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REVIEW Binny And Family: कमियों के बावजूद मकसदपूर्ण फिल्म...

दो पीढ़ियों के बीच सोच व वैचारिक मतभेद को लेकर कई फिल्में बन चुकी है, पर पहली बार लेखक व निर्देशक संजय त्रिपाठी तीन पीढ़ियों के बीच टकराव व फिर उनके बीच सामंजस्य कैसे बैठाया जा सकता है...

यहत
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रेटिंगः ढाई स्टार
निर्माताः एकता कपूर, महावीर जैन, शंकर खेतान, एस.के अहलूवालिया व अन्य
लेखकः संजय त्रिपाठी और नमन त्रिपाठी
निर्देशक: संजय त्रिपाठी
कलाकारः अंजनी धवन, पंकज कपूर, राजेश कुमार, हिमानी शिवपुरी, चारू शंकर, नमन त्रिपाठी, जेमी ली रीचर, समय जोनस, रूचिका जेन, रवि मुल्तान, गंधार बब्रेव अन्य
अवधिः दो घंटे 19 मिनट

दो पीढ़ियों के बीच सोच व वैचारिक मतभेद को लेकर कई फिल्में बन चुकी है, पर पहली बार लेखक व निर्देशक संजय त्रिपाठी तीन पीढ़ियों के बीच टकराव व फिर उनके बीच सामंजस्य कैसे बैठाया जा सकता है, इस पर बात करने वाली एक मकसदपूर्ण पारिवारिक फिल्म "बिन्नी एंड फैमिली" लेकर आए हैं. फिल्मकार ने इस फिल्म मे पोती व दादा/बाबा के बीच संबंधों पर ज्यादा जोर देती हैं,जबकि पोती पूरी तरह से लंदन में पल रही अतायाधुनकी है और दादा जी पूरी तरह से रूढ़िवादी भारतीय. दो घंटे 19 मिनट की अवधि की यह फिल्म इंटरवल से पहले तो जबरदस्त तरीके से निराश करती है,मगर इंटरवल के बाद अचानक कहानी नया रंग लेती है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी शुरू होती है लंदन से,जहां पटना, बिहार से आया हुआ एक परिवार रहता है. इस परिवार के मुखिया विनय (राजेश कुमार ) हैं, जो कि कालेज में लेक्चरार हैं. उनकी पत्नी राधिका (चारू शंकर ) और उनकी टीनएजर अठारह साल की बेटी बिन्नी (अंजिनी धवन ) है. विनय की माता (हिमानी शिवपुरी ) पिता (पंकज कपूर ) पटना, बिहार में रहते है. बेटी बिन्नी नए परिवेश में अपने परिवार के सीमित साधनों के बीच खुद को एडजस्ट करते हुए संघर्षशील और विद्रोही किशोरी बन जाती हैं. उसे माता पिता का बार बार टोकना पसंद नही है. उसे नए परिवेश के अनुसार दोस्तों के साथ देर रात तक पार्टी करना व शराब पीना है. वह घर के अंदर अपने लिए एक अलग कमरा चाहती है, जिसके अंदर कोई दूसरा शख्स उसकी कार्यशेली में व्यवधान न डाले. यह परिवार पूरी तरह से आदर्शवादी हो, ऐसा भी नही है. घर के अंदर ही बार कोना है, विनय व राधिका दोनों को शराब पीने व डांस करने का शौक है. विनय सिगरेट भी पीते है. विनय के माता पिता रूढ़िवादी और आदर्शवादी परंपराओें मे ही यकीन करते हैं. वह हर साल दो माह के लिए अपने बेटे विनय के पास रहने आते है. उस दौरान विनय व राधिका पूरे घर को बदलकर एकदम भारतीय संस्कारी व धार्मिक बना देते हैं. घर का बार बुक शेल्फ बन जाता है. दीवारों पर टंगी पार्टी की फोटो नदारद हो जाती हैं. विनय व राधिका की शॉट ड्रेसेज वापस अलमारी में पहुंच जाती हैं. बिन्नी के कमरे की शक्ल सूरत भी बदल जाती है. घर बड़ा नही है, इसलिए बिन्नी के दादा व दादी बिन्नी के कमरे में ठहरते हैं. बिन्नी की जीवन शेली मे अचानक बाधा पड़ती है. बिन्नी को भी एक आदर्श वादी बेटी के रूप में ही पेश आना पड़ता है. बिन्नी की लेट नाइट पार्टी बंद हो जाती है, क्योंकि दादा जी के मुताबिक, औरत जात इतनी देर तक बाहर रहे और कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो वह कहां मुंह दिखाएंगे. दादी उसकी रिप्ड जींस को सुई-धागे से सिल देती हैं. कुल मिलाकर, उसके पूरे लाइफस्टाइल की वाट लग जाती है. इसलिए वह दिन गिनती रहती है कि कब दो माह बीते और दादा-दादी वापस जाएं.इस बार दादा दादी के वापस जाने के बाद बिन्नी व उसके माता पिता की जिंदगी पुराने ढर्रे पर वापस लौटती है, तभी बिन्नी को पता चलता है कि दादी बहुत बीमार हैं, इसलिए इलाज के लिए दादा दादी वापस आ रहे हैं. तो इस बार बिन्नी का गुस्सा फूट पड़ता हैं. वह उन्हें वापस ना लाने की जिद पकड़ लेती है. राधिका चाहती है कि बेटी पर ध्यान दिया जाए. विनय झूठ बोलकर अपनी मां इलाज पटना मे ही कराने की बात कर खुद भी पटना जाते है. मगर विनय की मां यानी कि बिन्नी की दादी की मौत हो जाती है. अब बिन्नी इसके लिए खुद को दोषी मानती है. और उसकी पूरी सोच ही बदल जाती है. कभी जिस दादा के साथ वह एक मिनट भी नहीं बैठ पाती थी, अब वह उनके सबसे अच्छा दोस्त बन जाती हैं. उनके साथ वह शॉपिंग से लेकर प्यार के फलसफों तक पर दिल खोलकर बातें करने लगती है.

