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Film Emergency Review: इंदिरा गांधी खलनायिका नहीं...

अभिनेत्री से लेखक व निर्देशक बनी कंगना रनौत की फिल्म 'इमरजेंसी' आज सत्रह जनवरी को रिलीज हुई है. जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी का मुख्य किरदार भी निभाया है...

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Film Emergency Review इंदिरा गांधी खलनायिका नहीं...
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निर्माता: कंगना रनौत, उमेश कुमार बंसल और रेणु पिट्टी
लेखक: कंगना रनौट, रितेश शाह, तनवी केसरी पसुमर्थी
निर्देशक: कंगना रनौट
कलाकार: कंगना रानौट, अनुपम खेर, श्रेयस तलपड़े, अशोक छाबरा, महेंद्र चैधरी, विशाक नायर, मिलिंद सोमण, सतीश कौशिक, अधीर भट्ट
अवधि: दो घंटे 26 मिनट

रेटिंगः ढाई स्टार

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अभिनेत्री से लेखक व निर्देशक बनी कंगना रनौत की फिल्म 'इमरजेंसी' आज सत्रह जनवरी को रिलीज हुई है. जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी का मुख्य किरदार भी निभाया है. फिल्म का नाम 'इमरजेंसी' है, जिससे यह आभास लगाया जा सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी ने 26 जून 1975 को देश में जो इमरजेंसी/आपातकाल लगाया था. उसी के खिलाफ यह फिल्म होगी, मगर ऐसा नहीं है. यह फिल्म इंदिरा गांधी जब सात आठ साल की थी, तब से उनकी मृत्यु होने तक की कहानी है. जिसमें उनके निजी व राजनैतिक जीवन के सभी प्रमुख घटनाक्रमों का समावेश है. कंगना रानौट पिछले कई वर्षों से हिंदू वादी विचार धारा व भाजपा समर्थक होने का इजहार करती आयी हैं और अब तो वह भाजपा की सांसद भी हैं. लेकिन उन्होने इस फिल्म को निस्पक्षता के साथ बनाया है. उन पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप नही लगाया जा सकता. कंगना रानौट ने इस फिल्म में बचपन से इंदिरा गांधी के स्वभाव के साथ ही इस बात को भी रेखांकित किया है कि उनके शासन काल में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए वह सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं थी. कुल मिलाकर सुखद बात यह है कि कंगना की इस फिल्म में इंदिरा गांधी खलनायिका नहीं है. यह फिल्म ओमी कपूर की किताब 'इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री' के अलावा जयंत वसंत सिन्हा की किताब पर आधारित है.

स्टोरी:

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फिल्म शुरू होती है आनंद, इलहाबाद से, जब इंदिरा गांधी उर्फ इंदू महज सात आठ वर्ष की थी. घर में कई महिला इकट्ठा हैं और उस वक्त इंदू की बुआ व जवाहर लाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी नौकर के माध्यम से इंदू की मां को घर के अंदर कमरे में जाने के लिए कहती हैं. यह बात इंदू को अच्छी नहीं लगती. वह अपने पिता जवाहर से कहती हैं कि बुआ को घर से बाहर कर दें.. जवाहर लाल कहते हैं कि यह काम तो दादा जी कर सकते हैं, घर तो उनका है. इंदू अपने दादा मोतीलाल नेहरु के पास जाती है, तो दादा जी इंदू को ताकत व सत्ता की बात समझाते हैं. फिर कहानी सीधे आसाम पहुँच जाती है, जिसे युद्ध के चलते चीन को सौंपकर जवाहरलाल नेहरू चीन को खुश करना चाहते हैं, मगर इंदिरा गांधी आसाम पहुँचकर पूरे विश्व का ध्यान खींचकर चीन को वापस जाने मजबूर करती हैं. वहां से कई घटनाक्रम घटित होते हैं. 1971 के भारत-पाक युद्ध तक, अनुभवी जय प्रकाश नारायण (अनुपम खेर) और अटल बिहारी वाजपेयी (श्रेयस तलपड़े) जैसे विपक्षी नेताओं द्वारा भी गांधीजी का सम्मान किया जाता था. हालाँकि, चार साल बाद, उसने उनमें से अधिकांश को सलाखों के पीछे डाल दिया. मगर आपातकाल हटने के बाद जनता पार्टी की सरकार बनने व उसके गिरने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो संजय गांधी का अपनी मां से भी मिलना मुश्किल हो गया था. उसके बाद भिंडरावाला, आपरेशन ब्लू स्टार व फिर अपने ही घर में अपने ही सुरक्षा कर्मियों द्वारा मारे जाने तक कहानी चलती है.

