अली पीटर जॉन
वो पहली अभिनेत्री है जिनसे मैं अपने स्कूल के समय में प्यार में पड़ गया था. हाँलाकि बाद में मुझे यह एहसास हुआ कि वो प्यार नहीं, फैंस का अपने स्टार के प्रति जुनून और पागलपन था. अगर मैं किसी का सही मायने में फैन रहा हूं और अब भी हूं तो वो है यह अभीनेत्री जिसको दुनिया आशा पारेख के नाम से जानती है. मैंने उनकी पहली फिल्म 'दिल दे कर देखो' जिसमें शम्मी कपूर थे उस फिल्म से लेकर उनकी अंतिम फिल्म 'कालिया' जिसमें उन्होंने अमिताभ बच्चन की मां का किरदार निभाया था, उनकी हर फिल्म देखी है मैंने.
मैं हर स्टूडियो में जाता था जहां पर वो शूट कर रही होती थी. मैं सच कहूं तो उनका पीछा करता था और कितने सालों तक करता रहा जब तक मुझे इस इंडस्ट्री में जॉब नहीं मिल गई. मैं बिल्कुल पागल हो गया था जब मेरे बॉस ने मुझसे कहा कि वह मुझे आशा पारेख की फिल्म की शूटिंग दिखाने ले जा रहे हैं. मैं जिस लड़की से प्यार करता था वो भी आशा पारेख की फैन थी और मैं इसी इंतजार में था कि मैं कब उसे आशा पारेख के साथ अपनी फोटो और उनकी ऑटोग्राफ दिखाकर इंप्रेस करूंगा. पर मेरे क्रूर और हृदय हीन बॉस ने कहा कि यह एक पत्रकार की गरिमा को कम करेगा यदि मैं किसी स्टार से फोटो यहां ऑटोग्राफ मांगने जाऊं तो. मैं अखबार में उनसे जुड़ी हर खबरें पढ़ता था और प्रत्येक मैगजीन और न्यूज़पेपर में उनकी फोटोग्राफ देखता था. मेरी उस वक्त की आशाहीन जीवन में प्रकाश लाने वाली एकमात्र इंसान थी आशा पारेख और ये बात मैं पहली बार स्वीकार कर रहा हूं.
मैं जिम्मेदार पत्रकार रहा हूँ पर फिर भी मेरे भीतर कहीं ना कहीं आशा पारेख के लिए दीवानगी छुपी थी. ऐसे भी बहुत से मौके आए जब मैं उनके सामने खड़ा था पर कुछ बोल नहीं पाया और मेरी इस चुप्पी ने गलतफहमी पैदा कर दी. आशा ने एक बार मेरे एक सीनियर से कहा कि मैं बहुत ही अकड़ू लगता हूँ उनको और मैं उन्हें ऐसे देखता हूं जैसे प्राण साहब उन्हें फिल्मों में देखा करते थे. यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा था. धीरे-धीरे हमारी बातें शुरू हुई और हम एक दूसरे को जानने लगे. मैंने उन्हें ग्लैमरस हीरोइन से गंभीर अभिनेत्री बनते हुए देखा है. उन्हें समाज सेवा में बहुत रुचि है. बहुत से राजनीतिक दल ने उन्हें राजनीति में आने के लिए भी कहा पर उन्होंने मना कर दिया. आशा स्क्रीन अवॉर्ड्स की चेयरपर्सन भी रही हैं.
उनको केंद्रीय फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड का चेयरपर्सन भी नियुक्त किया गया था और उन्होंने सेंसरशिप के मामले में बहुत ही बढ़िया काम किया. उन्होंने कुछ टीवी सीरियल्स भी निर्देशित किए पर उन्हें धीरे-धीरे समझ में आया कि यह सब सिर्फ टीआरपी रेटिंग्स का खेल है और उन्होंने सीरियल बनाना छोड़ दिया. आशा अपने जुहू के बंगले से एक आलीशान अपार्टमेंट में शिफ्ट हो गई है जहां उनके बहुत से अच्छे दोस्त आते जाते रहते हैं. हाल ही में उन्होंने गोवा में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में शिरकत की जहां उन्होंने आज की फिल्में और पहले की फिल्मों के बारे में बातें की.
