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Remembering Bharat Vyas : मैं फिल्मी धुनों पर गीत नहीं लिखता

गपशप: राजस्थान ऐतिहासिक महत्व का गौरवपूर्ण स्थान ही नहीं बल्कि साहित्य कला और संस्कृति की जन्मभूमि भी है. जहां सदियों से वीरता, त्याग और बलिदानकी परम्परा रही है...

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By Mayapuri Desk
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Remembering Bharat Vyas  मैं फिल्मी धुनों पर गीत नहीं लिखता
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राजस्थान ऐतिहासिक महत्व का गौरवपूर्ण स्थान ही नहीं बल्कि साहित्य कला और संस्कृति की जन्मभूमि भी है. जहां सदियों से वीरता, त्याग और बलिदानकी परम्परा रही है. ऐसी पवित्र मिट्टी ने एक ओर जहों महारानी पद्मावती, राणा संग्राम सिंह और राणा प्रताप जैसे शूरवीरों को जन्म दिया, वहां कवि महाराज पूथ्वीराज और महाकवियत्री मीरा जैसी एतिहासिक और साहित्यिक रत्न भी दिये हैं. उसी गौरवशाली राजस्थान के एक कविराज भरत व्यास से मैं उनके निवास स्थान ‘भरत भवन’  में मिला.

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भरत व्यास वहीं कवि हैं जिन्होंने आपके लिए निम्नलिखित गीतों की रचना की हैं.

जरा सामने तो आओ छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज है. (जन्म जन्म के फेरे)

ऐ मालिक तेरे बंदे हम, (दो आंखें, बारह हाथ)

कह दो कोई न करे यहां प्यार. (गूंज उठी शहनाई)

आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे, मेरे गीत बुलाते हैं. (सम्राट चन्द्र गुप्त)

इतनी जल्दी क्या है गौरी साजन के घर जाने की. (सती सावित्री)

प्रेम की गंगा बहाते चलो (संत ज्ञानेश्वर)

कैद में है बुलबुल सैयाद मुस्कुराये (बेदर्द जमाना क्या जाने)

सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन (सारंगा)

ये कौन चित्रकार है? (बूंद जो बन गई मोती)

मेरी चिट्ठी तेरे नाम, सुन ले बापू यह पैगाम (बालक)

यह माटी सभी की कहानी कहेगी. (नवरंग)

भरत जी से मेरा पहला प्रश्न उन के फिल्मी - जीवन के बारे में था.

आप के फिल्मी जीवन का आरंभ कब और किस तरह से हुआ?

'विधि का विधान भी अजीब है. वह जहां रोजी लिख देता है, वहीं से उसे रोटी मिलती है. भरत जी ने अपने भूतकाल के पृष्ठ अपने सामने खोलते हुए कहा,

