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रेटिंगः डेढ़ स्टार
निर्माता: धर्मा प्रोडक्शंस
लेखकः सोमिल शुक्ला, कैसर मुनीर, अरुण सिंह, जेहान हांडा
निर्देशकः कायोजे ईरानी
कलाकारः पृथ्वीराज सुकुमारन, काजोल, बोमन इरानी, इब्राहिम अली खान, रोहेड खान, अथर सिद्दीकी, जीतेंद्र जोशी, मिहिर आहूजा, के.सी. शंकर
अवधि: दो घंटे 17 मिनट
ओटीटी: जियो स्टार, 25 जुलाई से
भाषा: हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम व कन्नड़
बॉलीवुड के फिल्मकार लगातार अपने दिमागी दिवालियापन का सबूत देते रहते हैं. इन दिनों इनके निशाने पर इंसान की बीमारियां और विकलांगता है. हाल ही में विकलांगता पर आधारित आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ और अनुपम खेर की फिल्म ‘तन्वी द ग्रेट’ बुरी तरह से असफल हो चुकी हैं. तो वहीं अब करण जोहर की 25 जुलाई से ओटीटी प्लेटफॉर्म जियो स्टार पर स्ट्रीम हो रही फिल्म ‘सरजमींन’ में आतंकवाद से लड़ाई के साथ विकलांगता को कहानी के केंद्र में रखा है. फिल्म की कहानी तो देशभक्ति व पितृत्व को अपने सीने में समेटे हुए है, मगर विकलांग बच्चे को जिस क्रूरता से प्रताड़ित कराया गया है, वह उनकी विकृत मानसिकता का ही सबूत है. और यही बात इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी भी है. कुल मिलाकर यह ऐसा चूंचू का मुरब्बा है, जिसके लिए न कोई शोध किया गया और न ही कोई ठोस जानकारी इकट्ठा की गई. अगर लेखकीय टीम के सदस्यों ने अभिनेता शरद केलकर से ही बात की होती तो पता चल जाता कि हकलाहट कैसे दूर की जा सकती है.
स्टोरीः
कश्मीर में आतंकवाद की पृष्ठभूमि में फिल्म ‘सरजमींन’ की कहानी के केंद्र में कर्नल विजय मेनन (पृथ्वीराज सुकुमारन), उनकी पत्नी मेहर (काजोल) और बेटा हरमन (इब्राहिम अली खान) है. यदि गहराई से गौर करें, तो ये तीनों ही एक-दूसरे के विरोधी हैं. मेहर हमेशा अपने बेटे हरमन के साथ हैं. जबकि कर्नल विजय, अपने बेटे हरमन को पसंद नहीं करते, क्योंकि वह विकलांग है. डरपोक व कमजोर होने के साथ ही हकलाता है. जबकि कर्नल विजय अपने पिता की कठोरता के ही चलते आर्मी में कर्नल बन पाए हैं. कर्नल विजय को अपने देश के लिए प्यार बेशुमार है. वह कहता है कि ‘उसके लिए सरजमीन पहले है, बेटा बाद में.’ 2006 के बाद कश्मीर में आतंकवादी मोहसिन की हरकतें कम हो गई थीं, पर कुछ समय बाद अचानक मोहसिन की हरकतें तेज हुईं. तब कर्नल विजय मेनन अपने सहयोगी अहमद (जीतेंद्र जोशी) व टीम के अन्य सदस्यों के साथ आतंकवादियों पर नकेल कसने के लिए कार्रवाई करते हुए दो आतंकियों, आबिल और काबिल, को गिरफ्तार कर लेते हैं. काबिल को छुड़ाने के लिए आतंकवादी संगठन हरमन का अपहरण कर लेता है. मेहर की जिद के आगे झुककर कर्नल विजय, बेटे के बदले इन आतंकियों को छोड़ने को तैयार हो जाता है, मगर ऐन मौके पर देश के प्रति उसका कर्तव्य जाग जाता है. और वह हरमन को अपने साथ नहीं ला पाते. आठ साल बाद जब हरमन वापस आता है, तो वह युवा हो चुका है. अब वह हकलाता नहीं है. डरपोक भी नहीं है. आठ साल के दौरान विकलांगता के बावजूद उसे क्रूरता के साथ प्रताड़ित कर मजबूत व अति कठोर बना दिया गया है. उसके मन में अपने पिता के प्रति नफरत है. कर्नल विजय को शक है कि अब उनका बेटा हरमन पहले वाला हरमन नहीं है. लेकिन मेहर कर्नल की बातों को गलत बताती है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. और एक दिन वह आता है जब पिता-पुत्र यानी कर्नल विजय व हरमन एक-दूसरे के सामने बंदूक तानकर खड़े मिलते हैं. अब सवाल है कि आखिर जीत किसकी होगी?
