भारत के संगीत जगत में कितने गायक आए और कितने चले गए, अपने अपने गुण में, अपने अपने धुन में और अपने अपने स्वर में कोई किसी से कम ना थे, लेकिन फिर भी जो नहीं छू पाए उस महान गायक की छाया को, वो है महान गायक, सुरों के देवता, संगीत जगत के तानसेन मुहम्मद रफी. उनका कोई भी गीत, आज भी, नई पीढ़ी को उतना ही उद्वेलित और भावनाओं से झकझोर देती है, प्रेम, दुख, भक्ति, चंचलता और पुरानी यादों की लहरों से प्रवाहित कर देती है, जितना पुरानी पीढ़ी को करती थी. मोहम्मद रफी एक ऐसी आवाज जिसने दिलों को छू लिया और आंखों में आंसू ला दिए. मुहम्मद रफ़ी सिर्फ एक गायक नहीं हैं, वे एक भावना, एक स्मृति और बॉलीवुड इतिहास का एक टुकड़ा हैं. अपने तीन दशक से अधिक लंबे करियर में, वे भारतीय फिल्मों और गैर फिल्मों में एक चोटी के गायक बने रहे . उनके गाने प्रेम कहानियों, उत्सवों और यहां तक कि दुःख के लिए भी एक पृष्ठभूमि बन जाती थी. 1924 की एक ठंडे थर्थराते दिन में , ठीक बड़े दिन से एक दिन पहले, अमृतसर के कोटला सुल्तानपुर में, एक रूढ़िवादी परिवार में जन्में मोहम्मद रफ़ी के बारे में तब कौन जानता था कि एक दिन यह शिशु विश्व के संगीत जगत में इतिहास रचकर भारत का नाम इस कदर रोशन कर देगा जिसकी चमक सूरज की किरणों की तरह सदा शाश्वत रहेगी. हैरानी की बात तो यह है कि उनके परिवार में कोई गाने के ग से भी वाकिफ नहीं थे लेकिन नन्हे रफी जिसे उनके छह भाई बहन और माता पिता प्यार से फीको कह कर पुकारते थे, यह बच्चा तो सारी दुनियादारी और पढ़ाई लिखाई से मुंह मोड़कर सिर्फ और सिर्फ सुर और ताल का दीवाना था. चाहे फकीर हो या कोई दीवाना, जो भी गाना गाते हुए गली से गुज़रता, नन्हा फीको, उसके पीछे पीछे हो लेता और फिर उसी गाने को खुद गाता था. फीको यानी रफी की दिल छूने वाली आवाज़ को सुनकर हर कोई स्तब्ध हो कर रुक जाता था. रफी जब 9 साल के हुए तो उनका पूरा परिवार लाहौर में शिफ्ट हो गए. वहां आगे की पढ़ाई करने से फीको (रफी) ने साफ इनकार कर दिया तो उनके पिता ने उन्हें अपने बड़े भाई के साथ खानदानी नायी की दुकान में काम करने को कहा. 9 साल की छोटी सी उम्र में रफी नूर मोहल्ले के भाटी गेट में अपने नायी की दुकान में बाल काटना सीखने लगे. रफी अपने ग्राहकों के बाल काटते हुए गाना गाते थे जिसे सभी लोग बड़ी दिलचस्पी से सुना करते थे. वह साल था 1933, जब एक दिन, संगीत के उस्ताद, पंडित जीवनलाल वहां बाल कटवाने आए, रफी उनके बाल काटते हुए वारिस शाह का गाना गुनगुनाने लगे. रफी की आवाज में जो रस और जादू था उसने जीवनलाल को सकते में डाल दिया. बाल कटवाने के बाद जीवनलाल ने उन्हें अपने ऑफिस में आने के लिए कहा. रफी वहां पहुंचे तो पंडित जी ने उनका ऑडिशन लिया और फिर उन्हें पंजाबी गानों की ट्रेनिंग देने लगे. रफी के लिए तो यह बाएं हाथ का खेल था. देखते ही देखते रफी सशक्त ढंग से गाने लगे. घर के आसपास, कोई भी उत्सव, किसी भी रंगमंच पर रफी गाने लगे. साथ साथ वे संगीत आयोजकों के साथ उनके कार्यक्रम में स्टेज के पीछे की जिम्मेदारी में भी मदद करते थे. यह साल 1937 की बात, लाहौर में एक ऑल इंडिया एग्जीबिशन का आयोजन हो रहा था, 13 वर्ष के रफी, आयोजिकों के साथ मदद करने पहुंच गए. उसी एग्जीबिशन में सुप्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल को स्टेज परफॉर्मेंस देना था, लेकिन एन वक्त पर बिजली गुल हो गई. अब बिना माइक के कुंदन लाल ने गाना गाने से इंकार कर दिया. टिकट