रिव्यू:

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लगभग 65 साल की कहानी को दो घंटे 26 मिनट में समेटने के चक्कर में फिल्म की पटकथा काफी कमजोर होने के साथ ही इंटरवल से पहले घटिया डाक्यूमेंट्री फिल्म का अहसास कराती है. इंटरवल के बाद फिल्म कुछ ठीक होती है. फिल्म में में इंदिरा का उत्थान, उसके बाद उनका आत्म-विनाशकारी चरण, और फिर मुक्ति. लेकिन सात आठ वर्ष की इंदिरा उर्फ इंदू के मन में अपनी बुआ विजयलक्ष्मी पंडित को लेकर जो विचार है, जिस तरह का इंदू का स्वभाव है, वह बाद में उनके जीवन व राजनीति में किस तरह से फलीभूत होता है, इसे ठीक से लेखक व निर्देशक चित्रित नहीं कर पाए. इंदिरा के पिता जवाहर लाल नेहरु का उनके प्रति व्यवहार, आसाम का निदान निकाल कर जवाहरलाल को शर्मिंदगी से बचाने के बावजूद जवाहर लाल का अपनी बेटी इंदिरा से खुश न होना कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व को अलग ढंग से गढ़ता है, इसे भी लेखक व निर्देशक सही परिप्रेक्ष्य में चित्रित नही कर पाए. राजनीति में आने के बाद सत्ता या यॅूं कहें कि प्रधानमंत्री बनने के लालच में अपने ही दल के अंदर व विपक्ष के नेताओं का विरोध, पुत्र मोह के अलावा छोटे उद्दंड, गुस्सैल बेटे संजय गांधी द्वारा मां के प्रधानमंत्री होने का फायदा उठाते हुए हर निर्णय स्वयं लेते हुए उन्हें अमली जामा पहनाने से जिस तरह एक वक्त में इंदिरा के अंदर उसके प्रति भी विरक्ति आती है, इसे फिल्म में  खूबसूरती से चित्रित किया गया है. फिल्म देखकर अहसास होता है कि कंगना ने मेहनत व ईमानदारी से काम किया है, लेकिन हर काम को खुद ही कर लेने की जिद के चलते बहुत कुछ गड़बड़ हो गया. कई तथ्य सही ढंग से नहीं रख पायी. किरदारों के अनुरूप कलाकारों का चयन तो बहुत ही गलत है, कई जगह कलाकार अपने किरदारों के लोकप्रिय मैनेरिजम को पकड़ने के चलते नौटंकी व मिमिक्री करते हुए नजर आते हैं. नाम के अनुसार इमरजेंसी में इंदिरा द्वारा की गयी ज्यादतियों की बजाय इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को उभरती है. इंदिरा गांधाी देश को लेकर एक अच्छी सोच रखने वाली साहसी राजनेता, दबंग महिला थी, जो कि सिनेमा के परदे पर उभरकर नहीं आता. यह लेखक व निर्देशक दोनों की बहुत बडी गलती है. फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री के सामाजिक, राजनीतिक और यहां तक कि व्यक्तिगत जीवन पर एक संतुलित दृष्टिकोण पेश करती है. फिल्म का एक संवाद 'जब प्रशंसा दुख देने लगती है, तो यह इस बात का प्रतिबिंब है कि चीजें सही नहीं हैं.' अपने आप बहुत कुछ कह जाती है. एकमात्र महिला प्रधान मंत्री के को बुद्धिमानी से उन चुनौतियों पर आपका ध्यान आकर्षित करती हैं जिनका गांधी को उनकी पार्टी और बड़े राजनीतिक स्पेक्ट्रम दोनों के भीतर सामना करना पड़ा. शुरुआत में वह एक नौसिखिया थीं, लेकिन गांधी को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय राजनीति दोनों में अपनी छाप छोड़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. बमुश्किल मूल्यांकन के अनुसार, गांधी ने अपनी पहली बैठकों में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और फ्रांसीसी राष्ट्रपति वालेरी गिस्कार्ड पर गहरी छाप छोड़ी.