उनके सीक्रेट्स
क्या सीक्रेट? कोई सीक्रेट नहीं है. भगवान ने मुझे,मैं जैसी हूं वैसा ही बनाया है. मैं भगवान में हमेशा से विश्वास करती हूं. मेरे जीवन में जो कुछ भी हुआ है, मैंने जो कुछ भी पाया है वो सिर्फ और सिर्फ भगवान की कृपा है. भगवान हमेशा से मेरे प्रति बहुत दयालु रहे हैं. उन्होंने मुझे हमेशा सही मार्ग दिखाया है. अगर वो नहीं होते तो आज मैं जो कुछ भी हूं शायद नहीं होती.इसलिए मैं भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं.
आज जो उनकी पोजीशन है
जो भी मेरे पास है, वो प्रतिभा मुझे मेरे भगवान ने दी है. मैं हमेशा से नृत्य में अच्छी रही हूं. मुझे लगता है कि मेरे नसीब में ही अभिनेत्री बनना लिखा था और मैं बन गई. मैंने अपना सौ प्रतिशत दिया है एक अच्छी अभिनेत्री बनने के लिए. मैं हमेशा से सीखने में विश्वास करती हूं और मैंने बहुत सी चीजें हैं जो फिल्म की शूटिंग के दौरान ही सीखे हैं. जीवन सबसे अच्छा शिक्षक होता है यह आपको किसी किताब, किसी टीचर से भी ज्यादा अच्छे से सबक सिखाता.
संतुष्टि
कड़ी मेहनत और धैर्य ये दोनों चीजें अगर आप किसी काम के दौरान करते हो तो इसका फल आपको जरूर मिलता है. मुझे 'दो बदन' , ' मेरा गांव मेरा देश' , 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' , 'कटी पतंग' जैसीे फिल्मों के बाद पहचान मिली,लोगों ने तारीफें की.
कंपटीशन के बारे में
मैंने हमेशा अपने किरदार के साथ न्याय करने की कोशिश की है . मैंने खुद की कभी किसी और अभिनेत्री से तुलना नहीं की. मैं किसी कंपटीशन का हिस्सा नहीं बनना चाहती थी. मैं हमेशा अपने करियर से खुश रही हूं और मुझे ऐसा लगता है कि आप वही पाते हैं जो आप डिजर्व करते हैं और जो भगवान ने आपके लिए योजना बनाई होती है. मैं हमेशा हर परिस्थिति में खुश रहती हूं और जब आप हर स्थिति में खुश रह सकते हैं तो फिर और क्या चाहिए.
आज की महिलाओं के बारे में
मैं कुछ भी निर्णय लेने के लायक खुद को नहीं समझती हूं. पर फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि हमारे जमाने में अभिनेत्रियों को बढ़िया और अच्छा किरदार निभाने को मिलता था. उस वक्त हमारे निर्देशक और लेखक महिलाओं के लिए अच्छा किरदार बनाते थे. पर आज के जमाने में कहां कोई ऐसी फिल्में हैं जहां महिला किरदार को प्रमुख भूमिका निभाने का मौका मिला हो . हम बहुत ही भाग्यशाली थे कि हमें ग्लैमरस के साथ-साथ रियल लाइफ किरदार निभाने का भी मौका मिला. मैं बहुत से ऐसे अभिनेत्रियों को देखती हूं जिनके भीतर बहुत कुछ अच्छा करने की क्षमता है पर उनको उनके क्षमता के साथ न्याय करने वाले किरदार नहीं मिलते हैं.
