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Exclusive Interview Vikas Kapoor: अब टीवी खत्म हो गया

लेखक, निर्देशक और निर्माता विकास कपूर ने टीवी इंडस्ट्री पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि "अब टीवी खत्म हो गया…"। उन्होंने इस बदलाव के कारणों, चुनौतियों और टीवी के बदलते परिदृश्य के बारे में भी बात की।

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Vikas Kapoor TV writer and director

‘ओम नमः शिवाय’, ‘श्रीमद् भागवत पुराण’, ‘गीता रहस्य’, ‘सत्यनारायण व्रत कथा’, ‘शोभा सोमनाथ की’ सहित सैकड़ों टीवी सीरियलों के लगभग साढ़े सात हजार घंटे के टीवी कार्यक्रम का लेखन कर चुके विकास कपूर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। विकास कपूर के लिखे सीरियल ‘ओम नमः शिवाय’ की टीआरपी 78 हुआ करती थी। आज के लेखक जो लिख रहे हैं, उनके सीरियल की टीआरपी एक भी नहीं आ पा रही है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ तो विकास कपूर को ‘गॉड्स ओन राइटर’ की उपाधि दे चुका है।

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प्रस्तुत है मायापुरी के लिए विकास कपूर के साथ हुई बातचीत के अंश…

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टीवी इंडस्ट्री में लेखक के तौर पर आप एक बड़ा मुकाम बनाने में सफल रहे हैं। क्या आपके घर में पहले से ऐसा कोई माहौल था?

