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रेटिंग: तीन स्टार
निर्माताः देव अधिकारी, प्रतीक चक्रवर्ती, प्रीतम चैधरी, सरबानी मुखर्जी
लेखकः प्रियंका पोद्दार
निर्देशकः राम कमल मुखर्जी
कलाकारः राहुल बोस, रूक्मिणी मैत्रा, चंदन रॉय सान्याल, चंद्रेयी घोष, कौशिक गांगुली, राजदीप सरकार, ओम सहनी, गौतम हलदर, सौरव मोदक व अन्य.
अवधिः दो घंटा 33 मिनट
भाषा: बंगला, अंग्रेजी सब टाइटल्स के साथ 31 जनवरी को पैन इंडिया रिलीज
भारत ही नही बल्कि पूरे एशिया की पहली महला अभिनेत्री बिनोदिनी दासी (1863-1941), जिन्हें नटी बिनोदिनी के नाम से भी जाना जाता है, पर प्रदीप सरकार से लेकर कई फिल्मकार फिल्म बनाने का असफल प्रयास कर चुके है. चर्चा हो रही है कि अब बिनोदिनी दासी पर अनुराग बसु फिल्म बनाने जा रहे हैं, जिसमें मुख्य भूमिका में कंगना रानौट होगीं. जबकि फिल्म 'एक दुआ' के लिए राष्ट्रिय पुरस्कार हासिल कर चुके पत्रकार से फिल्मकार बने राम कमल मुखर्जी बिनोदिनी दासी के जीवन व कृतित्व पर बंगला भाषा में फिल्म "बिनोदिनीः एकटी नातिर उपाख्यान" लेकर आए हैं. यह फिल्म 23 जनवरी को पश्चिम बंगाल में रिलीज हो चुकी है. अब इसे अंग्रेजी सब टाइटल्स के साथ पैन इंडिया 31 जनवरी को रिलीज किया गया है. 1913 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा अमर कथा (द स्टोरी ऑफ माई लाइफ) में खुद बिनोदिनी दासी ने लिखा है कि उन्होने बारह साल की उम्र में अभिनय करना शुरू किया था और 23 साल की उम्र में अभिनय से दूरी बना ली थी.
स्टोरीः
कहानी शुरू होती है छोटी बच्ची पुती (स्वरा भट्टाचार्य) से. गरीब परिवार में जन्मी पुत्ती बचपन में तवायफ गंगा बाई से संगीत सीखती थीं. और उनके साथ संगीत सत्रों में जाती थीं. नौ साल की उम्र में एक नाटक देखकर उसके मन में भी अभिनय करने का सपना जागा. एक वेश्या गोलाप (चंद्रेयी घोष) की साजिशों से उसे थिएटर में अभिनय करने का मौका मिलता है. जल्द ही, वह प्रसिद्ध नाटककार गिरीश चंद्र घोष (कौशिक गांगुली) की नजर में आ गई, जो उसे तैयार करते हैं और उसका मार्गदर्शन करते हैं और उसे अपने नाटकों में लॉन्च करते हैं. जबकि गुरू की भूमिका रंगा बाबू (राहुल बोस) निभाते है. 1874 यानी कि बारह साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता के राष्ट्रीय रंगमंच में इसके संस्थापक गिरीश चंद्र घोष के निर्देषन में पहली बार गंभीर नाटक में अभिनय कर सभी को अपना मुरीद बना लिया. उनकी शोहरत के साथ ही उन्होने अपना नाम बदलकर बिनोदिनी (रूक्मिणी मैत्रा) रख लिया. गिरीश चंद्र उन्हे बिनोदिनी दासी बुलाया करते. उनका करियर बंगाली थिएटर जाने वाले दर्शकों के बीच यूरोपीय थिएटर के प्रोसेनियम-प्रेरित रूप के विकास के साथ मेल खाता था. बारह साल के करियर के दौरान उन्होंने अस्सी से अधिक भूमिकाएँ निभाईं, जिनमें