/mayapuri/media/media_files/2025/01/24/t8Ay9cyROsEjmmsu1keN.jpg)
रेटिंग: दो स्टार
निर्माता: दिनेश विजन, अमर कौशिक और ज्योति देशपांडे
लेखक: कार्ल ऑस्टिन, संदीप केवलानी, आमिल कीयान खान और निरेन भट्ट
निर्देशकः अभिषेक अनिल कपूर और संदीप केवलानी
कलाकारः अक्षय कुमार, वीर पहाड़िया, निमृत कौर, सोहम मजूदार, शरद केलकर, मनीष चैधरी, वरुण बडोला और सारा अली खान आदि
अवधिः दो घंटे पांच मिनट
1965 के युद्ध में एअरफोर्स स्क्वाड्रन लीडर ए.बी. देवय्या शहीद हो गए थे. उन्ही के उपर अब निर्माता दिनेश वीजन,ज्योति देशपांडे और अमर कौशिक देशभक्ति वाली फिल्म "स्काई फोर्स" लेकर आए हैं. जो कि 24 जनवरी को रिलीज हुई है. पर फिल्म के अंदर उनका नाम बदलकर टी के विजया रखा गया हैं. वहीं दूसरे किरदारो के नाम भी बदले गए हैं. अब नाम बदलने की जरुरत क्यों पड़ी, पता नहीं. क्या मूल कहानी के साथ सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर खिलवाड़ किया गया है? देवय्या के ठिकाने में सक्रिय रुचि लेने वाले व्यक्ति ग्रुप कैप्टन ओ.पी.तनेजा थे. उनके प्रयासों का फल तब मिला जब देवय्या 1988 में महावीर चक्र से मरणोपरांत सम्मानित होने वाले पहले और एकमात्र भारतीय वायु सेना अधिकारी बन गए. यह विडंबना ही है कि ए वी देवय्या अपने साथियो को बचाते हुए शहीद हो गए थे. पर उन्हे 23 साल बाद मरणोपरांत 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया था.
स्टोरीः
फिल्म की कहानी शुरू होती है 1971 में, जब पाकिस्तान की वायु सेना ने अचानक भारत के एयरबेस पर हमला कर दिया. भारतीय बलों ने जवाबी हमले में एक पाकिस्तानी पायलट अहमद हुसैन (शरद केलकर) को पकड़ लिया था. भारतीय वायु सेना के विंग कमांडर के.ओ.आहूजा (अक्षय कुमार) अहमद से पूछताछ करने के लिए पहुंचते हैं. इस पूछताछ में उन्हें पता चलता है कि 1965 के सरगोधा हमले के बाद अहमद को सम्मानित किया गया था. आहूजा के मन में यहीं से संदेह पैदा होता है और पहला सुराग भी हाथ लगता है. फिर कहानी 6 साल पीछे यानी कि 1965 में पहुँच जाती है. 1965 के युद्ध में दोनों देशों द्वारा हवाई हमलों का पहला उदाहरण था. पाकिस्तान को 12 एफ -104 स्टारफाइटर जेट मिले थे, जिन्हें भारत के फोलैंड नैट और डसॉल्ट मिस्टर प्ट के बेड़े से बेहतर माना जाता था. हालांकि, ग्रुप कैप्टन के.ओ.आहूजा (अक्षय कुमार) का मानना है कि मशीन नहीं, बल्कि पायलट हवाई युद्ध का नतीजा तय करता है. 1965 में जब विंग कमांडर ओ.आहूजा आदमपुर एयरबेस पर पोस्टेड दिखाए जाते हैं जहां अपने साथियों को युद्ध के लिए तैयार करते हैं. इनमें टी. विजया (वीर पहाड़िया) और अन्य शामिल हैं. विजया में आहूजा को अपना वीरगति को प्राप्त हो चुका भाई नजर आता है. विजया एक रिबेल युवा अधिकारी है, जिसमें देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून है. 5 सितंबर 1965 में भारतीय एयरबेस पर पाकिस्तान हमला करता है, जिसमें कई जवान मारे जाते हैं. इसके बाद भारत बदले की आग में झुलसता है और अपने कमजोर हवाई जहाजों की मदद से दूसेर दिन पाकिस्तानी एयरफोर्स से लोहा लेता है. सरगोधा में एकत्रित पाकिस्तान के माडर्न और नई तकनीक वाले एयरक्राफ्ट्स को नष्ट करने के लिए स्काईफोर्स मिशन अहूजा की अगुवाई में प्लान किया जाता है. भारत इसमें सफलता हासिल करता है, लेकिन एक साथी इस मिशन में गुमशुदा हो जाता है. यह कोई और नहीं बल्कि टी विजया है. इस हादसे के बाद विंग कमांडर आहूजा की जिंदगी किस करवट बैठी है, परिवार का क्या हश्र होता है और विजया की खोज गति पकड़ती है.
