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बात अदभुत सी है. 'मायापुरी' के संस्मरणों में पहलीबार मैंने सिनेमा में एक आम आदमी की नजर से फिल्मी स्ट्रगल का जिक्र किया तो इतनी एप्रिसिएशन आयी हैं जितना कभी किसी बड़े स्टार के बारे में लिखने पर भी नहीं मिला. शायद इसलिए की मेरी शुरुआत की कहानी से लोग अपनी अपनी कहानी को कनेक्ट कर रहे हैं- "मैं भी था उस समय, मैं भी था, मैं भी था...!" बहुतों ने मुझे याद दिलाया है अपने स्ट्रगल की कहानी. मेरा आशय नाम गिनाने से नहीं, क्योंकि सिनेमा लाइन में शुरुआत सबकी एक जैसी ही हुआ करती है, हौसले सबके एक जैसे रहते हैं, बस मूल में 'चाहत' सबकी सिनेमा में सट जाने की होती है. सहकार भंडार के फिल्मी अड्डे के दिनों में ही ग्वालियर से पत्रकार सतीश कंवल (अब स्वर्गीय) बॉम्बे में फिल्म पीआरओ बनने आए थे. वह वहीं पास के ही होटल मानसरोवर में टिके थे. मुझे और पत्रकार के एम श्रीवास्तव को अपने होटल के कमरे पर ले गए, मूड में थे- बोले- 'तुम लोग बम्बई के पत्रकार इंडस्ट्री का फायदा लेना नहीं जानते. मैं बताऊंगा फिल्म का पत्रकार या पीआरओ क्या चीज होता है!' सतीश कंवल जी पूरा जीवन बॉलीवुड में लगा दिए. दोपहर जनसत्ता अखबार के लिए फिल्म कॉलम कुछ समय लिखते थे, अनिल शर्मा के भी पीआरओ थे... वावजूद इसके खुद को बॉलीवुड में सेट नहीं कर पाए. इनदिनों काफी तनाव मे दिखते थे. अपने शहर ग्वालियर भी वापस नहीं जा सके, आज उनके दुनिया से चले जाने की खबर आई है तो मैं शॉक्ड हूं. उनका जोश आंखों के सामने घूम रहा है. कितनी क्रुअल होती है यह लाइन! आदमी स्ट्रगलर हो या स्टार कैसे थक कर निढाल होता चला जाता है...उफ!
शुरुवात के दिनों में मेरे संसमरण के स्मरण में जो लोग हैं, उनमें एक प्रतिक्रिया अभिनेत्री पुष्पा वर्मा से भी आयी है. वह 'रामायण' धारावाहिक में मेघनाद की पत्नी सुलोचना की भूमिका करने बॉलीवुड में आई थी फिर काफी फिल्म और धारावाहिकों में अभिनय की हैं, भोजपुरी फिल्मों की निरूपा रॉय तक कहा गया उन्हें. उन्होंने कुरेदा है- "शरद जी, आपने लड़कियों का जिक्र नहीं किया, ... तब क्या लड़कियों का आकर्षण लोगों को फिल्म लाइन में नहीं खींच लाता था?" सिनेमा के प्रति मोह के पीछे अधिकांश आकर्षण फिल्मी लड़कियों का ग्लैमर होता है. ऐसे सवाल का जवाब देना शायद मेरे लिए नाजुक मसला है. मैं बस इतना ही कहूंगा कि उनदिनों पत्रकारों की रिस्पेक्ट आज के दिनों की बजाय बहुत ज्यादा थी. लड़कियां अपने घर हमें बुलाती थी, अपने ग्लैमरस फोटो दिखाती थी मगर हमारे फोटोज देखने के वक्त चाय बनाने का बहाना करके हट जाती थी. इतनी सभ्रांतता थी तब तक. कमसे कम नीना गुप्ता की तस्वीरें देखते मुझे ऐसा ही महसूस हुआ था. नीना गुप्ता, हेमा गुप्ता (बाद मे वो साध्वी बन गयी), मीना श्रीवास्तव को मैं पृथ्वी थियेटर पर मिला था. पृथ्वी थियेटर पर उनसे मुलाकात हुई थी. वहां ज्यादातर स्टेज के लोग मिलते थे. मीना श्रीवास्तव एक बोल्ड बिंदास लड़की थी. जिसके एक इंटरव्यू की बड़ी चर्चा हुई थी. मेरे ही लिखे उस इंटरव्यू की हेडलाइन थी-" यहां साथ सोकर भी काम नहीं मिलता". मीना ने कई बड़े नाम वाले स्टारों से अपने शोषित होने का किस्सा बताया था. फिर कहीं काम नहीं मिला उसे. यह फिल्म इंडस्ट्री है भाई, यहां सच बोलकर भी काम नहीं मिलता. मीना श्रीवास्तव के लिए सभी प्रोडक्शन हाउसों के दरवाजे बंद हो गए. फिर उसे किसी ने काम नहीं दिया. आर्टिस्ट बनने की उसकी हसरतें उसके जीवन जीने तक पूरी नहीं हो पाई.
स्ट्रगल के उस दौर में जो अन्य लोग मुझे प्रयासरत मिले थे उनमें निर्देशक ब्रज भूषण (इंसाफ की मंजिल), कमर हाजीपुरी (गीत मिलन के गाते रहेंगे), आनंद गिरधर (बेआबरू), सुरेश खन्ना (प्यार की पहचान), धरम मूलचंदानी (फोटो सेशन ग्राफर), जैसे लोग थे जो कम बजट पर बड़ा काम करने के बड़े हौसले रखते थे. ये सभी सहकार भंडार रेस्टॉरेंट पर आनेवाले उदीयमान फिल्मकार थे. पम्पोस, सहकार और पृत्वी थियेटर पर आनेवाले हर व्यक्ति की एक कहानी थी जो सपने पाले जी रहे थे. कितनों के सपने पूरे हुए कितनों के सपने अधूरे रह गए- यहां हरएक कि एक लम्बी कहानी है.
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