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रिव्यूः

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इंटरवल से पहले का हिस्सा है,जिससे हर दशक का रिलेट कर पाना मुश्किल है. मगर इंटरवल के बाद पूरी फिल्म दशकों बंधकर रखती है. रूलाती भी है. मतलब फिल्मकार ने मेलोड्रामा जबरदस्त परोसा है. निर्देशक सजय त्रिपाठी ने बिना किसी उपदेशात्मक भाषणबाजी के इस बात को असरदार तरीके से रेखांकित किया है कि पीढ़ियों के अंतराल के चलते मतभेद होना स्वाभाविक है और इसकी मूल वजह यह है कि दो पीढियों के बीच आपसी बातचीत का अभाव. अगर हर इंसान अपनी उम्र को नजंदज कर अपनी पोती के साथ भी बातचीत करना शुरू करे,उन्हे भी दोस्त समझकर व्यवहार करे,तो सारे मतभेद दूर हो सकते हैं. जरुरत है कि सामने वाले को बदलने के साथ ही खुद के अंदर भी कुछ बदलाव लाया जाए. फिल्मकार ने इस बात को जोरदार तरीके से रेखांकित किया है कि हर इंसान को पीढ़ी का अंतर भूलकर एक दूसरे की बात को सुनना व समझना चाहिए. तभी दूरियां मिट सकती है. तथा  बड़ों के अनुभव और बच्चों की ऊर्जा की जुगलबंदी दोनों की जिंदगी में नए रंग भर सकती है. कई जगह पर पटकथा कमजोर है. इसके अलावा फिल्मकार का पीढ़ियों के अंतर को खत्म करने का जो मकसद है, कहानी जिस तरह से चलती है, वह बहुत कुछ कह जाती है. लेकिन अपने सारे किए कराए पर फिल्मकार ने एक द्रश्य जोड़कर पानी फेर दिया. फिल्म में पंकज कपूर का, डॉक्टर के पास हिमानी शिवपुरी की रिपोर्ट भेजकर राय मांगना और डाक्टर का जवाब की यदि उन्हे लंदन लेकर आते तो भी उन्हे बचाया नहीं जा सकता था, तब पंकज कपूर का अपने बेटे, बहू व पोती को माफ करना तथा पोती से कहना कि वह अपनी दादी की मौत के लिए खुद को दोषी न माने, गलत हो गया. बिन्नी और उनके बीच जो संबंध आपसी बातचीत, खुद को बदलने व मानवीय भावनाओं के उकरने से बना था,जो कि फिल्मकार का असली मसकद भी है, यही संदेश दशक तक जाना चाहिए, उस संदेश पर यह द्रश्य कुठाराघात कर देता है. इसके अलावा बिन्नी के पार्टी, नाटक रिहर्सल और बिहार वाले कई सीन दोहराव भरे लगते हैं. फिल्म का क्लायमेक्स प्रभावशाली नही है.

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एक्टिंगः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो बिन्नी के किरदार में अंजिनि धवन नौसीखिया कलाकार की बजाय काफी परिपक्व कलाकार के रूप में उभरी है. बिन्नी के दादा जी के किरदार में पंकज कपूर के अभिनय पर सवाल नही उठाया जा सकता है. वह तो अभिनय के गुरू हैं, मगर इस फिल्म में इंटरवल के बाद वह भाषा का मामला गड़बड़ा गया है. इंटरवल के बाद उनकी भाषा में बिहारी पुट कम नजर आता है. छोटे किरदार में हिमानी शिवपुरी एक बार फिर साबित कर देती है कि अभिनय में उनका कोेई सानी नही. विनय के किरदार में राजेश कुमार अपनी छाप छोड़ जाते है. इसके अलावा चारू शंकर, नमन त्रिपाठी का अभिनय ठीक ठाक है.

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