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Metro In Dino की Konkona Sen Sharma ने कहा, मैं निर्देशक भी हूँ, लेकिन पहले मैं एक एक्टर हूँ.

‘वेक अप सिड’, ‘पेज 3’, ‘ओमकारा’, ‘लक बाय चांस’ और ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ जैसी फिल्मों में अपने बेमिसाल अभिनय से पहचान बना चुकीं कोंकणा सेन शर्मा एक बार फिर बड़े पर्दे पर लौट रही हैं...

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konkona sen sharma
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‘वेक अप सिड’, ‘पेज 3’, ‘ओमकारा’, ‘लक बाय चांस’ और ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ जैसी फिल्मों में अपने बेमिसाल अभिनय से पहचान बना चुकीं कोंकणा सेन शर्मा एक बार फिर बड़े पर्दे पर लौट रही हैं, अनुराग बसु की फिल्म ‘मेट्रो.. इन दिनों’ (Metro In Dino) के साथ. साल 2007 में आई ‘लाइफ इन ए... मेट्रो’ (Life in a... Metro) के बाद अब वह इसकी फ्रेंचाइजी में नए किरदार के साथ नज़र आएंगी. इस विशेष बातचीत में कोंकणा ने न सिर्फ अपनी आने वाली फिल्म के अनुभव साझा किए, बल्कि अपने अभिनय, निर्देशन, रिश्तों, और सिनेमाई सोच को लेकर बेहद निजी और गहराई से बात की. उनके जवाबों में भावनाएं, सोच और एक कलाकार की सच्ची बातों की झलक मिलती है.

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निर्देशक अनुराग बसु (Anurag Basu) के साथ ‘लाइफ इन ए... मेट्रो’ आपकी पहली फिल्म थी और अब आप उनकी इस फिल्म की फ्रेंचाइजी का भी हिस्सा है, आप उनसे कैसे जुड़ी थीं?

जब मैं अनुराग बसु से मिली थी, तब मैं खुद भी इंडस्ट्री में काफी नई थी. साल 2005 में तो मैं मुंबई रहने आई थी. तब तक मैंने अनुराग को फिल्म ‘गैंगस्टर’ नहीं देखी थी. वह जब फिल्म की कहानी सुनाने मेरे पास आए थे, तो मुझे याद है कि वह पात्रों के नामों को लेकर बहुत ज्यादा तालमेल कर रहे थे. मुझे लग रहा था कि शायद मैं कहानी अच्छी तरह से समझ नहीं पाई. पर हम दोनों ही बंगाली हैं. इसे भूलकर हमने एकसाथ खाना खाया. उसके बाद मैंने शबाना जी (शबाना आजमी) से पूछा था कि मुझे ये फिल्म करनी चाहिए या नहीं. तब उन्होंने कहा था कि अनुराग ने बहुत अच्छी फिल्म ‘गैंगस्टर’ बनाई है. आपको उनके साथ फिल्म जरूर करना चाहिए.

तो जब 'मेट्रो.. इन दिनों' ऑफर हुई, तो आपने इस फिल्म को किन मानकों या रचनात्मक शर्तों पर हां कहा? क्या इन सालों में आपके किरदार चुनने के मापदंडों में कोई बदलाव आया है?

उसके करीब 17-18 साल बाद जब ‘मुझे मेट्रो.. इन दिनों’ के लिए फोन आया तो मुझे बहुत खुशी हुई. वैसे ये फिल्म उसकी सीक्वल नहीं है, क्योंकि इसकी कहानी और किरदार सब अलग हैं. उस फिल्म में मैं एक युवा जोड़े की प्रेम कहानी का हिस्सा बनी थी, इसमें उम्र के अलग पड़ाव की प्रेम कहानी है. इसमें कुछ नया भी है और पुराना भी, इसलिए मुझे यह परफेक्ट फिल्म लगी. जब मैंने इस फिल्म के लिए हां की तब मुझे पता भी नहीं था कि इसमें मेरी भूमिका क्या है, मैंने तो बस अनुराग का नाम सुनकर हाँ कह दिया था.

METRO IN DINO

फिल्म का एक डायलॉग है— “किसी के साथ ज़िंदगी भर रहने के लिए बार-बार प्यार में पड़ना पड़ता है”. क्या आप इस विचार से सहमत हैं? इसे आप अपनी निजी ज़िंदगी के अनुभवों के आधार पर कितना सच और प्रासंगिक मानती हैं?

यह डायलॉग तो बहुत सुंदर है, इससे बहुत से लोग खुद को जोड़ पाएंगे. हालांकि, जिंदगी भर साथ रहने के लिए जीवनसाथी भी सही होना चाहिए. किसी रिश्ते को निभाने की कोशिश दोनों तरफ से होनीचाहिए. अगर दोनों ही रिश्ते के प्रति उतने ही समर्पित हैं, तो निश्चित तौर पर यह एकदम सही डायलॉग है.

आपकी फिल्म ‘लक बाय चांस’ में आपने बड़ी सादगी से कहा था – 'मेरे सपने पूरे नहीं हुए, पर मैं खुश हूँ.’ क्या मेट्रो.. इन दिनों में आपके किरदार में भी ऐसी ही कोई भावना, समझौता या संतुलन की झलक है?

