1964 में रिलीज हुई फिल्म 'Woh Kaun Thi?' में आए कई ट्विस्ट एंड टर्न डॉ. आनंद के मन में सवाल आता है, “वो कौन थी?” 7 फरवरी 1964 को मुंबई में 'वो कौन थी?' रिलीज़ होने के साठ साल बाद, इस रहस्यमय मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के गाने आज भी किसी शांत शाम को या कार के टेप रिकॉर्डर पर गाड़ी चलाते समय सुनने में आनंददायक होते हैं. By Mayapuri Desk 07 Feb 2024 in एंटरटेनमेंट New Update Follow Us शेयर चित्र की शुरुआत रोमांचक और रोमांचकारी है. स्क्रीन पर आंख को पकड़ने वाला. डॉ. आनंद (मनोज कुमार) एक गाँव की सुनसान सड़क पर अपनी कार चला रहा है और देर शाम घर जा रहा है. आसमान में काले बादल छाये हुए हैं. तभी अंधेरा हो जाता है और तेज़ बारिश शुरू हो जाती है. सड़क पर जगह-जगह गड्ढे हैं. वह क्षतिग्रस्त हो गया है, ऐसा कैसे होता है कि जब बशी भारी बारिश में कार चला रहा होता है, तो कार के सामने सफेद पोशाक में एक युवा महिला (साधना) दिखाई देती है. आनंद ने कार रोकी और उससे सवाल किया. इतनी रात और बारिश में वह क्या कर रही है, कहाँ जाना चाहती है, हम उसे कहाँ छोड़ें? आनंद उससे यह पूछता है और उसे अपनी कार में बैठने के लिए कहता है. जैसे ही वह बैठती है, विंडशील्ड वाइपर बंद हो जाते हैं. फिर सामने की सड़क दिखाई नहीं देती. इस पर वह कहती हैं, मैं सब कुछ देख सकती हूं. मैं रास्ता बताता हूं. आनंद ने कार स्टार्ट की और जल्द ही उसके हाथ पर खून देखकर चौंक गया. इस पर वह कहती हैं, मैं एक तस्वीर ले रही थी. इसका यह रंग है. कार कई मोड़ लेती है और युवती कार को एक जगह रुकने के लिए कहती है. यह एक कब्रिस्तान है. जैसे ही युवती कार से बाहर निकलती है, शीशा साफ हो जाता है, वाइपर चालू हो जाता है और कब्रिस्तान के दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं. खुशी स्पष्ट है. थोड़ा डर भी लगा. युवती कब्रिस्तान में प्रवेश करती है और गायब हो जाती है. डॉ. आनंद के मन में सवाल आता है, “वो कौन थी?” 7 फरवरी 1964 को मुंबई में 'वो कौन थी?' रिलीज़ होने के साठ साल बाद, इस रहस्यमय मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के गाने आज भी किसी शांत शाम को या कार के टेप रिकॉर्डर पर गाड़ी चलाते समय सुनने में आनंददायक होते हैं. चित्र की भयावहता और उसमें मौजूद संगीत में एक अनोखी केमिस्ट्री है. 'वो कौन थी' (अंग्रेजी: 'वो कौन थी?') उस समय की बहुत अच्छी और प्रभावी थ्रिलर है. फिल्म ध्रुव चटर्जी द्वारा लिखी गई है और राज खोसला द्वारा निर्देशित है. फिल्म का निर्माण एन. ने किया था. एन. सिप्पी का. फोटोग्राफर के. एच. कपाड़िया. फिल्म के कृष्णा धवल यानी ब्लैक एंड व्हाइट होने से इस हॉरर को काफी फायदा हुआ है. फिल्म में कुछ टर्न और ट्विस्ट. उस लड़की का नाम संध्या है. वह डॉ. आनंद फिर देखता है और फिर मिलता है. ऐसा कुछनहीं होता, ये एक भ्रम है. ख़ुशी समझ में आती है. क्या इस सब में डॉ. आनंद के लंबे भाई रमेश (प्रेम चोपड़ा) की कोई कुटिल योजना है? एक और झटका यह है कि उनकी एक जुड़वां बहन भी है जो बिल्कुल संध्या की तरह दिखती है. डॉ. आनंद को अपनी