लेकर आए पब्लिक हंगामा मचाने लगे, तब उन्हे संभालने के लिए आयोजकों ने रफी को गाना गाने के लिए कहा. बिना माइक के रफी ने जब गाना शुरू किया तो ऑडियंस में सन्नाटा छा गया. रफी ने जब गाना खत्म किया तो तालिया की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा. के. एल सहगल भी अवाक रह गए और उन्होंने उसी समय मोहम्मद रफी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह लड़का आगे चलकर बहुत बड़ा गायक बनेगा. और रफी ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. ऐसे ही किसी प्रोग्राम में रफी की मुलाकात फ़िल्म निर्देशक श्याम सुंदर के साथ हो गई . श्याम सुंदर ने रफी को अपनी फिल्म गुल बलोच में ना सिर्फ गाने के लिए अप्रोच किया बल्कि उन्होंने रफी को उसमें एक भूमिका भी निभाने के लिए कहा. मोहम्मद रफी ने अपने जीवन में सिर्फ इसी फिल्म में अभिनय किया था. उस फिल्म में रफी के गाए गीत 'परदेसी सोनिए, ओ हीरिए' बहुत हिट हो गया. लेकिन रफी की आंखों में लाहौर से आगे जाकर भी बहुत कुछ बड़ा करने के सपने झिलमिला रहे थे. उन्ही दिनों उनकी पहचान निर्माता अभिनेता नज़ीर से हो गई. नज़ीर मोहम्मद रफी की आवाज से बहुत प्रभावित थे एक दिन उन्होंने रफी को मुंबई आकर अपनी किस्मत आजमाने के लिए कहा और साथ ही उन्होंने उन्हे जेब खर्च के लिए ₹100 देकर मुंबई की एक टिकट पकड़ा दी. मोहम्मद रफी मुंबई आ गए तो उन्हें सबसे पहले फिल्म 'पहले आप' (1944) में एक देशभाक्ति गीत "हिंदुस्तान के हम हैं' गाने का ऑफर मिला. इस गीत के संगीतकार थे नौशाद. नौशाद एक परफेक्शनिस्ट संगीतकार थे. उन्होंने जब इस गीत की रिकॉर्डिंग की तो गायक मोहम्मद रफी तथा उनके साथ कोरस गाने वालों को मिलिट्री के जूते पहन कर गाना गाने और जूते से लेफ्ट राइट की आवाज़ निकालने का निर्देश दिया. जूते की आवाज को उन्होंने संगीत में साउंड इफेक्ट दिए. जब रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो नौशाद यह देखकर हैरान रह गए कि मोहम्मद रफी के पैरों से खून बह रहा था (जूता उनके नाप का नहीं था) लेकिन रफी ने उफ तक नहीं की और पूरा गाना बड़े ही जोश के साथ पूरा किया. इस घटना के बाद से मुहम्मद रफी, नौशाद के चहेते गायक बन गए और उन्होंने अपने जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ गाने गाए वह नौशाद के ही थे. बतौर गायक रफी साहब का बोलबाला बढ़ने लगा. उन्होंने 1946 में फिल्म, 'अनमोल गुड़िया', 1948 में फिल्म 'शाहिद' 1951 में फिल्म 'दीदार' 1960 में फिल्म 'कोहिनूर' और फिर बैजू बावरा (1952) में अपनी आवाज का जादू जगा कर गायकी की दुनिया में डंका बजा दिया. 1948 से लेकर 1970 तक मोहम्मद रफी हिंदी तथा अन्य भाषाओं के गीतों में इस कदर छाए रहे कि उनके सामने कोई और गायक टिक ही नहीं सकता था लेकिन 1970 के बाद किशोर कुमार ने अपना कमाल दिखाना शुरू किया. बावजूद इसके मुहम्मद रफी का जलवा बरकरार रहा. सबसे मजे की बात तो यह है कि रफी साहब ने किशोर कुमार के लिए भी दो फिल्में, रागिनी और शरारत में उनके लिए आवाज़ दी और किशोर कुमार के लिप सिंकिंग की. मोहम्मद रफी ने फिल्म इंडस्ट्री के सारे दिग्गज संगीत निर्देशकों के साथ काम किया जैसे नौशाद, शंकर जयकिशन, ओपी नैयर, मदन मोहन, एसडी बर्मन. मोहम्मद रफ़ी की मधुर आवाज गिरगिट की तरह रंग बदलते थे. थे. उन्होने हर तरह के गीत गाए भावपूर्ण शास्त्रीय रचनाएँ, रोमांटिक धुनें जिन्होंने दिलों को झकझोर दिया, देशभक्ति के गीत जिन्होंने राष्ट्रीय गौरव को जगाया, पेप्पी डांस नंबर, भक्ति भजन, आध्यात्मिक ऊंचाइयों और मस्त करने वाली कव्वालियाँ, उन्होने क्या नहीं गाया. 