रिव्यू:
फिल्म निर्देशक अमर कौशिक के सहायक रहे अभिषेक अनिल कपूर और संदीप केवलानी ने फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी संभाली है. इन निर्देशक द्वय में से संदीप केलवानी ने तीन अन्य लेखको के साथ लेखन में भी सहयोग दिया है. चार चार लेखकों के बावजूद फिल्म सही मापदंड स्थापित नही कर पाती. फिल्म की स्क्रिप्ट हिचकोले खाते हुए ही आगे बढ़ती है. जब एक वीर योद्धा व शहीद की कहानी बयां की जाएगी, तो उसमे वीरता, भावुकता, राष्ट्रवाद का आना स्वाभाविक है. ऐसी कहानियां हर दर्शक को पसंद आती हैं, मर्म को छूती है. इस वजह से फिल्म के साथ जुड़ते जाना भी स्वाभाविक है. मगर हकीकत तो यही है कि इंटरवल से पहले तो फिल्म काफी गड़बड़ है. स्क्रिप्ट लेखकों की मूर्खता के चलते खराब लेखन, मूर्खतापूर्ण चरित्र चित्रण और अब तक के नीरस अभिनय की बू आती है, जो दर्शकों को निराश कर सकती है. युद्धबंदी पाकिस्तानी सैनिक अहमद के किरदार को ठीक से लिखा ही नही गया. इंटरवल के बाद जब आहुजा, विजया की खोज के लिए तत्पर होते हैं, तब कुछ रोमांच पैदा होता है. और दर्शक भी इमोशनल होकर फिल्म के साथ जुड़ पाता है. यॅूं तो यह फिल्म शहीद देवैय्या यानी कि फिल्म में जो नाम है,उसके अनुसार शहीद विजय की है, मगर लेखकों व निर्देशकों के पूरी तरह से कन्फ्यूज होने के चलते यह फिल्म अक्षय कुमार के करेक्टर के ओ आहुजा की हो जाती है. दर्शक भी सोच में पड़ जाता है कि वह शहीद विजय की कहानी देखने आए हैं या आहुजा की. मतलब कहानी में भी भटकाव काफी है. ऐसे में दर्शक का फिल्म के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव नहीं हो पाता. इतना ही नही इस फिल्म को देखते हुए दर्शकों को अंग्रेजी फिल्म 'टॉप गन' की याद आती है. लेखको की दीमागी सोच पर तरस आता है, जब वह एअर फोर्स के जांबाज जवानों को पैंथर, बुल, टैबी, के अलावा 'कॉकरोच उपनाम देते है. कॉकरोच का चरित्र चित्रण जिस तरह से किया गया है, ऐसे शख्स को क्या वायुसेना अपना हिस्सा बनाती है, हमें संदेह है. फिल्म में हवाई हमले, युद्ध, लड़ाकू यानी कि फाइटर प्लेन, बहादुर एअर पायलट हैं और पायलट की वीरता व कारस्तानियां है,मगर आज का दर्शक जागरूक है, उसे पता है कि यह सब तो वीएफएक्स व सीजेआई का कमाल है. जब इन लड़ाकू विमानों की उड़ानों की अति हो जाती है. तो वह दर्शक को पसंद नही आता. फिल्म के अंतिम 20 मिनट ही दर्शकों को भावनात्मक रूप से अपने साथ जोड़ पाती है. ओर फिल्म के अंतिम द्रश्य, जब विजया के परिवार को 'महावीर चक्र' दिया जाता है, तो दर्शक की आंखे गीली हो जाती हैं. शायद लेखक व निर्देशक अपनी असफलता को छिपाने के लिए ही लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध और कवि प्रदीप लिखित गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों भर लो आँखों में पानी... 'दोहराया जाता है... शायद फिल्मकार दर्शकों से कहता है कि अब तो रो दो. आम दर्शकों को जो मसाला चाहिए, उसका इसमें घोर अभाव है. संगीत भी कमजोर है. लेखक व निर्देशक की इस बात के लिए प्रशंसा की जा सकती है कि पह अपनी फिल्म के माध्यम से एक सूक्ष्म राजनीतिक संदेश देने में जरुर सफल रहे है. फिल्म के कुछ संवाद और कुछ दृश्य अत्यधिक उपदेशात्मक लगते हैं. मसलन-एक संवाद है,जब संवाद के ओ आहूजा एक पाकिस्तानी अधिकारी को अपना परिचय 'तेरा बाप, हिंदुस्तान' कह कर देते हैं. शहीद की कहानी बयां करने वाली फिल्म में आइटम नंबर जरुर खलता है.