प्रमिला, सीता, द्रौपदी, राधा, आयशा, कैकेयी, मोतीबीबी और कपालकुंडला समेत अन्य भूमिकाएँ शामिल थीं. बिनोदिनी दासी इतनी लोकप्रिय हो गयी कि जयपुर का राज कुमार प्रताप बाबू (विश्वजीत घोष) उनके प्यार में पागल हो गया और दोनो ने एक माह तक वाराणसी में समय बिताया था. पर बाद में उसने उन्हे धोखा देकर अपने माता पिता की पसंद की लड़की से विवाह किया था. इसके बाद राजस्थान के ही मारवाड़ी उद्योगपति गुरमुख (मीर अफ़सर अली) की नजर उन पर पड़ी और गुरू दक्षिणा देने तथा थिएटर को बचाने के लिए बिनोदिनी को गुरमुक की रखैल बनना पड़़ा. पर गिरीश चंद्र व रंगा बाबू ने धोखा देकर गुरमुख द्वारा बिनोदिनी के नाम थिएटर बनवाने के वादे को उनके नाम पर नही बनने दिया था. वह स्टार थिएटर बना था, जिस पर पूरा कब्जा गिरीश चंद्र का था. 19वीं सदी के बंगाल के महान संत रामकृष्ण (चंदन रॉय सान्याल) 1884 में उनका नाटक देखने आए थे. फिर वह प्रताप बाबू अपनी पत्नी की मौत के बाद वापस बिनोदिनी की जिंदगी में आता है और उनसे विवाह कर अपने साथ ले जाता है. ठाकुर की मौत के बाद पुनः बिनोदिनी वहीं तवायफ घर में लौटती है. वह अपनी आत्मकथा लिखने वाली थिएटर की पहली दक्षिण एशियाई अभिनेत्रियों में से एक थीं.
रिव्यूः
पीरियड फिल्म में सबसे बड़ी जरुरत होती है, जिस काल का कथानक हो, उस काल को सही अंदाज में परदे पर उतारना. इस मामले में फिल्म 'बिनोदिनीः एकटी नातिर उपाख्यान' के निर्देशक कमल मुखर्जी खरे उतरे है. फिल्म में उन्नीसवी सदी के कोलकता को हूबूह उतारने के लिए निर्देशका कमल मुखर्जी और कला निर्देशक बधाई के पात्र हैं. बेहतरीन पटकथा पर एक बेहतरीन फिल्म बनायी गयी है. 1874 से 1876 तक के बंगाल को सही अर्थों में परदे पर उकेरते हुए उस समय की लोकप्रिय दुकानों के संदर्भ के साथ-साथ बिनोदिनी दासी, गिरीश चंद्र घोष और रामकृष्ण परमहंस की मौजूदा तस्वीरों का अनुकरण कर निर्देशक ने वेशभूषा और हेयर स्टाइल तक केा सटीक ढंग से परदे पर उकेरा है. फिल्मकार ने अभिनेत्री बिनोदिनी दासी के शुरुआती संघर्षों को नजरंदाज कर उनकी सफलता के काल, गुरू दक्षिणा के नाम पर एक नारी के शोषण आदि को ही ज्यादा अहमियत दी है, जबकि नारी सशक्तिकरण के दृष्टिकोण से पुत्ती उर्फ बिनोदिनी के संघर्ष को चित्रित करना चाहिए था और इस चित्रण के दौरान पुत्ती को तवायफ बनने के लिए मजबूर होने का चित्रण करते हुए उस काल की सामाजिक व्यवस्था व तवायफ के प्रति आम इंसान की सोच आदि पर प्रहार करना चाहिए था, जिससे वह बच निले है. निर्देशक इस बात को बाखूबी चित्रित करने में सफल रहे हैं कि रंगमंच अभिनेत्री बनने के बाद भी बिनोदिनी केा किस तरह से सामाजिक निंदा और पहचान की एक अदम्य प्यास के साथ व्यक्तिगत संघर्ष भी करना पड़ा था. रंगा बाबू और गिरीश चंद्र घोष के किरदारों के मनेाविज्ञान पर भी