मेरे घर में टीवी या फिल्म का नहीं, मगर भक्ति व साहित्य का माहौल था। हम मूलतः पंजाबी खत्री हैं, मगर मेरी दादी हनुमान जी में आस्था रखती थीं। इसी के साथ उन्होंने राम-कृष्ण की पूजा शुरू कर दी। फिर ऐसा रम गईं कि पंजाबी भाषा व गुरुद्वारा की परंपरा पीछे छूट गई। और राम-कृष्ण हमारे जीवन का हिस्सा बन गए। दादी जब वैष्णव धर्म में दीक्षित हुईं, तो उन्हें रामायण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों व उपनिषदों से लगाव हो गया। मेरी दादी ने अंग्रेजों के जमाने में पढ़ाई की थी। मेरी दादी के पिता जमींदार थे। उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था, वही संस्कार उनसे मुझे भी मिले। वह हर माह नवाह्न पाठ कर नौ दिन में रामचरितमानस, अगले नौ दिन में वाल्मीकि रामायण, बाकी के बारह दिन में कोई न कोई पुराण या उपनिषद पढ़ा करती थीं। उन दिनों हम भाई-बहन बहुत छोटे थे। आज अगर मैं अतीत में देखता हूँ और अगर मैं एक अच्छा लेखक बन पाया हूँ, तो इसका श्रेय मेरी दादी को जाता है। मेरी दादी के अंदर एक अलौकिक प्रतिभा थी। मुझे अच्छी तरह से याद है, जब मैं सात-आठ वर्ष का था, तब मेरी दादी हमें रामायण सुनाती थीं। फिर हमें मौका देती थीं कि हम उनसे प्रश्न पूछें। जब हम प्रश्न पूछते, तो वह कहतीं कि इतने नंबर से इतने नंबर के दोहे पढ़कर खुद उत्तर तलाशो… और लालच यह कि सही जवाब ढूँढ़ने पर वह दो लेमनचूस की गोलियाँ देती थीं। उसी के लालच में हम पढ़कर उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास करते थे। फिर वह उसका अर्थ भी समझाती थीं। ऐसा करते हुए हमें रामायण के गूढ़ अर्थ समझ में आते गए। दादी ने बचपन में मेरे अंदर शोध करने की जो लालसा पैदा की थी, उसी की आजीविका आज मैं खा रहा हूँ। उसी की रोटी खा रहा हूँ। उन्होंने मेरे अंदर धार्मिक व पौराणिक कहानियों में जीवन ढूँढ़ने की आदत डाली। तो मेरी दादी का मेरे जीवन पर गहरा असर है। मेरी माँ बहुत अच्छी कवयित्री थीं। पद्मभूषण व पद्मश्री से सम्मानित कवि गोपालदास नीरज मेरी माँ के राखी भाई थे। शुरू से ही उनका हमारे घर पर आना-जाना था। जब वह आते, तो कविताओं का दौर शुरू हो जाता। मेरी बड़ी बहन कानपुर में अभिनय ग्रुप के साथ नाटक किया करती थीं। मेरी नाटकों में कोई रुचि नहीं थी। मैं तो स्कूल की पढ़ाई, दादी के पास बैठकर रामायण आदि सुनता और क्रिकेट खेलता था। पर उन दिनों कानपुर में एन.एस. चौधरी साहब हुआ करते थे। उन्होंने ही मुझसे अपने नाटक ‘आँसू बन गए फूल’ में एक किरदार निभवाया। मुझे नाटक का माहौल अच्छा लगा और नाटकों के प्रति मेरे अंदर रुचि पैदा हो गई। मैंने एन.एस. चौधरी साहब के साथ दो-तीन नाटकों में अभिनय किया। पर उनके ग्रुप में चल रही आंतरिक राजनीति के कारण मैंने दूरी बना ली। फिर मैंने अपने दोस्तों से बात कर अपनी नाट्य संस्था ‘कला विद नाट्य संस्था’ बनाई। मैंने एन.एस. चौधरी के अभिनव ग्रुप में हो रही आंतरिक राजनीति को केंद्र में रखकर एक नाटक ‘नाटक ही नाटक’ लिखा। इसे बड़ी सफलता मिली। मैंने चौधरी साहब को भी अपना यह नाटक देखने के लिए बुलाया। नाटक देखकर उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई कि मैंने सच दिखाया। लेकिन इस नाटक की सफलता की वजह से मेरी संस्था चल निकली। हमने धड़ल्ले से कई नाटक किए। यह बात 1985 की है। हमने दोस्तों से सलाह कर विजय तेंडुलकर का लिखा हुआ एक नाटक ‘गिद्ध’ किया। इसका शो ढाई हजार दर्शकों की बैठने की क्षमता वाले लाजपत भवन, कानपुर में किया और टिकट दर सौ रुपये रखी थी। शो हाउसफुल गया। ‘गिद्ध’ के कई शो किए। इसके बाद मैंने दूसरा नाटक ‘चंद्रमुखी’ किया। इसके शो लगभग दस-बारह शहरों में जाकर किए। उसके बाद हमने ‘जिस लाहौर नहीं देख्या, ओ जन्म्या नहीं’ किया। इसका निर्देशन करने के साथ ही मैंने नासिर का किरदार भी निभाया। इसके शो देश भर में हुए। दादी की सीख के अनुरूप मैं दीनदयाल विद्यालय सहित कई विद्यालयों में बच्चों को नाटक करना यानी कि अभिनय सिखाने जाता था। एक दिन विद्यालय के दीपक आचार्य ने विद्यालय के 25 साल पूरे होने पर नाटक करने का प्रस्ताव रखा। मैंने स्कूल के प्रधानाध्यापक ओम शंकर जी द्वारा ‘चाणक्य’ पर लिखी कृति ‘लौह पुरुष’ पर नाटक करने का फैसला किया। इस अवसर पर मेहमान के तौर पर मुंबई से नीतीश भारद्वाज जी आए। उस वक्त तक उनका सीरियल ‘महाभारत’ सफल हो चुका था। और वह सीरियल ‘गीता रहस्य’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। नीतीश भारद्वाज ने मुझसे बात की और ‘गीता रहस्य’ का लेखन करने के लिए मुझे अपने साथ मुंबई ले आए। इस तरह मैं 1996 में मुंबई आ गया। (Vikas Kapoor TV writer and director)

Vikas Kapoor TV writer and director

‘गीता रहस्य’ का लेखन करते ही किस्मत बदल गई होगी?

जी! ऐसा ही हुआ। ‘गीता रहस्य’ के पीआरओ बन्नी रूबेन थे, जो कि राजकपूर के भी पीआरओ हुआ करते थे। बन्नी रूबेन ने मेरे बारे में लेख छपवाकर मुझे फिल्म इंडस्ट्री में स्टार बना दिया था। बहुत सारे लोग मुझसे मिलने आने लगे। एक दिन मुझसे चंद्रकांत गौड़ मिलने आए, जो कि उन दिनों सबसे अधिक धार्मिक फिल्म बनाने वाले निर्माता थे। वह काफी बुजुर्ग थे। उमरगाँव स्टूडियो के वह मालिक थे। उन्होंने मेरे सामने ‘भगवान सत्यनारायण’ पर बन रहे सीरियल के लेखन का प्रस्ताव रखा। मैंने उनके लिए ‘माँ’ और ‘सत्यनारायण व्रत कथा’ सीरियलों का लेखन किया। फिर मेरी मुलाकात अनिल शर्मा से हुई। वह उस वक्त ‘श्रीमद् भागवत पुराण’ बना रहे थे। इस सीरियल के साथ अनिल शर्मा ने मुझे जोड़ा। इसके अलावा दूरदर्शन के लिए छोटे-छोटे कार्यक्रम बनाने के काम भी आने लगे।

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आपने सर्वाधिक लोकप्रिय सीरियल ‘ओम नमः शिवाय’ भी लिखा था?