दोस्त सीमा (हेलेन) पर विशेष क्रश है. फिल्म का दूसरा भाग ऐसी कई चीजों से आकार लेता है. समसामयिक समीक्षकों को यह सीक्वल बहुत रोचक या दिलचस्प नहीं लगा. फिल्म प्रेमी प्रभावित नहीं हुए. उन्हें फिल्म में रहस्य, कब्जे की भावना पसंद आई. फिल्म सुपरहिट हुई. हम यही चाहते हैं. गिरगांव, मुंबई में सेंट्रल थिएटर में पच्चीस सप्ताह की रजत जयंती सफलता. फिल्म में के. एन. सिंह, राज मेहरा, धूमल, प्रवीण चौधरी, मोहन चोटी, रत्नमाला, पॉल शर्मा आदि. दरअसल ये कहानी गुरुदत्त के साथ थी. वह इस पर फिल्म बनाने जा रहे थे. लेकिन किसी कारणवश ऐसा नहीं हो सका. ये बात राज खोसलान को पता थी. उन्होंने गुरुदत्त से कहानी ली और ध्रुव चटर्जी से स्क्रिप्ट को उस रूप में लिया जैसा वे चाहते थे. फिल्मों को दिलचस्प बनाने के लिए ऐसी कई तरकीबें अपनाई जाती हैं. एक निर्देशक का अपना दृष्टिकोण होता है. किसी फिल्म को दर्शकों के सामने ले जाते समय व्यापार की कुछ तरकीबें होती हैं. कोई कभी नहीं बता सकता कि कौन सफल होगा. 'नायिका प्रधान रहस्य फिल्म' के लिए राज खोसला द्वारा माध्यम का चुनाव महत्वपूर्ण है. तब तक साधना को 'हम दोनों' में विजय आनंद ने निर्देशित किया था, एस. एच. रवैल द्वारा निर्देशित 'मेरे मेहबूब' की सफलता से साधना फॉर्म में थीं. वो कौन थी की सफलता ने साधना को स्थापित किया. सिनेमा की दुनिया में सफलता ही मुद्रा है. 1964 में साधना की 'वो कौन थी?' और 'राजकुमार' शम्मी कपूर नायक), 'दूल्हा दुल्हन' (राजकपूर नायक. साधना को बिल्कुल पसंद नहीं आई. हंसते हुए) आईं. वह राज खोसला ही थे जिन्होंने अपने द्वारा निर्देशित रहस्यमयी फिल्मों 'मेरा साया' (1966) और 'अनीता' (1967) में एक बार फिर साधना को नायिका के रूप में लिया. 'मेरा साया' राजा परांजपे द्वारा निर्देशित मराठी फिल्म 'पथलैग' (1964) की रीमेक है... कई लोगों ने मनोज कुमार के चयन पर सवाल उठाए. लेकिन राज खोसला दृढ़ थे. निर्देशक फिल्म को कागज पर और कास्टिंग में इसी तरह देखता है. इस फिल्म से मनोज कुमार ने कैमरामैन के पीछे खड़े होकर यह सीखना शुरू कर दिया कि उनके सामने का दृश्य कैसा दिखता है, उसे कैसे फिल्माया जाता है और यहीं से वह एक फिल्म निर्देशक के रूप में स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ने के बारे में सोचने लगे. 'पर्दे के पीछे की चीज़ें' भी हैं. यह प्रेम चोपड़ा के करियर की शुरुआत थी. उन्होंने एक पंजाबी फिल्म में काम किया. हालाँकि हिन्दी में भी नौकरियाँ उपलब्ध थीं, फिर भी भारी माँग थी. एक कलाकार ऐसा ही होता है. जैसे ही उन्होंने यह फिल्म स्वीकार की, कुछ बड़े फिल्म निर्माता नाराज बताए गए. वे प्रेम चोपड़ा को हीरो के तौर पर ब्रेक देने वाले थे. कुछ क्या है लेकिन ऐसी कहानियां जन्म लेती हैं. फिल्म की सिल्वर जुबली हिट संगीतकार मदन मोहन के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी. गाने हिट थे (आज भी) लेकिन तस्वीरें मदन मोहन के लिए हमेशा के लिए फ्लॉप हो गईं. इस फिल्म ने उससे बड़ी राहत दी. गीत राजा मेहंदी अली खान और संगीत मदन मोहन का है. क्या होता है जब सिल्वर स्क्रीन पर लता