अपने पसंदीदा निर्देशक के बारे में
हमारे समय में निर्देशक अलग-अलग फिल्में बनाने में माहिर होते थे और कुछ निर्देशक ऐसे होते थे जो अभिनेत्रियों के किरदार को बहुत ही अच्छे तरीके से पर्दे पर दिखाते थे. मैं राज खोसला, विजय आनंद, मनोज कुमार शक्ति सामंत जैसे निर्देशकों के साथ काम करके खुद को भाग्यशाली मानती हूं. मुझे लगता है कि अब भगवान ऐसे निर्देशक बनाना बंद कर चुके हैं. उनको स्क्रिप्ट, किरदार इन सब के बारे में बहुत गहन और बढ़िया जानकारी हुआ करती थी. उन्हें एक महिला के मजबूत पक्ष और कमजोर पक्ष दोनों बारे में पता होता था . उनको पता था कि अपने अभिनेत्रियों के साथ कैसे व्यवहार करना है,उनके किरदार को कैसे बेहतर बनाना है. और सबसे महत्वपूर्ण बात कि वो अपनी अभिनेत्रियों का ख्याल और सम्मान दोनों करते थे.
आज की फिल्मों के विषय पर
मैं ज्यादा फिल्में नहीं देखती हूं. आजकल सभी तरीके की फिल्में बनती हैं. बहुत कुछ बदलाव आया है इंडस्ट्री में. ऐसा लगता है जैसे कि किसी दूसरे देश में किसी दूसरे युग में जी रही हूं. हम दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश में रहते हैं. फिर क्या फायदा जब फिल्मों की क्वालिटी ही बढ़िया ना हो? हम क्वांटिटी पर तो ध्यान दे रहे हैं पर क्वालिटी पर नहीं दे रहे हैं. हमें अपने भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता को भूलकर फिल्में नहीं बनानी चाहिए. मेरी एक छोटी सी सुझाव है सभी फिल्ममेकर से कि अच्छे विषय पर फिल्में बनाएं और अच्छे लेखक के साथ काम करें. अगर लेखक अच्छे नहीं होंगे तो फिर फिल्म अच्छी नहीं बनेगी. पर फिर भी उम्मीद है कि हालात बढ़िया होंगे क्योंकि मैं बहुत आशावादी हूं. मुझे युवा निर्देशकों में सूरज बड़जात्या, प्रियदर्शन और करण जौहर से बहुत उम्मीदें हैं, जो हिंदी फिल्म को बहुत उज्जवल भविष्य की ओर ले जाएंगे.
सेंसरशिप के बारे में
मुझे लगता है कि सेंसरशिप घर से शुरू होनी चाहिए जहां पैरेंट्स अपने बच्चे पर ध्यान दें कि वो कैसी फिल्में देख रहे हैं. सेंसर बोर्ड के मामले में राजनीतिक कोई भी दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए. मुझे लगता है कि सेंसरशिप सबसे पहले हमारे स्क्रिप्ट लिखने वाले लेखक और फिल्ममेकर कर सकते हैं. जब वो कोई फिल्म बना रहे होते हैं तो उनके भीतर एक जिम्मेवारी होनी चाहिए कि वो अपने फिल्म के द्वारा पूरे देश में कुछ संदेश देंगे. जिस दिन हम इस जिम्मेदारी के साथ फिल्में बनाएंगे उस दिन से सेंसर बोर्ड का कोई डर ही नहीं होगा.
करने की इच्छा
मैं वो फिल्म करूंगी जिसमें मेरा किरदार मेरी उम्र के हिसाब से सही और सटीक होगा और मुझे एक अभिनेत्री होने के तौर पर संतुष्टि देगा. मैं अपने जीवन के इस पड़ाव पर भी काम करना पसंद करूंगी. अपने ऊपर बॉयोपिक के बारे में पूछने पर कि क्या वो चाहेंगी कि उन पर फिल्म बने और अगर चाहेंगी तो किस अभिनेत्री द्वारा खुद का किरदार निभवाना पसंद करेंगी तो उन्होंने आलिया भट्ट का नाम लिया. उनके ऊपर लिखी किताब 'हिट गर्ल' में उनके और फिल्ममेकर नासिर हुसैन के बीच अफेयर की बातें भी हैं जिनके साथ आशा ने सबसे ज्यादा फिल्में की हैं
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