एक्टिंगः
जहां तक अभिनय का सवाल है तो अक्षय कुमार में कोई बदलाव नही आया. इस फिल्म के करेक्टर के लिए उन्होने कुछ मैनेरिजम जरुर सीख लिए है. अन्याथा वह हर द्रश्य में चिर परिचित अंदाज में सपाट सा चेहरा लिए तनकर खड़े रहते हैं. कम से कम अक्षय कुमार को चाहिए कि वह तीन चार माह फिल्मो से दूरी बनाकर थिएटर करते हुए अपने अंदर की अभिनय क्षमता को नए सिरे से तलाशे. पर वह ऐसा करने से रहें. अक्षय कुमार किसी भी द्रश्य में अपने अभिनय से प्रभावित नही कर पाते. शहीद विजया के किरदार में वीर पहाड़िया की तो यह पहली फिल्म हैं. उनके हिस्से ऐसे द्रश्य कम ही आए हैं, जहां उनकी अभिनय क्षमता का आकलन किया जा सके. जब आप लडाकू विामन में बैठकर जहाज उड़ा रहे हैं, तो वहां कौन सा एक्षन, कौन सा अभिनय. उनके अभिनय में इस तरह की भूमिका के लिए आवश्यक जुनून और एड्रेनालाईन की कमी है. वैसे भी वीर पहाड़िया में हीरो मैटेरियल नही है. विजया की पत्नी के किरदार में सारा अली खान के हिस्से भी करने को कुछ ज्यादा रहा ही नही. पर लगता है कि सारा अली खान ने यह फिल्म बेमन ही की है. जब वह गर्भवती हैं, उस वक्त के द्रश्य सही नही कहे जा सकते, सिर्फ वह मोटी नजर आती हैं. शायद लेखक, निर्देशक और सारा अली खान ने अपनी जिंदगी में किसी गर्भवती महिला को देखा ही नही हैं. देवय्या और उनकी पत्नी सुंदरी दक्षिण भारत से थे, लेकिनगीता के किरदार में सारा अली खान दक्षिण भारतीय नजर ही नही आती. दूसरी बात सारा अली खान की निजी जिंदगी में वीर पहाड़िया पूर्व प्रेमी रहे हैं, इसके बावजूद सिनेमा के परदे पर दोनों के बीच एक भी द्रश्य में भावनात्मक जुड़ाव न होना खटकता हे. निम्रत कौर के हिस्से भी कुछ करने को नही आयां अहमद हुसेन के छोटे किरदार में शरद केलकर अपनी छाप छोड़ जाते हैं. अन्य कलाकार ठीक ही हैं.
अंत मेंः
फिल्म का बजट साढ़े तीन सौ करोड़ है, आखिर यह पैसा कहां से मिलेगा? उपर से 24 से 26 जनवरी तक दर्शक को हर टिकट पर 250 रूपए की छूट मिलेगी, बशर्ते वह 'बुक माई शो' से टिकट खरीदे. इस छूट पर हम अलग से एक लेख में बात करेंगे.
Read More
Punjab 95 की रिलीज में देरी पर Diljit Dosanjh ने दी प्रतिक्रिया
लाइव कॉन्सर्ट में बिगड़ी सिंगर Monali Thakur की तबीयत, हॉस्पिटल में हुई एडमिट
हॉस्पिटल ले जाने वाले ऑटो ड्राइवर को Saif Ali Khan ने दिए 51 हजार
Vicky Kaushal ने फिल्म 'Chhaava' में मराठा योद्धा की भूमिका निभाने पर चुप्पी तोड़ी