मैं किराए का मकान लेने के बाद अपनी माँ को लेने के लिए कानपुर गया था, वहीं पर एक दिन चंद्रकांत गौड़ जी का फोन पहुँचा। फोन पर ही उन्होंने कह दिया कि वह ‘ओम नमः शिवाय’ नामक एक सीरियल बना रहे हैं, जिसे मुझे ही लिखना है। कानपुर से वापस मुंबई पहुँचा, तो चंद्रकांत गौड़ और धीरज कुमार से मेरी मुलाकात हुई। पता चला कि पहले इस सीरियल को डॉ. राही मासूम रजा साहब लिख रहे थे, पर उनका स्वास्थ्य खराब हो जाने पर नए लेखक की तलाश हो रही थी। पर उस लेखक का चयन, लेखक के लेखन का नमूना देखकर डॉ. राही मासूम रजा ही करने वाले थे। मैंने एक एपिसोड लिखा, जिसे डॉ. राही मासूम रजा के पास भेजा गया, जो कि उन दिनों लीलावती अस्पताल में भर्ती थे। राही साहब खुश हो गए और उन्होंने धीरज कुमार को फोन करके कहा कि ‘ओम नमः शिवाय’ यही लेखक लिखेगा। इस समय तक मेरी डॉ. राही मासूम रजा से मुलाकात नहीं हुई थी। उनसे काफी बाद में अस्पताल में ही धीरज कुमार और चंद्रकांत गौड़ के साथ मुलाकात हुई थी। अंततः यह सीरियल मुझे लिखने का मौका मिल गया। ‘ओम नमः शिवाय’ के बाद मैंने छह-सात सीरियल उनके लिए लिखे। चंद्रकांत के रूप में मुझे ऐसा गुरु मिला, जिसने मुझे लिखना सिखाया। ‘ओम नमः शिवाय’ को हाथ से न जाने देने के लिए मैंने बहुत मेहनत करके लिखा। मेरी लेखन यात्रा उसके बाद भी चलती रही। मैंने धीरज कुमार के लिए उसके बाद भी कई सीरियल लिखे। करीबन तीन हजार घंटे के कार्यक्रम लिखे होंगे। 2007 में क्रिएटिव आई को अलविदा कहकर बाहर लिखना शुरू किया। फिल्में भी लिखीं। (Om Namah Shivay TV serial TRP 78)

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‘गीता रहस्य’ में स्वाभाविक तौर पर इंसानी जीवन की चर्चा है। ‘ओम नमः शिवाय’ शुद्ध रूप से भक्ति व धर्म का मसला है। पर इस सीरियल में भी जीवन और मानवीय भावनाएँ हैं। तो यह आप कैसे पिरो रहे थे?

देखिए, जीवन के बिना तो भक्ति ही नहीं है। भक्ति का आरंभ ही जीवन है। या यूँ कहें कि जीवन का आरंभ ही भक्ति है। तो भक्ति और जीवन एक साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं। इसके अलावा कुछ सोचा ही नहीं जा सकता। अगर आप महेश्वर पुराण की दृष्टि से देखें, तो शिवजी का जो चरित्र है, वह जीवन ही है। हमने बचपन से जाना कि जीवन के तीन देवता हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं। तो संहार का देवता, जीवन से क्यों प्यार कर रहा है? अगर वह जीवन से प्यार नहीं कर रहे होते, तो वह हलाहल/समुद्र मंथन से निकले विष को बह जाने देते। अपने आप संहार हो जाता, मगर शिवजी उस विष का पान करते हैं। भगवान शिव, विष को अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ बन गए। शिव उसका संहार करते हैं, जो अनैतिक कार्य करते हैं, अधार्मिक कार्य या अत्याचार कर रहा है। देखिए, जीवन का कटु सत्य यह है कि आठ चिरंजीवियों को छोड़ दें, तो जो भी जीव इस संसार यानी कि मृत्युलोक में आया है, उसे एक न एक दिन तो जाना ही है। पर कुछ लोग समय से पहले चले गए, अपने कर्मों की वजह से। तो वह संहार भगवान शिव समय से पहले ही कर डालते हैं। ‘ओम नमः शिवाय’ में हमें यही समझाना था कि शिव आराधना से आप कितनी सरलता से अपने जीवन को सुखद बना सकते हैं। (Shrimad Bhagwat Puran TV serial writer)

