1950 का दशक बॉलीवुड के उन सितारों के नाम था जिन्हें आज तक नए कलाकार देखकर सीखते हैं। बहुत से तो सिर्फ उनकी मिमिक्री भर करके अपना जीवन अच्छे से गुज़ार रहे हैं। ये लार्जर देन लाइफ कलाकार और कोई नहीं बल्कि इंडस्ट्री के वही तीन दिग्गज हैं जिन्हें आप - देव आनंद, राज कपूर और ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार के नाम से जानते हैं। लेकिन कोई मुझसे पूछे कि सन 50 के दशक में क्या सिर्फ इन्हीं का जलवा था तो मेरा जवाब होगा नहीं! एक कलाकार और ऐसा था जिसने करीब दस साल के लम्बे संघर्ष के बाद इंडस्ट्री को एक ऐसी फिल्म दी जिसका आज भी कोई जवाब नहीं है।
ये फिल्म थी बैजु बाँवरा और वो खूबसूरत, डैशिंग और लड़कियों के दिलों में जगह बनाने में माहिर कलाकार था “भारत भूषण”
भारत भूषण का फिल्मी सफ़र यूं तो सन 41 में आई चित्रलेखा से ही शुरु हो गया था लेकिन तब की फिल्म इंडस्ट्री आज जैसी नहीं थी कि एक फिल्म करके करोड़ों मिल गए और कुछ नहीं तो टीवी कमर्शियल या मॉडलिंग में ही हाथ आजमाकर अपनी जगह पक्की कर ली। तब न आज जितना पैसा बहता था और न ही इतने विकल्प मौजूद थे।
भारत भूषण ने अगले दस साल तक भाईचारा, भक्तकबीर, सावन और सुहागरात सरीखी फिल्में ज़रूर कीं लेकिन उन्हें दुनिया ने तब जाना जब वो तानसेन के सामने अपनी वीणा लिए खड़े हो गए और अकबर के नवरत्नों में से एक को चुनौती दे डाली।
सन 52 में आई बैजु बाँवरा में भारत भूषण टाइटल रोल में थे। बैजु एक ऐसे लड़के की कहानी है जिसके पिता एक संगीतकार-गायक थे लेकिन तानसेन से एक झड़प के चलते उनकी मौत हो जाती है। बैजु के मन में तानसेन से प्रति नफ़रत भरी हुई है, उसने अपने पिता से वादा किया है कि वो तानसेन से उनकी मौत का बदला ज़रूर लेगा। लेकिन मुहब्बत में पड़कर बैजु अपने बाप को दिया वचन कुछ समय के लिए भूल जाता है। फिर भूले भी क्यों न, आखिर जिसकी मुहब्बत में बैजु गिरफ्तार होता है वो बॉलीवुड इंडस्ट्री की सबसे खूबसूरत अभिनेत्रियों में से एक “मीना कुमारी” होती हैं।
बैजु बाँवरा अगर आप देखेंगे तो जानेंगे कि बैजु का ये रोल बना ही भारत भूषण के लिए था। इस फिल्म को बनाने के पीछे भी बड़ी मेहनत लगी थी।
विजय भट्ट इस फिल्म के निर्माता और निर्देशक थे। फिल्म लिखने का जिम्मा पाकिस्तानी लेखक ज़िया सरहदी पर था। ज़िया उन दिनों फिल्म इंडस्ट्री की बैकबोन हुआ करते थे। अब तानसेन और बैजु जैसे पात्र पर बनी कहानी पर फिल्म बनाने का मतलब था कि फिल्म का संगीत बहुत लाजवाब होना चाहिए।
जब भी लाजवाब और क्लासिक शास्त्रीय संगीत की बात आती थी तो पूरी इंडस्ट्री के पास बस ही एक नाम बचता था, नौशाद साहब। वो नौशाद साहब ही थे जिन्होंने आगे चलकर ‘मदर इंडिया’ और उस सदी की सबसे बड़ी फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में भी अपना संगीत पिरोया था। नौशाद साहब ने विजय भट्ट से बात की और दोनों ने तय किया कि इस फिल्म का हर गीत एक राग पर चलना चाहिए। नौशाद साहब ने फिल्म के मुख्य गायक के रूप में मुहम्मद रफी को चुना और फिर जो गाने बने, उन्हें आज भी दोहराने से पहले गायक एक हाथ अपने कान पर लगाकर उस्तादों को नमन करते हैं।
मुहम्मद रफी तो फिल्म के गायक थे ही, लेकिन नौशाद साहब ने इस फिल्म में उस्ताद आमिर खान और डीवी पुष्कर को भी जोड़ा था क्योंकि उस दौर में राग की समझ उस्ताद आमिर खान से बेहतर भला किसे हो सकती थी।
इसमें मुहम्मद रफी की आवाज़ में गीत “तू गंगा की मौज” अगर आप सुने तो जानेंगे कि ये राग भैरवी में गाया गया है। वहीं उस्ताद आमिर खान का गाया “आज गावत मन मेरा झूम के” राग देशी में बना है।
लेकिन, इस फिल्म के ज्यूकबॉक्स का सबसे पॉपुलर और सबसे मुश्किल गीत, जिसे मुहम्मद रफी तहेदिल से गाया था “ओ दुनिया के रखवाले..” राग दरबारी में था और इस गीत को देखते वक़्त अच्छे-अच्छों के आँसू निकल गए थे।
वजह?
