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Dada Saheb Phalke Death Anniversary: गोरेगाँव (मुम्बई) स्थित दादा साहेब फाल्के (Dada Saheb Phalke) चित्रनगरी, फिल्म सिटी स्टूडियो में भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के की 81वीं पुण्य तिथि (Dada Saheb Phalke Death Anniversary) के अवसर पर फिल्मसिटी स्टूडियो प्रबंधन द्वारा आयोजित भव्य समारोह में दादा साहेब फाल्के के ग्रैंडसन चंद्रशेखर पुसलकर अपनी पत्नी मृदुला पुसलकर व दत्तक पुत्री नेहा बंदोपाध्याय के साथ, अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. इस समारोह में भारतीय फिल्म जगत से जुड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधियों, बॉलीवुड के नामचीन शख्सियतों व महाराष्ट्र सरकार के प्रशासनिक पदाधिकारियों के अलावा देश के अन्य राज्यों से आये लोगों ने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया और श्रद्धांजलि अर्पित की.
भारतीय सिनेमा के जन्मदाता दादा साहब ने फिल्म इंडस्ट्री में अपने 19 साल के करियर में 121 फिल्में बनाई, जिसमें 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं. दादा साहेब सिर्फ एक निर्देशक ही नहीं बल्कि एक मशहूर निर्माता और स्क्रीन राइटर भी थे. उनकी आखिरी मूक फिल्म 'सेतुबंधन' थी और आखिरी फीचर फिल्म 'गंगावतरण' थी. उनका निधन 16 फरवरी 1944 को नासिक में हुआ था. उनके सम्मान में भारत सरकार ने 1969 में 'दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड' देना शुरू किया. यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है. सबसे पहले यह पुरस्कार पाने वाली देविका रानी चौधरी थीं. 1971 में भारतीय डाक विभाग ने दादा साहेब फाल्के के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया.
व्यक्तिगत जीवन
भारतीय सिनेमा के नींव रखने वाले दादा साहेब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को बंबई प्रेसीडेंसी के त्रिंबक में एक मराठी परिवार में धुंडिराज फाल्के के रूप में हुआ था. धुंडीराज फाल्के के पिता गोविंद सदाशिव फाल्के एक संस्कृत विद्वान और हिंदू पुजारी थे. उनकी मां द्वारकाबाई एक गृहिणी थीं. फाल्के ने अपनी प्राथमिक स्कूली शिक्षा त्र्यंबकेश्वर में और मैट्रिक की पढ़ाई बॉम्बे में पूरी की. 1885 में फाल्के ने सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स, बॉम्बे से एक साल का ड्राइंग कोर्स पूरा किया. इसके बाद वह बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में कला भवन में शामिल हो गए और 1890 में तेल चित्रकला और जल रंग चित्रकला में पाठ्यक्रम पूरा किया. वह वास्तुकला और मॉडलिंग में भी सक्षम थे. फाल्के ने उसी वर्ष एक फिल्म कैमरा खरीदा और फोटोग्राफी, मुद्रण और प्रसंस्करण के साथ प्रयोग करना शुरू किया.
करियर की शुरुआत
कला भवन के उपकरणों का उपयोग करने की अनुमति मिलने पर उन्होंने एक फोटो स्टूडियो स्थापित किया जिसे श्री फाल्के एनग्रेविंग एंड फोटो प्रिंटिंग के नाम से जाना जाता है. प्रारंभिक चरण में असफल होने के बाद उन्होंने नाटक संगठनों के लिए मंच पर काम करते हुए प्रगति की. एसोसिएशन को इसके फायदे भी मिले. फाल्के को उनके नाटकों में छोटी-छोटी भूमिकाएं मिलने लगीं. उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए एक फोटोग्राफर के रूप में भी कुछ समय बिताया. 1912 में फाल्के ने एक व्यापक पद संभाला जहां उन्होंने फिल्म की शूटिंग के लिए एक छोटा सा कांच का स्थान बनाया. उन्होंने फिल्मों को संसाधित करने की योजना के साथ एक अंधेरे कमरे की भी पूर्व-व्यवस्था की. कुछ चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से गुजरने के बाद फाल्के ने पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई जिसका प्रीमियर बॉम्बे के ओलंपिया थिएटर में हुआ. यह एक ऐसी फिल्म थी जिसने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन किया और फिल्म उद्योग की स्थापना की.
भारतीय सिनेमा में फीमेल आर्टिस्ट को दिए रोल
जब अंग्रेज भारत में पश्चिमी फिल्में दिखा रहे थे तो फाल्के ने भारतीयों को अपनी जड़ों से जोड़ने के लिए पौराणिक कथाओं को एक उपकरण के रूप में शामिल किया जो एक आसान लेकिन प्रगतिशील कदम था. जब फाल्के ने राजा हरिश्चंद्र बनाई तो एक महिला अभिनेता का सामान्य विचार समाज के लिए अभिशाप था. उन्हें राजा हरिश्चंद्र की पत्नी, रानी तारामती की भूमिका निभाने के लिए एक आदमी (अन्ना सालुंके) को प्रोजेक्ट करने की जरूरत थी.
किसी भी स्थिति में उन्होंने अपनी दूसरी मूक फिल्म मोहिनी भस्मासुर (1913) में इसे सही किया जब उन्होंने दुर्गाबाई कामत को पार्वती की भूमिका और उनकी किशोर बेटी कमलाबाई गोखले को मोहिनी की भूमिका की पेशकश की. कामत जो एकल माता-पिता थे को यह भूमिका निभाने के लिए उनके समाज द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था. लेकिन उन्होंने महिलाओं के लिए फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाना संभव बना दिया. वर्षों बाद फाल्के ने लंका दहन (1917) और श्री कृष्ण जन्म (1918) में अपनी बेटी मंदाकिनी फाल्के को कास्ट किया. फाल्के की पत्नी सरस्वतीबाई ने भी भारतीय फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वह भारत की पहली फिल्म संपादक थीं जिन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' जैसी फिल्मों में काम किया.
भारतीय सिनेमा का कारोबार आज करीब तीन अरब का हो चला है और लाखों लोग इस उद्योग में लगे हुए हैं लेकिन दादा साहब फाल्के ने महज 20-25 हजार की लागत से इसकी शुरुआत की थी. आज भले ही दादा साहेब फाल्के हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आज भी उनका संदेश व उनके संघर्षों को बयां करते पदचिन्ह, भारतीय फिल्म जगत के फिल्मकारों को कर्मपथ पर धैर्य के साथ अग्रसर रहने के लिए सदैव प्रेरित करता है और युगों युगों तक करता रहेगा.
प्रस्तुति : काली दास पाण्डेय
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