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‘ओम नमः शिवाय’ अति लोकप्रिय हुआ, पर इसके साथ कोई विवाद नहीं हुआ। जबकि भगवान शिव पर ही आधारित दूसरे लोकप्रिय सीरियल के साथ विवाद भी हुए थे। ऐसा क्यों हुआ था?

देखिए, मैंने साढ़े सात हजार घंटे के टीवी कार्यक्रम अपनी कलम से लिखे, जिनमें से लगभग सवा छह से साढ़े छह हजार घंटे के कार्यक्रम सिर्फ धार्मिक हैं, पौराणिक हैं। ‘ओम नमः शिवाय’, ‘जय श्री गणेश’, ‘जय संतोषी माँ’, ‘श्रीमद् भागवत महापुराण’, ‘सत्यनारायण व्रत कथा’ सहित ढेर सारे सीरियल लिखे। अब तक मेरे पूरे कार्यकाल में मेरे लिखे हुए एक भी शब्द पर विवाद नहीं हुआ। उसके दो विशेष कारण हैं। पहला, मेरी दादी का अपना शोध और उनके द्वारा मेरे अंदर डाली गई शोध करने की प्रवृत्ति; एक भी शब्द लिखने से पहले सौ बार सोचता था। दूसरा योगदान रहा ‘ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट बड़ौदा’ का। इनके पास मेरी लिखी हुई स्क्रिप्ट भेजी जाती थीं। वे मेरी स्क्रिप्ट की जाँच कर ओके कर भेजते थे। मैं खुद को धन्य समझता हूँ कि मुझे कभी भी एक भी लाइन बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। देखिए, ‘माइथोलॉजी’ शब्द पर भी इन दिनों एक विवाद-सा हो गया है। यह शब्द गलत नहीं है। माइथोलॉजी का मतलब यह कि वह मिथ जो अब तक प्रकट नहीं हुआ, जो अब तक जाना नहीं गया, जो अब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से साबित नहीं हुआ। यह सच है। हमने राम के चरित्र को पढ़ा। पर राम की वैधानिकता को जाँचने की कोशिश नहीं की गई। कृष्ण व महाभारत की वैधानिकता को शोधने की कोशिश कब की गई? जबकि कुछ प्रमाण मिल रहे हैं। पर वह भी प्रमाणित नहीं हैं। हमें, देश को, देश की राजनीति को, देश की सरकार को चाहिए कि इसकी तलाश कर हम प्रकट करें कि यह महाभारत की वैधानिकता है? कृष्ण की वैधानिकता है। सच यही है कि मेरे लेखन पर विवाद नहीं हुआ। जबकि ‘देवों के देव महादेव’ हो या संजय खान का ‘जय हनुमान’ हो, कई बार विवाद हुए। संजय खान के सीरियल ‘जय हनुमान’ को तो विवादों के चलते तीन बार बंद करना पड़ा। कई सारे विवाद रहे हैं। हम किसका नाम लूँ। जब मैंने एनडीटीवी के लिए उत्तर रामायण को सीता माता के नजरिए से लिखा, तो इसके शुरुआती एपिसोड को देखकर कांचीपीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी का पत्र चैनल को मिला, जिसमें उन्होंने इस एपिसोड के लेखक यानी कि मुझे आशीर्वाद भेजा था। इस तरह उन्होंने भी मेरे लेखन पर मुहर लगा दी। यह सब प्रभु की ही प्रेरणा से मैं कर पाया। ईश्वर के आशीर्वाद से मैं लिख पाया। तभी तो ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने मेरे बारे में लिखा ‘गॉड्स ओन राइटर’ यानी कि ‘भगवान के अपने लेखक’।

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आपने धार्मिक के साथ ही सामाजिक सीरियल भी लिखे। तो लेखक के तौर पर दोनों तरह के सीरियल लिखते समय क्या अंतर महसूस करते थे?

कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी ‘गदर 2’, जिसने सात सौ करोड़ रुपये का व्यापार किया। इस फिल्म के ओपनिंग और क्लाइमेक्स के दृश्यों का लेखन मैंने ही किया है। क्लाइमेक्स में गीता व कुरान वाला सीन है। इसी तरह से मैंने ढेर सारा सामाजिक लेखन किया। पर इस फिल्म व टीवी इंडस्ट्री में तो एक मुहर लग जाती है। तो मुझ पर धार्मिक सीरियल लेखक की मुहर लग गई। हर निर्माता मुझे इसी तरह के सीरियल लिखने के लिए याद करता आया है। आज भी हर चैनल चाहता है कि मैं कुछ धर्म पर लिखूँ। जबकि मूल रूप से कोई अंतर नहीं होता है। हर कहानी में रावण तो होता ही है। अब सामाजिक कहानी में वह रावण, रावणी हो जाएगी यानी कि वैम्प बन जाएगी। तो चरित्रांकन वही है। एक कथा का नायक होगा। एक कथा का परिवार होगा, कथा की वैम्प यानी कि विलेन होगी या होगा। तो मूलभूत रूप से धार्मिक या सामाजिक सीरियलों में कोई विशेष अंतर नहीं है। आजकल जो ‘गूगल बाबा’ यानी कि गूगल सर्च इंजन है, उससे ढेर सारे लोग लेखक बन गए हैं। जबकि यह गलत है। मैं गूगल सर्च इंजन के माध्यम से लेखक बन रहे लोगों की कभी भी प्रशंसा नहीं करता। पर किसी की रोजी-रोटी चल रही है, तो अच्छी बात है। लेकिन मुझे लगता है कि लेखन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। लेखक को लिखने की स्वतंत्रता है, मगर उसे विषय का पूरा ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान अर्जित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि पढ़ने और शोध करने की आदत का होना बहुत आवश्यक है। अन्यथा आप गूगल या एआई की मदद से लेखन कर सकते हैं, पर उसमें भाव नहीं आएगा। उसमें वह बात नहीं आ सकती जो इंसान के दिल को छू जाए। आपके लेखन में गहराई तब तक नहीं आएगी, जब तक आप स्वयं उस विषय की गहराई में नहीं उतरेंगे। बहुत पुरानी कहावत है कि जो डूबेगा, वही पार उतरेगा।

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आपका एक अति महत्वाकांक्षी सीरियल ‘शोभा सोमनाथ की’ था, जिसका आपने आम गाँव में 12 एकड़ में सेट बनाया था। उसमें क्या गड़बड़ी हुई थी?

गड़बड़ी कुछ नहीं थी। सब ठीक-ठाक था। देखिए, दूसरों को दोष देकर अपना पल्ला झाड़ने का तो हमारे यहाँ पुराना रिवाज है। पर मैं ऐसा नहीं करता। मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता। हर सीरियल की अपनी नियति होती है। जब ‘शोभा सोमनाथ की’ की शुरुआत हुई, तब हम ‘कॉन्टिलो फिल्म्स’ के साथ काम कर रहे थे। अभिमन्यु सिंह हमारे पार्टनर थे। हम अच्छा काम कर रहे थे। लेकिन टेलिकास्ट शुरू होने से पहले जी टीवी व अभिमन्यु की कुछ बातचीत हुई। और जी टीवी ने तय किया कि वह अभिमन्यु के साथ काम नहीं करेंगे। जी टीवी की तरफ से मुझसे कहा गया कि मैं ऐसा-ऐसा अभिमन्यु से कह दूँ। मैंने कहा कि मैं नहीं कहूँगा। क्योंकि मुझे उनसे कोई समस्या नहीं है। मैं स्पष्टवादी इंसान हूँ। पर जी टीवी ने कहा कि आप किसी अन्य के साथ काम करें। अंत में जी टीवी ने इंद्रा मीडिया के तरुण के साथ काम करने के लिए कहा। तरुण को इतना बड़ा सीरियल बनाने का अनुभव नहीं था। शायद उनके पास धन की भी कमी थी। इसलिए सेट पर खाने आदि की भी समस्या आई थी। तो ‘शोभा सोमनाथ की’ के साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसे भूल जाना ही मैं बेहतर समझता हूँ। लेकिन जितना चला, ठीक चला। उसमें जितनी भव्यता थी, वैसी भव्यता कभी किसी सीरियल में नजर नहीं आई। मैंने इसे बहुत भव्य स्केल पर बनाया था। यह भारतीय टीवी इंडस्ट्री का एक टर्निंग पॉइंट था। मैंने साढ़े बारह एकड़ में सेट बनाया था। 155 फीट का सोमनाथ मंदिर बनवाया था। कुछ वजहों से यह सीरियल उतना सफल नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था। (Gita Rahasya TV serial writing)

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टीवी की क्या स्थिति है?