14 भारतीय भाषाओं में गाने और यहां तक कि अंग्रेजी और क्रियोल में गाने की उनकी क्षमता ने रफ़ी को अद्वितीय बना दिया.वे सिर्फ एक गायक नहीं थे, वे एक संगीत राजदूत थे जिन्होंने अपनी आवाज़ के माध्यम से संस्कृतियों को जोड़ा. संगीतकार नौशाद ने सबसे पहले उनकी क्षमता को पहचाना नौशाद ने एक बार रफ़ी के बारे में एक गहरी बात कही थी, वे बोले थे "उनके जाने के बाद मेरा केवल 50 प्रतिशत हिस्सा ही बचा है. मैं अल्लाह से प्रार्थना करूंगा कि वह रफ़ी को सिर्फ एक घंटे के लिए इस दुनिया में वापस भेज दे ताकि मैं अपने जीवन का आखिरी सर्वश्रेष्ठ संगीत बना सकूं." ओपी नैय्यर वक्त के बहुत पाबंद थे. सुबह 9:30 बजते ही वे अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो का दरवाजा बंद कर देते थे. एक बार ओपी नैयर के एक रिकॉर्डिंग पर रफी साहब 10 मिनट देरी से पहुंचे और आते ही उन्होंने ओ पी नैयर से माफी मांग ली और बताया कि शंकर जयकिशन के एक रिकॉर्डिंग की वजह से उन्हें देर हो गई. इस पर ओपी नैयर ने उनसे कहा कि शंकर जयकिशन के लिए उनके पास टाइम है, वे इतना महत्वपूर्ण हो गए हैं और ओ पी नैयर के लिए टाइम नहीं है, वे उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? इस घटना के बाद ओपी नैयर ने मोहम्मद रफी के साथ काम करना बंद कर दिया था. कई साल ऐसे ही गुजर गए, एक दिन रफी साहब खुद ओपी नैयर के घर पहुंचे. तब ओपी नैयर ने भावुक होकर रफी को गले से लगाते हुए कहा था की, "रफी आपने मेरे घर आकर यह जता दिया कि आप महान हो. मैं अपना अहंकार नहीं छोड़ पाया, आप अपना अहं छोड़कर मेरे पास आए." यह रफी साहब के चरित्र के बारे में बहुत कुछ बताता है. मोहम्मद रफी लता मंगेशकर को अपनी बहन मानते थे लेकिन एक बार लता मंगेशकर के साथ रॉयल्टी को लेकर उनमें अनबन हो गई. अपनी मतभेदों के बावजूद, रफ़ी और लता के बीच एक खूबसूरत भाई-बहन जैसा रिश्ता सदा बना था. लता ने स्वयं रफ़ी की महानता को स्वीकार करते हुए उन्हें "एक अद्भुत गायक - बहुत मधुर और उतना ही भावुक" कहा. लेकिन दोनों ने एकसाथ गाना छोड़ दिया था. आखिर एक प्रोग्राम के दौरान नर्गिस जो प्रोग्राम की होस्ट थी ने भरी हुई ऑडिटोरियम में रफी और लता, दोनों को अचानक स्टेज पर एक साथ आने का अनुरोध करके सबको स्तब्ध कर दिया. और आखिर दो दिग्गजों ने फिर गाना शुरू किया. कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि रफ़ी को शुरू में अंग्रेजी में ऑटोग्राफ देना नहीं आता था. ऑटोग्राफ क्या है यह भी उन्हें पता नहीं था.एक बार जब वह महेंद्र कपूर के साथ किसी प्रोग्राम से लौट रहे थे तो मोहम्मद रफी के फैंस ने उन्हें घेर कर उनसे ऑटोग्राफ की मांग की. मोहम्मद रफी को कुछ समझ में नहीं आया, उन्होंने धीरे से पंजाबी में महेंद्र कपूर से पूछा कि यह क्या मांग रहे हैं? तब महेंद्र कपूर ने उनसे कहा कि यह आपसे आपका सिग्नेचर मांग रहे हैं. इस पर भोलेपन की हद रफी साहब ने महेंद्र कपूर से कहा," तो तू मेरा सिग्नेचर कर दे." बाद में अपने हस्ताक्षर को बेहतर बनाने के लिए घंटों अभ्यास करते थे. रवींद्र जैन ने एक बार रफ़ी को "भारतीय फिल्म उद्योग का तानसेन" कहा था - एक ऐसा शीर्षक जो उनकी संगीत प्रतिभा को पूरी तरह से दर्शाता है. रफ़ी के साथ देश विदेश में प्रोग्राम करने वाली गायिका