''मैं जब दो साल का था मेरे पिता जी का देहांत हो गया. हम चार बहन भाई थे. बहन का देहांत हो गया था. हम तीन भाई शेष बचे थे. और हमारी परवरिश का भार माता जी के कंधों पर आ पड़ा. इतना कठिन भार वह सहन न कर सकीं और एक दिन वह भी हमें अकेला छोड़कर परलोक सिधार गईं. अब हमारे दादा जी ने हमें अपनी छत्र-छाया में लिया. बड़े भाई चन्द्र व्यास ने बीकानेर में लकड़ी का कारोबार कर लिया. छोटे भाई बी.एम. व्यास फिल्म-लाईन में आ गए. चरू में मैंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की तो बड़े भाई ने मुझे अपने पास बुला लिया. लेकिन मेरा उनके साथ मन नहीं लगा और मैं कोलकाता चला गया. और वहां काॅलेज में दाखिला ले लिया. बचपन से कविता लिखने का शौक था. स्कूल के जमाने में ही मेरा काफी नाम हो चुका था. इसीलिए कि पढ़ाई के खर्च इसी शौक ने पूरे किये. वह इस तरह कि मैंने कोलकाता पहुंच कर कवि-सम्मेलनों में भाग लेना शुरू कर दिया. और देखते ही देखते इतना अधिक नाम हो गया कि कोलकाता की एक ग्रामोफोन कम्पनी ने मेरे कुछ गीत रिकॉर्ड कर लिए. वह गीत बड़े लोकप्रिय हुए और मैं भारत भर में प्रसिद्ध हो गया. उस वक्त बी.एम. व्यास ने बतौर निर्माता-निर्देशक फिल्म निर्माण की योजना बनाई और मेरा पहला गीत 10 रुपये में खरीदा, लेकिन न वह फिल्म ही बनी और न मेरा गाना रिकाॅर्ड हुआ. इस प्रकार मुंबई तो पहुंच गया किन्तु बात न बनी. उस जमाने में पूना फिल्मों का एक बड़ा सैन्टर था. वहां की शालीमार नामक फिल्म कम्पनी का बड़ा नाम था. डब्ल्यू.जेड. अहमद उसके मालिक थे. वह बडत्रे साहित्यिक आदमी थे. उनके यहां जोश मलीहाबादी, कृष्ण चन्द्र, रामानंद सागर, अख्तर उल-इमान जैसे बड़े शायर जमा थे. मैं भी उसी कम्पनी में नियुक्त हो गया. और इस तरह शालीमार से मेरे फिल्मी जीवन का आरम्भ हुआ. उस संस्था के लिए मैं 'सावन आया रे', 'रिमझिम', 'बिजली' आदि फिल्मों के गीत लिखे. लेकिन जब देश का बंटवारा हुआ तो वह कम्पनी बंद हो गई. और मैं पूना से चेन्नई पहुंच गया. जहां मैंने जैमिनी पिक्चर को जवाइन कर लिया. और उनके लिए पहली बार 'चन्द्र लेखा' के गीत लिखे.''

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आप गीत किस प्रकार लिखते हैं? अर्थात धुन पर लिखते हैं या....

भरत जी, मेरी बात काट कर बोले, "मैं पहले गीत लिखता हूं बाद में संगीतकार उसकी धुन बनाता है यह मेरी कमजोरी है. मेरे सारे हिट गीत इसी तरह लिखे गए हैं. आपकी 'नवरंग' के गीत तो याद ही होंगे. 'आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाए तेरी मेरी बात आधी.', 'न कोई रहा है न कोई रहेगा, मेरा देश आजाद होके रहेगा.', 'कविराज कविता के कान मत मरोड़ो, धंधे की कुछ बात करो पैसे जोड़ो.' और होली गीत 'अटक-मटक पनघट पर एक नार नवेली' आदि सभी गीत हिट हुए थे."

क्या आप इस बात से सहमत हैं कि आज के गीतों में कविता का और तुकबंदी अधिक होती है. इसका क्या कारण है?

इसका कारण दर्शक हैं. वे लोग छिछोरे गीत अधिक पसन्द करने लगे हैं. इसीलिए अच्छे गीतों की अपेक्षा राॅक-एन-रोल जैसे विदेशी टाइप के गीतों का चलन ज्यादा हो गया है. लेकिन हल्ला-गुल्ला गीत शराब जैसे हैं. लोग भले ही शराब को अपना लें किन्तु अच्छी शुद्ध और पौष्टिक चीज तो दूध ही है. लेकिन ऐसे गीत वक्ती तौर पर पसन्द किए जाते हैं. किन्तु जल्दी ही भुला दिये जाते हैं. एक एंगलो-इंडियन लड़की देखकर हमारे दिल में भले ही यह भाव जागृत हो जाए कि वह खूबसूरत है. लेकिन उसे घूंघट निकलवा कर घर में बहू-बेटी बनाकर लाने की इच्छा नहीं होती. यही हाल आज हमारी फिल्मों के पाश्चात्य रंग के संगीत का है. मैंने इस मामले में कभी समझौता नहीं किया. जब मैं फिल्म लाइन में आया था उस वक्त फिल्मों पर उर्दू शायरी छाई हुई थी. निर्माता गजलों के अलावा सस्ते और सतही किस्म के गीत- 'आना मेरी जान सनडे के सनडे', 'जवानी की रेल चली जाए रे' जैसे गीत लिखवाते थे. लेकिन ऐसे समय में भी मैंने 'परिणिता' में 'चली राधे रानी, अखियों में पानी, अपने मोहन से मुखड़ा मोड़ के', जैसे गीत लिखे तो निर्माता ने गीत रिकॉर्ड करने से इन्कार कर दिया. लेकिन एक दिन जादू सर चढ़ कर बोला और निर्माता को वह गीत रिकॉर्ड करना ही पड़ा और रिलीज के बाद वही गीत सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ. वह गीत आज भी लोग प्रेम से सुनते हैं जैसे पहले सुनते थे. किन्तु 'आना मेरी जान सनडे के सनडे' भूल गए हैं.