अब टीवी खत्म हो गया है। सीरियल ‘ओम नमः शिवाय’ की ढाई माह तक टीआरपी 78 थी। अब तो एक की टीआरपी मिलना मुश्किल हो गया है। टीवी खत्म हो गया। इसकी वजह यह है कि लोग रिस्क नहीं लेना चाहते। लोग नए कॉन्सेप्ट पर काम नहीं करना चाहते। जबकि नए-नए प्रयोग होते रहने चाहिए। टीवी इंडस्ट्री में पिछले बीस वर्षों में एक ही कहानी पर हमने दस-दस साल तक सीरियल खींचा है। सच कहें, तो रचनात्मकता ने स्वयं को खत्म कर लिया है। टीवी जिस मोड़ पर पहुँच गया है, वह दुखद है। यह बहुत बड़ा माध्यम है। आप अंदाजा लगाएँ कि कहाँ 78 की टीआरपी और कहाँ एक की टीआरपी। तो इस ह्रास के लिए दोषी हम ही हैं। लोग ओटीटी व अन्य माध्यमों की तरफ भाग रहे हैं। हम टीवी में वह नहीं दे पा रहे हैं, जो लोग देखना चाहते हैं। हम गूगल से लिखकर कुछ भी परोस रहे हैं, जिसमें न तो भाव है और न ही गहराई है। मैं किसी को दोष देने लायक नहीं हूँ। एक बात यह है कि पहले जब हम सीरियल बनाते थे, तो हमें पता होता था कि सीरियल एक साल तो टेलिकास्ट होगा। तब निर्माता अच्छा सीरियल बनाता था। दो माह बाद वह लाभ-हानि से परे हो जाता था। दो माह बाद वह धीरे-धीरे लाभ कमाना शुरू करता था। पर अब तो पंद्रह दिन में ही सीरियल बंद कर दिए जाते हैं। तो निर्माता अपने निवेश को लेकर चिंतित होता है। इसलिए वह पहले दिन से ही सस्ते लेखक, सस्ते निर्देशक आदि को लेकर ही सीरियल बनाता है। परिणामतः गुणवत्ता व रचनात्मकता घटिया होती है। तो टीआरपी कहाँ से आएगी। इस पर चैनल के साथ-साथ हर निर्माता, निर्देशक, लेखक को बैठकर सोचना चाहिए। जब तक हम कंटेंट में, किरदारों में नयापन नहीं लाएँगे, तब तक टीवी सीरियल के दर्शक नहीं बढ़ेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर पल यह संसार बदल रहा है। आजकल के बच्चे काफी तेज हैं।(Satyanarayan Vrat Katha TV serial)

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FAQ

प्रश्न 1. विकास कपूर कौन हैं?

विकास कपूर एक प्रसिद्ध लेखक, निर्देशक और निर्माता हैं, जिन्होंने भारतीय टीवी इंडस्ट्री में सैकड़ों धारावाहिकों का लेखन और निर्देशन किया है।

प्रश्न 2. विकास कपूर के प्रमुख टीवी सीरियल कौन से हैं?

उनके प्रमुख टीवी सीरियल हैं:

  • ओम नमः शिवाय

  • श्रीमद् भागवत पुराण

  • गीता रहस्य

  • सत्यनारायण व्रत कथा

  • शोभा सोमनाथ

प्रश्न 3. विकास कपूर का टीवी इंडस्ट्री में योगदान क्या है?

विकास कपूर ने लगभग 7,500 घंटे के टीवी कार्यक्रमों का लेखन किया है और भारतीय टीवी इंडस्ट्री में मिथक, धर्म और इतिहास पर आधारित धारावाहिकों के लिए प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 4. ‘ओम नमः शिवाय’ सीरियल की टीआरपी क्या थी?

‘ओम नमः शिवाय’ की टीआरपी 78 रही है, जो इसे अपने समय का सबसे लोकप्रिय टीवी सीरियल बनाती है।

प्रश्न 5. विकास कपूर को कौन सा सम्मान मिला है?

Times of India ने उन्हें "God’s Own Writer" की उपाधि दी है।

Shobha Somnath | Indian TV Writer | Mythological TV Serials | Gods Own Writer not present in content

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