रोशनी डाली जानी चाहिए थी, तभी बिनोदिनी का किरदार और अधिक निखर कर आता. हीकत तो यह है कि रंगा बाबू के किरदार के साथ न्याय ही नही किया गया. बिनोदिनी ने रंगमंच के लिए अलग तरह की मेकअप शैली अपनायी थी,जो कि यूरोपीय और भारतीय तकनीकों का मिश्रण था. इस पर राम कमल मुखर्जी कुछ नही कह पाए. राम कमल मुखर्जी की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होने इतिहास के पन्नों में खो चुकी अभिनेत्री बिनोदिनी दासी को वर्तमान पीढ़ी से परिचित कराने का काम किया है. यह फिल्म शाश्वत मानवीय भावना का एक सम्मान है. यह फिल्म कहीं न कहीं हर इंसान को आत्मनिरीक्षण करने की भी सलाह देती है. सौमिक हलदर ने अपने की कैमरा कौशल को उस काल के साथ ही चरित्र को को भी गढ़ने मे काफी मदद की है. फिल्म का संगीतपक्ष कुछ कमजोर हो गया है. उस काल में फोक संगीत ज्यादा लोकप्रिय था, जिसका फिल्म में उपयोग कम ही किया गया है. श्रेया घोषाल द्वारा स्वरबद्ध गीत 'कान्हा' काफी अच्छा बना है.
एक्टिंगः
अफसोस की बात यह है कि ज्यादा तर कलाकार यह भूल गए कि वह उन्नीसवी सदी के किरदार निभा रहे हैं, क्योंकि कई किरदार आधुनिक लहजे में ही बात करते हुए नजर आते है. यह बात खलती है. फिर भी बिनोदिनी के करेक्टर में रुक्मिणी मैत्रा का अभिनय कमाल का है. रूक्मिणी मैत्रा 2017 से अब तक लगभग दस बंगला फिल्मों के अलावा बतौर हीरोईन विद्युत जामवाल संग फिल्म 'सनक' में अभिनय कर पहले ही साबित कर चुकी थी कि उनके अंदर अभिनय प्रतिभा है. अब बिनोदिनी के अति जटिल किरदार में वह सभी को भा जाती है. फिल्म में 'कृष्णा गीत में कत्थक नृत्य करते हुए वह सभी का मन मोह लेती है. इतना ही नही राम कृष्ण परमहंस के पुरुष किरदार में रूक्मिणी मैत्रा ने साबित किया है कि अभिनय में उनका कोई सानी नही है. एक परिपक्व महिला के रूप में जो अकेलेपन और मोहभंग से जूझ रही है, वह एक शांत तीव्रता का संचार करती है जो फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शक के दिमाग में बनी रहती है. पुत्ती के किरदार में बाल कलाकार स्वरा भट्टाचार्य दर्शकों की आंख का तारा बन जाती है. कौशिक गांगुली ने नाटक लेखक व निर्देशक गिरीश चंद्र घोष के करेक्टर में कौशिक गांगुली का अभिनय शानदार है. कुटिल व्यंग्यात्मक दाशु बाबू की भूमिका में गौतम हलदर अपनी छाप छोड़ जाते है. गोलाप/गंगा बाई के रूप में चंद्रेयी घोष की सशक्त उपस्थिति है. यू तो रंगा बाबू के चरित्र में राहुल बोस के हिस्से कुछ खास करने को नही आया, मगर उनका अभिनय आकर्षण और व्यावहारिकता से भरपूर है. श्री रामकृष्ण परमहंस के किरदार में चंदन रॉय सान्याल फिल्म को एक आध्यात्मिक आयाम देते है. उनकी शांति बिनोदिनी के जीवन की उथल-पुथल में एक मार्मिक प्रतिवाद जोड़ती है.
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