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-जैड. ए. जौहर
महेश भट्ट एक बहुत बड़ा नाम है. उस नाम से जुड़े लोगों से लोगों की अपेक्षाए बढ़ जाती है. वह चाहें आर्टिस्ट हो या निर्देशक! इसीलिए "बम्बई का बाबू" के निर्देशक विक्रम भट्ट से वेस्टन के ऑफिस में मुलाकात हुई तो हमने पूछा:-
"महेश भट्ट के सहायक के नाते आपसे जो उम्मीदें लोगों को थीं, वह पूरी नहीं हो सकी. उसकी क्या वजह है?"
"यह कौन जानता है कि मैं कौन हूं? कोई महेश भट्ट का बेटा समझता है, कोई भाई तो कोई भतीजा! लोग सिर्फ महेश भट्ट और सुभाष घई का नाम देख कर जानते हैं. मुझे तो फिल्में मिली वह बनाई. अब क्यों नहीं चली यह मैं क्या जानूं? अब "बम्बई का बाबू" आ रही है. इसका क्या हश्र होता है देखते हैं." विक्रम भट्ट ने कहा.
"अपनी फिल्म की कहानी का चयन खुद करते हैं या निर्माता?" हमने पूछा.
"मैं खुद करता हूं" विक्रम भट्ट ने कहा.
"बम्बई का बाबू" की कहानी में क्या खास बात है जो आपने इसको बनाना पसंद किया?" हमने पूछा.
"इसकी कहानी में बहुत सी बातें है. जैसे एक इंसान शक्तिशाली कैसे बनता है? वह आपकी कमजोरी पकड़ लेता है. जैसे अंग्रेजों ने डिवाइड एन्ड रूल के तहत हिन्दु और मुसलमान को लड़ाया और राज किया अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए सत्ता जमाने के लिए मजहब को एक्सप्लाइट करें या सेक्स को ! इस कहानी का चयन इसलिए किया था कि मुझे लगा था कि एक ऐसी फिल्म बनानी चाहिए कि फिल्म के सारे पाॅजेटिव कैरेक्टर यह कहें कि यह सब आपको बेवकूफ बना रहे हैं. आपको आपस में उलझा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. हिन्दू मुसलमान कुछ नहीं है. सब ठीक हैं इस हिसाब से एक संवाद भी फिल्म में था कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं होता. यहां सब गरीब होते हैं. गरीबों की लाशों की कोई कीमत नहीं होती. जिसे सैन्सर ने मेरे विरोध के बावजूद काट दिया. जिस के कारण मैं जो कहना चाहता था उसका आधा असर खत्म हो गया." विक्रम भट्ट ने कहा.
"सैन्सर को क्या आपत्ति थी?" हमने पूछा.
"उनका कहना था कि हिन्दू मुसलमान शब्द इस्तेमाल मत करो. कहने को हमें फ्रीडम आॅफ एक्सप्रेशन है किन्तु है नहीं . जो फ्रीडम हमें मिली हुई है वह ऐसी है जैसे किसी जानवर के गले में रस्सी बाँध दें तो जहां रस्सी जा सके वहीं तक उसे आजादी है. ऐसे ही हमें अपने ख्यालात पेश करने की आजादी है. बस यह समझ लीजिए कि अगर आप लक्की हैं तो आपकी फिल्म "बाॅम्बे" या "क्रांतिवीर" की तरह निकल जाएगी वर्ना "बम्बई का बाबू" की तरह सैन्सर की कैंची की भेंट चढ़ जाएगी. मैंने ट्रीव्यूनल में इस के खिलाफ अपील तो ट्रीब्यूनल ने कहा कि आपने सैन्सर की गाइडलाइन को तोड़ा हैं . गाइड लाइन कहती हैं कि जो साम्प्रदायिक हिंसा को उभारे उसे पास नहीं करना चाहिए. मैंने कहा कि मेरी फिल्म में साम्प्रदाियक हिंसा का विरोध करती है. उसे प्रमोट नहीं कर रही है. इसका हर पात्र इसका विरोध कर रहा है."बाॅम्बे" अच्छी फिल्म थी किन्तु उसमें हिन्दू-मुसलमान शब्द पास कर दिए गये थे. जब उससे कम्यूनल पायलैंस उभर सकता था. उसे पास कर दिया था. उन्होंने कहा कि हम मानते हैं समाज में ऐसा होता है मगर हम फिल्म में अलाऊ नहीं करेंगे. मेरी फिल्म "फरेब" में एक संवाद था कंडोम (निरोध) के पैसे मैं दूंगा. उसे भी सैन्सर ने काट दिया था. "बैन्डिट क्वीन" में माँ बहन की गालियाँ थी. वह ट्रीव्यूनल ने पास कर दी थी तो क्या उसने गाइड लाइन नहीं तोड़ी? हाई कोर्ट के जज ने क्या कहा कि आपने गाइड लाइन तोड़ी है इसलिए उसे बैन किया है. किन्तु सैन्सर वाले इस बात को मानने को तैयार नहीं है . अपनी फिल्म का हश्र देखकर मुझे लगा कि मैं मुर्ख मेकर हूं. मैं क्या संदेश जनता को दूंगा कि इस देश को हिन्दू मुसलमान कुछ नहीं सब एक हैं. इस देश में मैसेज देने की जरूरत नहीं है. सरकार बोलती है लोग बकवास फिल्में बनाते हैं. मेरे जैसा यंग मेकर अच्छी उद्देश्यपूर्ण फिल्म बनाएं तो पास नहीं करतें " विक्रम भट्ट ने कहा.
"इस फिल्म में सैफ अली खान और काॅजोल के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?" हमने पूछा. "क्या आप उनके काम से संतुष्ट हैं?"
"काॅजोल ने मेरी फिल्म में लेडी जर्नालिस्ट का रोल किया है. और बहुत अच्छा किया है. वह जरूरत से ज्यादा बोलती है किन्तु उसका अधिक बोलना डिस्टर्ब नहीं करता. दरअसल वह गजब की एक्ट्रेस है. बहुत जहीन है. उसे समझाने की जरूरत नहीं पड़ती और करके दिखाने की. उसे जो चाहिए वह बता दीजिए वह वैसा कर देगी."
विक्रम भट्ट ने कहा. "सैफ अली खान, अतुल और मैं दोस्त की तरह हैं. काम करते वक्त काम काम ही नहीं. इस फिल्म में सैफ का एक अलग किस्म का रोल हैं. मैंने जो कदम उठाया है वह सही है या गलत यह वक्त ही बताएगा. इसमें पहली बार सैफ को बागी का रोल दिया है. जिस के बारे में खुद सैफ मुझसे पूछने लगा- तूने मुझे इस रोल में क्यों लिया है? मैं मिस कास्ट तो नहीं हूं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई एक्टर नहीं मिला तो मुझे ले लिया. मैंने कहा जब तुझे खुद यह लग रहा है कि तू कर पाएगा या नहीं? तो यही तो मुझे चाहिए! लोग तेरे चेहरे की मासूमियत देखकर सोचें कि इसे बागी बना दिया है यह कर पाएगा या नहीं यहां आधा मैदान तूने मार लिया है! बाकी जब तू फिल्म देखेगा तो लगेगा कि मैंने सही कास्ट किया है!"
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