल गेट के बाहर नहीं जाने दिया जाता है. पारो का देवदास, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए पारो के द्वार पर दम तोड़ देता है और पारो यह गम बर्दाश्त ना कर पाने की सूरत में मूर्छित हो जाती है.

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बिमल रॉय द्वारा निर्देशित इस उल्लेखनीय फिल्म देवदास (1955) में दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, वैजयन्ती माला के अलावा, मोतीलाल (चुन्नी), प्राण, जॉनी वॉकर, नजीर हुसैन, प्रतिमा देवी, मुराद इफ्तिखार,, शिवराज, जैसे कलाकार शामिल थे, जो इस फिल्म में थोड़ा लम्बा कैमियो भूमिकाओं में दिखाई दिए और साथ ही कथा में गहराई भी लाई. नबेंदु घोष की पटकथा और राजिंदर सिंह बेदी के संवाद ने शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के इस क्लासिक उपन्यास देवदास को जीवंत कर दिया था. बिमल रॉय प्रोडक्शंस द्वारा निर्मित, फिल्म का वितरण बिमल रॉय प्रोडक्शन और मोहन फिल्म्स द्वारा किया गया था.

कमल बोस की मनोरम छायांकन और एस. डी. बर्मन के भावपूर्ण संगीत के साथ, फिल्म ने उस जमाने में प्रेम को एक नए अध्याय के साथ परिभाषित किया. 155 मिनट लंबी यह फ़िल्म देवदास 30 दिसंबर 1955 को हिंदी भाषा में रिलीज़ हुई थी. ₹5 मिलियन के बजट के बावजूद, यह व्यावसायिक रूप से खूब सफल रही और बॉक्स ऑफिस पर ₹10 मिलियन की कमाई की. 2005 में, इंडियाटाइम्स मूवीज़ ने 'देवदास' की कहानी को युग युग के शीर्ष प्रस्तुतियों में स्थान देकर इसके सदा बहार प्रभाव को स्वीकार किया.

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बिमल रॉय के देवदास में शुरू से ही बिमल दा की पहली और आखिरी पसंद दिलीप कुमार ही थे. जबकि उन्होने मीना कुमारी से पारो के चरित्र और नरगिस को चंद्रमुखी का किरदार निभाने की कल्पना की थी, लेकिन भाग्य की कुछ और ही योजना थी. अपने पति की कई शर्तों के कारण मीना कुमारी  यह रोल कर नहीं पाई. तब फ़िल्म मेकर्स ने बंगाल की सुपरिचित अभिनेत्री सुचित्रा सेन को लेने का मन बनाया. उधर नरगिस ने भी चंद्रमुखी की भूमिका को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उसे चंद्रमुखी नहीं पारो का किरदार चाहिए. इसपर निर्देशक ने मना कर दिया, उन्हे तो पारो के रूप में अब सुचित्रा ही चाहिए थी. जब बीना राय और सुरैया ने भी नरगिस के जैसे ही कारणों से चंद्रमुखी की भूमिका को ठुकरा दिया, तब वैजयंतीमाला को इस भूमिका के लिए साइन किया गया और वैजयंती माला ने अंततः चंद्रमुखी में गहराई और भावना भरते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो उनके कैरियर का एवर ग्रीन परफॉर्मेंस कहलाई जाती है . बतौर नायिका सुचित्रा सेन ने बड़ी खूबसूरती से पारो की भूमिका में जान फूंक दी.

सुपर हिट फिल्म 'देवदास' की दिल को छू लेने वाली धुनें दर्शकों के बीच उस ज़माने से आज तक गहराई तक गूंजती रही है . जिसने इसकी सफलता में महत्वपूर्ण योगदान दिया., 'जिसे तू कबूल कर ले'  "अब आगे तेरी मर्जी", "किसको खबर थी ऐसे भी दिन आएंगे",  'ओ जाने वाले रुक जा ' "आन मिलो, आन मिलो श्याम सावरे" 'वो ना आएंगे पलटके' जैसे गीतों ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया और कहानी में भावनात्मक गहराई जोड़ दी, जिससे फिल्म को सुपरहिट होने में बल मिला. बंगाल के समृद्ध बाउल परंपरा से भी प्रेरणा लेते हुए इस फ़िल्म का साउंडट्रैक भावनाओं और धुनों की एक कहानी बुनती है, इसके अलावा, चंद्रमुखी के  कोठे पर ठुमरी का समावेश, तवायफ संस्कृति की बारीकियों को सूक्ष्मता से प्रदर्शित करता है जिसने फ़िल्म में चार चांद लगा दी.

DEVDAS 1955 ALL SONGS

रिलीज़ हो जाने के पश्चात 'देवदास' (1955) ने जहां दर्शकों के मन में घर कर लिया वहीं प्रतिष्ठित पुरस्कार समारोहों में इस फिल्म ने प्रशंसा खूब बटोरी. तीसरे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में, बिमल रॉय को बिमल रॉय प्रोडक्शंस के तीसरी  सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म के लिए मेरिट प्रमाणपत्र मिला. इसके अलावा, चौथे फिल्मफेयर पुरस्कार में, दिलीप कुमार ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीता, मोतीलाल ने सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार जीता, और वैजयंतीमाला को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के रूप में सम्मानित किया गया, हालांकि उन्होंने इस विश्वास का हवाला देते हुए पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया कि उनकी भूमिका सुचित्रा सेन के बराबर थी अतः उन्हे सहायक पुरस्कार नहीं सर्वश्रेष्ठ नायिका का सम्मान मिलना चाहिए.

विश्व स्तर पर बेहतरीन फिल्मों में से एक के रूप में रेखांकित होने के बावजूद, उल्लेखनीय महानायिका सुचित्रा सेन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के नामांकन या पुरस्कार की अनुपस्थिति ने खूब सारे सवाल खड़े कर दिए. कई अटकलों से पता चलता है कि उनके बांग्लादेशी मूल और उस अवधि के दौरान दोनों देशों के बीच राजनीतिक तनाव ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित किया होगा, जिसके कारण संभवतः उन्हें नामांकन और पुरस्कारों से बाहर कर दिया गया होगा.

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इसके अलावा, 'देवदास' को कार्लोवी वैरी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में क्रिस्टल ग्लोब के लिए भारत की आधिकारिक प्रस्तुति के रूप में भी चुना गया था, जिससे अंतरराष्ट्रीय मान्यता के साथ, एक सिनेमैटिक उत्कृष्ट कृति के रूप में इस फ़िल्म की स्थिति और मजबूत हो गई.

खबरों के अनुसार कुछ लोगों का विश्वास है कि यह कहानी शरत बाबू की अपनी आत्म कथा है, जिसमें कहानी की मुख्य पात्रा पार्वती उर्फ पारो और कोई नहीं बल्कि उसकी बचपन की दोस्त धीरू है, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि पारो दरअसल शरत चन्द्र के एक अन्य बचपन की दोस्त राजबाला है. एक अन्य मान्यता के अनुसार यह शरत चन्द्र के पड़ोसी गांव के एक प्रतिष्ठित ज़मींदार की सत्य कहानी है.

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