कृष्णा मुखर्जी ने एक मजेदार किस्सा साझा करके बताया था कि कोई भी प्रदर्शन से पहले, रफ़ी शरारती मुस्कान के साथ अपने गंजे सिर पर चांदी की कंघी फिराते थे, फिर एक गिलास ठंडा दूध पीकर स्टेज पर जाते थे और अपनी आवाज का ऐसा जादू जागते कि लोग खड़े होकर तालियां बजाते थे. गाना गाते गाते वे इस तरह से मस्त हो जाते थे की कई बार ड्रम बजाने वाले से ड्रम स्टिक भी छीन लेते हैं और बजाने लगते थे. गाने के अलावा रफी साहब को काली पतंग उड़ाने की हॉबी थी. जब मकर संक्रांति के समय उनके घर के आसपास आसमान में काले पतंग उड़ते दिखते थे तो लोगों को पता चल जाता था की रफी साहब अपने घर के छत पर पतंग उड़ा रहे हैं. उन्हें यह बिल्कुल नहीं पसंद नहीं था कि कोई उनका पतंग काटे. उन्हे अपने परिवार के बच्चों के साथ कैरम खेलना, हॉलीवुड फिल्में देखना, ग़ज़लें सुनना, और घर पर बने भोजन का आनंद लेना बहुत पसंद था. जब वे अंग्रेजी फिल्म देखने बैठते तो थोड़ी ही देर में वह सो जाते थे लेकिन उनके साथ बैठे-बच्चे उन्हें फिल्म की कहानी बता देते थे. मोहम्मद रफी को चाय पीने का बहुत शौक था लेकिन उनकी चाय कुछ अलग ढंग से बनती थी और वह भी उनकी पत्नी बिलकिस के हाथों की ही चाय वह पीते थे. उनकी पत्नी बील्किस बानो, उनके लिए बादाम, लौंग और दालचीनी के साथ विशेष चाय तैयार करती थीं, जिसे वह थर्मोज़ में अपने स्टूडियो में ले जाते थे. 31 जुलाई 1980 को भारत ने अपना संगीत खजाना खो दिया. महज़ 55 साल की उम्र में रफ़ी को दिल का दौरा पड़ा. वे किसी फिल्मी गाने की रेकॉर्डिंग करके लौटे ही थे कि उन्हे पसीने आने लगे, छाती में दर्द उठने लगा. पत्नी ने देखा उनके नाखून नीले पड़ रहे थे. एंबुलेंस बुलाया गया लेकिन रफी साहब ने अपनी ही फिएट गाड़ी में अस्पताल जाने की जिद की. वे जिस अस्पताल में पहुंचे वहां पेसमेकर लगाने की सुविधा नहीं थी, तब उन्हें एक बड़े अस्पताल में ले जाया गया. लेकिन तमाम कोशिशें के बाद भी उन्हें नहीं बचाया जा सका. बीच में उन्हें एक बार होश आया था तो उनके शरीर में जगह-जगह ट्यूब्स लगे हुए थे, ऑक्सीजन मास्क लगा हुआ था. ऐसे में उन्होंने अपनी बेटी नसरीन की तरफ देखा और दोनों की आंखों में आंसू भर गए. आखिर वे मौत से जंग हार गए. पूरी फिल्म इंडस्ट्री ने जताया शोक - पहली बार किसी कलाकार के लिए दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया. रफ़ी एक गायक से भी बढ़कर थे, वे एक विनम्र इंसान, जो साथी कलाकारों का सम्मान करते थे.मोहम्मद रफ़ी सिर्फ एक गायक नहीं थे, वे एक संगीतमय यात्रा थे और आज भी हैं , एक भावना जो पीढ़ियों तक गूंजती रहती है. उनकी आवाज यूं ही नहीं सुनी जाती है, इसे आत्मा के भीतर गहराई से महसूस किया जाता है. आज भी, जब उनके गाने बजते हैं, तो समय मानो रुक जाता है, और यादें ताज़ा हो जाती हैं - एक ऐसी आवाज़ का प्रमाण जो वास्तव में अमर थी. रफी साहब के कुछ अमर कालजयी गीत:-- "लिखे जो ख़त तुझे, "एहसान तेरा होगा मुझ पर, तू इस तरह से मेरी जिंदगी मे,चाहूंगा मैं तुझे,चौदहवीं का चांद हो,दिल का भंवर करे पुकार,-तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं,मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,आज मौसम बड़ा बेईमान है, पुकारता चला हूं मैं,ये रेशमी जुल्फे, झनकझनक तोरी बाजे, मन तड़पत हरि दर्शन - - - लिखते लिखते पन्ने भर जाएंगे, सात हजार गीत कैसे लिखूँ? 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