भारत भूषण ने इस गाने के शूट होते वक़्त सिर्फ एक्टिंग ही नहीं की थी बल्कि इस गीत को जिया था। उनकी आँखें, उनकी बॉडीलैंग्वेज और प्ले-बैक में सातवें सुर को छूती मुहम्मद रफी की आवाज़ ने दर्शकों तब भी मंत्रमुग्ध सा कर दिया था और आज भी अगर कोई देखे तो अपनी आँखों को बहने से रोक नहीं पाता है।
बैजु बाँवरा के बेजोड़ कामयाबी के बाद भारत भूषण ने आनंदमठ की, ये फिल्म भी बहुत हिट हुई। फिर 1954 में श्री चैतन्यमहाप्रभु के लिए भारत भूषण के फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीता। ये उनका पहला और अंतिम फिल्म फिल्मफेयर अवॉर्ड था।
इसी दशक में 1956 में उन्होंने फिल्म मिर्ज़ा-ग़ालिब भी की और गुलज़ार के मिर्ज़ा-ग़ालिब सीरीअल आने से पहले तक, या मैं ये लिखूँ कि नसीरुद्दीन के मिर्ज़ा नौशां के किरदार को निभाने से पहले तक दुनिया भर के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब का कोई चेहरा था तो भारत भूषण ही थे।
अफ़सोस है कि ऐसे उम्दा, अपने पात्र में घुल जाने वाले कलाकार को दुनिया ने ऐसे भुला दिया जैसे कोई बुरा वक़्त भुलाता हो। इन सब एक से बढ़कर एक फिल्में देने के बावजूद एक समय भारत भूषण को छोटे-छोटे रोल करने के लिए भी मजबूर होना पड़ा था।
भारत भूषण का बंगला बांद्रा में था। उन्हें किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। जब उनकी कुछ फिल्में न चलीं और इंडस्ट्री ने उन्हें लीड रोल्स देने कम कर दिए तो उन्होंने अपने भाई के साथ production में भी हाथ आजमाया मगर अफ़सोस, उनकी ज़्यादातर फिल्में फ्लॉप हो गयीं।
वो दौर भी आया जब भारत ने अपनी गाड़ी बेची, कीमती सामान भी धीरे-धीरे बिकता गया और फिल्में फ्लॉप होती रहीं। फिर एक वक़्त ऐसा भी आया जब भारत भूषण सिक्के-सिक्के को मोहताज हो गए और उनका बंगला भी बिक गया। हर दुख का, दर्द का कहीं न कहीं, कभी न कभी तो अंत होता ही है; 71 साल की उम्र में, 27 जनवरी 1992 के दिन भारत भूषण के बुरे दिनों का भी अंत हुआ वो इन सारी तकलीफों से दूर इस दुनिया को अलविदा कहकर चले गए।
उनकी शुरुआत भी संघर्ष के साथ हुई थी, उनका अंत भी संघर्ष में ही हुआ। उनकी बेटी अपराजिता ने उनकी विरासत संभालते हुए 50 से ऊपर फिल्में और टीवी सीरीअल ज़रूर किए लेकिन जैसा कि फिल्म में दिखाया था; तानसेन से टक्कर लेने वाला बैजु, बादशाह अकबर के अमूल्य रत्न तानसेन को हराने वाला बैजु आखिर में अपनी नांव पार न लगा सका और इस फ़ानी दुनिया से परे कहीं मजधार मे डूब गया और खो गया।
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