मंगेशकर, आशा भोंसले, गायक महेंद्र कपूर और राज खोसला के गाने बजाए जाते हैं और सारी धुनें ली जाती हैं. लग जा गले फिर से हंसी रात हो ना हो, जो हमने दास्ता हमने सुनाई आप क्यों रोये?, शोख नजर की बिजली, नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, छोड़ कर तेरे प्यार का दामन... हर गाना तस्वीर के डरावने मूड को बरकरार रखता है. इसमें एक खास बात यह भी है कि राज खोसला ने 'लग जा गले...' के कदम को पांच बार खारिज किया था. एन.एन. सिप्पी भी ना कह रहा था. हालाँकि, मदन मोहन का मानना था कि यह गीत आने वाले वर्षों तक लोकप्रिय रहेगा. यह क्या हुआ. लेकिन जैसे ही मनोज कुमार को इस गाने की अहमियत का एहसास हुआ तो इसे फिल्म में शामिल कर लिया गया. (समय के साथ उन्हें फ़िल्म संगीत की गहरी समझ रखने वाले निर्देशक के रूप में जाना जाने लगा). इस दौरान पद्मनाभ कई फिल्मों में राज खोसला के सहायक निर्देशक रहे. आख़िरकार राज खोसला की फ़िल्म 'दो चोर' (1973) से वह स्वतंत्र निर्देशक बन गये. बहुत पहले की रहस्यमयी फिल्मों में बड़ी हंसी-मजाक हुआ करती थी. दर्शकों के मस्तिष्क को पोषण दें. खास बात यह है कि उस समय तकनीकी सुविधाओं की कमी के बावजूद भी रोमांच बखूबी पैदा किया गया था. अंत तक सस्पेंस बरकरार रहा. कभी-कभी वह बहुत दिलचस्प नहीं था, लेकिन यह ठीक था. गीत संगीत ऐसी रहस्यमय फिल्मों की एक बड़ी ताकत थी. और इस भयावहता को मुख्यधारा माना गया. महल, बीस साल बाद, कोहरा के कदम को वो कौन थी की सफलता से और बढ़ावा मिला. इस दौर की भूत बंगला, मेरा साया, गुमनाम फिल्में. सत्तर के दशक में रामसे ब्रदर्स ने भूतिया फिल्मों का पेटेंट ले लिया और 'दो गज जमीन के नहले', 'अंधेरा', 'दरवाजा', 'पुरानी हवेली' जैसी कई हॉरर फिल्में लेकर आए. यह एक भयानक भूत था. इसमें कोई तर्क ही नहीं था. यह भी सच है कि इस चित्र ने एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार किया है. हमारे देश में हर तरह की फिल्म का एक दर्शक वर्ग जरूर होता है. और इसीलिए सत्तर के दशक में मैटिनी शो, गली फिल्में, फिर वीडियो 'वो कौन थी?' प्रशंसकों की अगली पीढ़ी के सामने भी ऐसी ही फिल्में आती रहीं. उन्हें यह अच्छा लगने लगा. राज खोसला की निर्देशन यात्रा सस्पेंस फ़िल्मों (वो कौन थी, मेरा साया), सामाजिक फ़िल्में (दो बर्बादी), प्रेम फ़िल्में (प्रेम कहानी), डाकू फ़िल्में (मेरा गाँव मेरा देश) आदि तक फैली हुई है. वह कौन थी? यह एक निर्देशक की फिल्म है. इसमें दर्शकों को अपनी सीट से बांधे रखने की ताकत है. यही महत्वपूर्ण है. Tags : woh-kaun-thi-the-murder-mystery | Woh Kaun Thi? | Woh Kaun Thi film READ MORE: द केरल स्टोरी:अदा शर्मा की फिल्म का इस डेट को होगा OTT पर प्रीमियर मन्नारा चोपड़ा संग अपने रिश्ते को लेकर अंकिता लोखंडे ने दी प्रतिक्रिया जब वकालत छोड़कर Sujit Kumar ने आजमाई थीं बॉलीवुड में किस्मत पवन कल्याण की OG की रिलीज डेट आई, इमरान हाशमी निभाएंगे विलेन का रोल! #Woh Kaun Thi The Murder Mystery #Woh Kaun Thi #Woh Kaun Thi film हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article