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फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ रात्रि भोज करते समय परोसे गए केक के टुकड़े को पैक कराकर ले जाने की बात कहने वाली इंदिरा की त्वरित बुद्धि को नजरअंदाज कर उन्हें 'गुड़िया' कहकर पुकारने वाले जे पी नारायण से मिलने पहुंची इंदिरा और उसके बाद बदली देश की राजनीति की अंतर्धारा ऐसी है कि देश की सियासत की जरा सी भी समझ रखने वाले के रोएं ये फिल्म देखते समय कई बार खड़े हो सकते हैं. कंगना रनौत से इस फिल्म को लेकर ज्यादा उम्मीदें शायद ही किसी ने पाली हों. इसे देखने वाले बीजेपी नेता भी फिल्म के उसी हिस्से की बात ज्यादा कर रहे हैं, जहां इमरजेंसी के दौरान हुए अत्याचारों की बात है, लेकिन ये हिस्सा फिल्म में बस कुछ मिनट का ही है.

कम से कम कंगना रनौट ने यह बात साफ कर दी कि कलाकार या सिनेमाकर्मी के रूप में उनकी सोच निस्पक्ष है. निर्देशक के तौर पर भी कंगना रनौट काफी कमजोर साबित हुई हैं. फिल्म में इंदिरा गांधी के जीवन के व्यक्तिगत अध्याय हैं जो दर्शकों को आकर्षित करेंगे. चाहे वह उसके पिता हों, पति (फ़िरोज़), बड़ा बेटा संजय, सबसे अच्छी दोस्त पुपुल जयकर (महिमा चैधरी), उसके रिश्तों की गतिशीलता में बदलाव से उसके भावनात्मक, कमजोर पक्ष का पता चलता है. इंदिरा-फ़िरोज़ समीकरण को संक्षेप में छुआ गया है, और कुछ खुलासे ख़राब प्रतीत होते हैं. सबसे विवादास्पद उनके छोटे बेटे, संजय गांधी (विशाख नायर) के साथ उनका समीकरण है, जिसे आपातकाल का मुख्य वास्तुकार कहा जाता था, विशेष रूप से विवादास्पद जबरन नसबंदी का मामला. लेकिन फिल्म राजीव गांधी व सोनिया गांधी पर पूरी तरह से खामोश रहती है. अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार मानते हैं कि इंदिरा गांधी एक महान नेता थीं, लेकिन आपातकाल सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी. पर कंगना रनौट की यह फिल्म इंदिरा गांधी को खलनायिका की तरह पेश नहीं करती, बल्कि वह उन हालातों व संजय गांधी को ही कटघरे में खड़ी करती हैं. फिल्म में एक नारा लगता है 'आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को वापस लाएंगे'. ये उस देश में लगा नारा है जिसमें अब मुफ्त का गेंहू आधे से ज्यादा आबादी को बंट रहा है.

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इंदिरा गांधी के बारे में जो कांग्रेसी विस्तार से न जानते हों, उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए और देश के हर जागरूक नागरिक को यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इंदिरा गांधी नाम की जो महिला इस देश में जन्मी, उसने कैसे दुनिया की दिग्गज ताकतों की नाक के नीचे दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का खाका खींच दिया. कैमरामैन टेटसु नगाटा का कमा काफी सराीनीय है.

एक्टिंग:

इंदिरा गांधी के किरदार में खुद कंगना रानौट फिट नही है. वह पूरी फिल्म में कैरीकेचर ही नजर आती हैं. कई जगह मिमिक्री आर्टिस्ट बन गयी हैं. उन पर प्रोस्थेटिक मेकअप भी खराब लगता है. इंदिरा गांधी आइरन लेडी थीं, लेकिन कंगना के अभिनय से यह बात कहीं नजर नहीं आती. इंदिरा गांधी की करीबी,दोस्त व सलाह कार पुपुल जयकर के किरदार में महिमा चैधरी का अभिनय सराहनीय है. श्रेयस तलपड़े, सतीश कौशिक, अनुपम खेर आदि अभिनेता के तौर पर अच्छे हैं, मगर इनमें से एक भी कलाकार अपने किरदार के साथ न्याय नही कर पाया. क्योंकि वह उस किरदार के उपयुक्त ही नहीं है.

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