क्या आपके ख्याल से संगीतकार और गीतकार के संबंध कैसे होने चाहिए कि हिट संगीत तैयार हो सके?

दोनों में पारस्परिक समझ होनी आवश्यक है. इसके बाद दोनों के मेल से जो गीत जन्म लेता है वह दिल को छू लेता है. अगर धुन रचना शास्त्रीय राग पर है तो बोल भी शास्त्रीय होने चाहिए. जैसे कि बसंद देसाई ने 'झनक-झनक पायल बाजे' आदि फिल्मों में संगीत दिया था. और एस.एन. त्रिपाठी ने 'जन्म जन्म के फेरे' आदि में दिया था. हम लोगों में तालमेल ऐसा बैठा हुआ है कि हम लोग जब भी साथ काम करते हैं तो एक दूसरे में खो जाते हैं. हम लोगों ने जितनी फिल्मों में साथ काम किया वे सारी हिट हुई हैं. 'गूंज उठी शहनाई' के गीत 'तेरे सुर और मेरे गीत, दोनों मिलकर बनेंगे प्रीत', 'दिल का खिलौना हाय टूट गया.' आदि गीत आज भी जवान हैं.

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गूंज उठी शहनाई

आपके बारे में सुना है कि आप बहुत जल्द क्रुध हो जाते हैं. ऐसी सूरत में निर्माता और संगीतकार को गीत बोल बदलवाने में काफी कठिनाई पेश आती होगी...

गुस्से वाली बात सच है. मैं बहुत जल्द रोष में आ जाता हूं. लेकिन यह गुस्सा ही मेरी सम्पति है बिना इसके वीर रस सृजना हो ही नहीं सकती. एक इसलिए भी मुझे गुस्सा आ जाता है कि मैं तो लगन से काम कर रहा हूं. और सामने वाला उसमें रूचि न ले तो ऐसी स्थिति में गुस्सा होना स्वाभाविक बात है लेकिन फिर हंसते हुए बोले. मेरी पीठ थपथपाओ! अब मुझे बोल नहीं बदलने पड़ते. वरना एक समय था कि निर्माता बोल बदलने की फरमाइश किया करते थे. एक दफा तो कमाल ही हो गया. एक धार्मिक फिल्मों के निर्माता ने मुझे गीत लिखने के लिए बुलाया. मैं वहां गया तो उन्होंने मुझे एक कागज देते हुए कहा. रात को मेरे दिमाग में एक गीत आया था. जरा उसे देख लें. मैंने मुंह पर तो वाह-वाह कर दी लेकिन वहां से आने के बाद पलट कर उधर का रूख नहीं किया. इसी प्रकार एक और निर्माता (जो बड़े सयाने माने जाते हैं और कई हिट फिल्में बना चुके हैं) ने मुझे बुलाया मैं उनके पास गया तो उपदेश देने लगे. गीतों का आइडिया मैं आपको देता हूं आप उस पर गीत लिखकर ले आइए. मैंने कहा मैं डाॅक्टर हूं आप मरीज हैं. अगर आप ही मुझे उपदेश दे तो काम कैसे चलेगा? दरअसल इस इंडस्ट्री में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो गीतकार ही क्या, कैमरामैन आदि के कामों में दखल देना अपना अधिकार समझते हैं. भईया, अब और आगे कुछ मत पूछना काफी बातें हो गई हैं. मेरी तबियत ठीक नहीं है. इंजैक्शन लेकर बैठा हुआ हूं.

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