रिव्यूः
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसका लेखन है. सोमिल शुक्ला, कैसर मुनीर, अरुण सिंह, जेहान हांडा- इन चारों लोगों ने मिलकर इस फिल्म की कहानी, पटकथा या संवाद लिखे हैं. मगर उनके लेखन से यह बात साफ तौर पर नजर आती है कि इनको मानवीय संबंधों व मानवता के अलावा भारतीय सेना को लेकर न कोई जानकारी है और न ही कोई समझ है. फिल्म ‘सरजमींन’ भावनात्मक झटका देती है, मगर कमजोर लेखन के चलते दर्शकों के दिलों तक नहीं पहुँच पाती. आठ साल बाद हरमन की वापसी एक गहरी पहेली है, इस पहेली को समझने में गहराई मिल सकती थी, लेकिन लेखकीय टीम ने बंटाधार कर दिया. फिल्म के क्लाइमेक्स में एक बहुत बड़ा रहस्य सामने आता है, पर वह अधूरा ही है. तमाम दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देखते हुए दर्शक स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है और सोचता है कि सेना में ऐसा थोड़े ही होता है. क्या आर्मी अफसरों की कॉलोनी में अचानक कोई दुकान खोल सकती है? आर्मी के प्रोटोकॉल की जमकर धज्जियाँ उड़ाई गई हैं. मसलन, दो वांटेड आतंकी को छोड़ने का फैसला कर्नल विजय अकेले कर लेते हैं. न उन्हें किसी से पूछने की जरूरत है, न सलाह-मशविरे की. इस दौरान एक आतंकी फरार हो जाता है, पर किसी को फर्क नहीं पड़ता. आठ साल बाद जब सरहद पार से कुछ लोग वापस आते हैं, तो उनमें एक दाढ़ी रखे हुए लड़का अपना नाम हरमन विजय मेनन बताता है और कर्नल विजय मेनन बिना किसी तरह की गहन जांच-पड़ताल किए उसे अपने घर ले आते हैं. बेटे के मोह में मेहर जिस तरह अपने देशभक्त पति कर्नल विजय मेनन के ऑफिस में जाकर उसे तमाचा मारती है, ऐसा कैसे हो सकता है? क्योंकि आर्मी अफसर की पत्नियाँ तो देश के लिए बहुत कुछ न्योछावर करती रहती हैं. कर्नल विजय मेनन की तमाम गतिविधियाँ शक के दायरे में आती हैं और वह आर्मी प्रोटोकॉल का खुला उल्लंघन करते हैं. इसे सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र दे दिया, यह बात भी समझ से परे है. निर्देशक कायोजे ईरानी बुरी तरह से मात खा गए हैं.
एक्टिंग:
कर्नल विजय के किरदार में पृथ्वीराज सुकुमारन एक पिता, एक पति और देशभक्त आर्मी अफसर की भावनाओं को ठीक से व्यक्त करने में सफल रहे हैं. काजोल बेहतरीन अभिनेत्री हैं, पर एक्शन दृश्यों में वह अजीब सी लगती हैं. ‘नादानियाँ’ के बाद इब्राहिम अली खान की यह दूसरी फिल्म है और इस फिल्म से भी एक ही बात उभरकर आती है कि अभिनय उनके वश की बात नहीं. बोमन इरानी के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं, उन्होंने यह फिल्म क्यों की? यह बात समझ से परे है. अहमद के किरदार में जीतेंद्र जोशी का अभिनय तो ठीक-ठाक है, पर उनके किरदार को भी ठीक से लिखा नहीं गया.
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