अब तक मैंने इस तरह नहीं सोचा था, लेकिन हाँ हम सबको लगता है कि एक चीज से ही खुशी मिलेगी, पर अक्सर वैसा नहीं होता. अगर हम खुले दिमाग से ज़िंदगी को देखें, तो हमें अलग-अलग रास्तों से खुशी मिल सकती है. सिर्फ काम से खुशी नहीं मिलती. हम हमेशा खुश रहने के पीछे भागते हैं, लेकिन अगर दुःख न हो तो खुशी का मतलब भी नहीं समझ आता. खुश रहना ही सब कुछ नहीं है ज़िंदगी में संतुलन भी जरूरी है.

आपके काम में जो सच्चाई और संवेदनशीलता होती है, वो आपकी एक अलग पहचान बनाती है. जब लोग आपकी लिगेसी की बात करते हैं, तो आप खुद उसे कैसे महसूस करती हैं?

नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. मुझे लगता है कि जब काम मिल रहा है, तो बस करना चाहिए. बिजी रहना अच्छी बात है. जब काम नहीं होता और मैं घर पर रहती हूँ तो मैं बहुत एनोइंग हो जाती हूँ. मतलब, फिर मैं घर पर हर चीज़ में टोकने लगती हूँ — जैसे ये क्यों साफ नहीं हुआ? वो कहां है? जहां तक लिगेसी की बात है, तो वो लोग कहते हैं कोई बोलेगा, कोई नहीं बोलेगा. वो सब मेरे लिए नहीं है. मैं तो बस वो कर रही हूँ जो मुझे अच्छा लगता है और अगर आप सच में लिगेसी की बात करना चाहते हैं, तो वो चुनाव से बनती है. जिन लोगों के साथ काम करना चाहती है वहीं से एक लिगेसी बनती है.

आप न सिर्फ एक शानदार अभिनेत्री हैं, बल्कि एक संवेदनशील निर्देशक भी हैं. ऐसे में जब आप किसी और निर्देशक के साथ शूट कर रही होती हैं, तो क्या कभी आपके भीतर की निर्देशक जाग उठती है? क्या आप खुद को शॉट्स या सीन को लेकर सुझाव देते हुए पाती हैं?

मुझे अभिनय करते हुए 20 साल से ज्यादा हो चुका है, तो मैं अभिनेत्री ही हूँ. निर्देशन के काम में मुझे बहुत मजा आया, लेकिन मैंने वो काम बहुत कम किया है, इसलिए मेरे अंदर की निर्देशक इतनी जल्दी नहीं जागती है.

आपने निर्देशन में भी एक अलग पहचान बनाई है. बतौर निर्देशक आपका अगला प्रोजेक्ट कब शुरू होने जा रहा है? क्या हम आपको जल्द ही कैमरे के पीछे एक नई कहानी गढ़ते हुए देखेंगे?

इसमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है. बहुत लिखना पड़ता है, उसमें काफी समय जाता है. अभी मैं अभिनय में व्यस्त हूँ. हाल-फिलहाल में तो नहीं, लेकिन आगे एक शो बनाने के बारे में सोच रहे हैं, लेकिन अभी इसमें काफी वक़्त है. 

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जब आपके साथ स्क्रीन पर मनोज बाजपेयी और पंकज त्रिपाठी जैसे धुरंधर कलाकार हों, तो क्या अभिनय आसान हो जाता है या दबाव और ज़िम्मेदारी दोनों बढ़ जाते हैं?

अगर किसी सीन में दो पात्र हैं और दूसरा कलाकार इतना ज्यादा प्रतिभाशाली हो तो आधा काम तो अपने आप ही हो जाता है. मनोज बाजपेयी हो या पंकज त्रिपाठी, मुझे तो यह अजीब लगता है कि इसके पहले लोगों ने हमें साथ काम करने का ऑफर ही नहीं दिया.

जब बात उम्रदराज़ लोगों के प्रेम की आती है, तो समाज अक्सर सवाल उठाता है. क्या आपको लगता है कि प्यार उम्र देखकर नहीं आता, और ऐसे रिश्तों को स्वीकारने में हमें अब और परिपक्व होना चाहिए?

आमतौर पर फिल्मों में दिखाया जाता है कि हीरो हीरोइन को अपना प्यार मिला और कहानी खत्म. हम उसके आगे कभी नहीं बढ़े कि प्यार बहुत ही जटिल और व्यापक अनुभव है. उसमें जीवन के विभिन्न पड़ावों पर बहुत बदलाव आते हैं. प्यार सिर्फ युवावस्था तक ही सीमित नहीं है. लोगों की जिंदगी में प्यार तो चलता रहता है, चाहे हालात जैसे भी हों. 

अगर आप 90 के दशक या शुरुआती 2000 की अपनी ज़िंदगी को पलटकर देखें, तो वो कौन-सी एक चीज़ है जो आज भी सबसे ज़्यादा याद आती है और दिल छू जाती है?

पहले जब सिंक साउंड नहीं होता था, तब हमें डबिंग करनी पड़ती थी — और मुझे वह प्रक्रिया बहुत पसंद थी. डबिंग में एक अलग ही तरह की रचनात्मकता होती थी, क्योंकि हर फ्रेम, हर संवाद को सजीव करना पड़ता था. कभी-कभी टेक्स के बीच निर्देशक बोलते थे, हँसी-मज़ाक होता था — वो सब मिलकर एक यादगार अनुभव बनता था. आज भी उस दौर की कुछ बातें दिल को छू जाती हैं.

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