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Diwali Celebrations in India: पुरानी बनाम आधुनिक फिल्मों में दीपावली का बदलता स्वरूप

पुरानी और आधुनिक फिल्मों में दीपावली का प्रस्तुतीकरण बदल चुका है। पहले फिल्मों में त्योहार की पारंपरिक भावनाओं और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर जोर होता था, जबकि आधुनिक फिल्मों में इसे ग्लैमर, फैशन और नए दृष्टिकोण के साथ दिखाया जाता है,

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Diwali Celebrations in India
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भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी पर्वों में दीपावली का व्यावहारिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टियों से अत्यधिक महत्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् अंधकार की ओर नहीं, प्रकाश की ओर जाओ। यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं, जबकि सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। ‘प्रकाश की ओर चलने’ की बात करने वाला दीपावली का पर्व स्वच्छता का भी पर्व है। देश भर में कई सप्ताह पहले ही दीपावली की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य शुरू कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी स्वच्छ कर सजाते हैं। बाजारों में गलियों को भी स्वर्णिम झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाजार सब स्वच्छ और सजे हुए दिखते हैं। युवा और वयस्क प्रकाश व्यवस्था में एक-दूसरे की सहायता करते हैं। (Social and religious significance of Diwali in India)

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दीपावली का त्योहार खुशी मनाने और खुशियाँ बाँटने का भी त्योहार है। लोग अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों को उपहार स्वरूप मिठाइयाँ व सूखे मेवे के साथ-साथ पैसे भी देते हैं। परिवार के सदस्य और आमंत्रित मित्रगण भोजन और मिठाइयों के साथ रात को दीपावली मनाते हैं। इस दिन लोग पटाखे भी जलाते हैं। फुलझड़ियाँ भी सुलगाते हैं। यह सब खुशी को व्यक्त करने के साधन ही हैं। इस दिन बच्चे अपने माता-पिता और बड़ों से अच्छाई और बुराई या प्रकाश और अंधेरे के बीच लड़ाई के बारे में प्राचीन कहानियों, कथाओं, मिथकों के बारे में सुनते हैं। दीपावली का पर्व पाँच दिवसीय पर्व है। इस दौरान लड़कियाँ और महिलाएँ फर्श, दरवाजे के पास और रास्तों पर रंगोली और अन्य रचनात्मक पैटर्न बनाती हैं।

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दीपावली का इतिहास और पारंपरिक उत्सव: फिल्मों में परंपरा और संस्कृति

लेकिन धीरे-धीरे दीपावली का त्योहार आधुनिकता, पाश्चात्य संस्कृति और बाजारवाद की भेंट चढ़ता जा रहा है। ऐसा सिर्फ़ आम सामाजिक जीवन में ही नहीं हो रहा है, बल्कि भारतीय सिनेमा/फिल्मों में भी दीपावली पर्व के मायने बदले-बदले से नज़र आने लगे हैं।

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भारतीय सिनेमा की शुरुआत तो 1913 में हुई थी। शुरुआती दौर में धार्मिक व देशभक्ति के सिनेमा का ही दौर था। अगर हम इसे नज़रअंदाज़ करें, तो चालीस के दशक से भारतीय हिंदी फिल्मों में दीपावली पर्व को प्रमुखता के साथ स्थान दिया जाता रहा है। पुरानी फिल्मों में दीवाली को आमतौर पर दीपों की जगमगाहट, रंगोली और आतिशबाज़ी से सजाया जाता रहा है, जिससे त्योहार का उल्लास और खुशहाली का माहौल बनता है। ये फिल्में परिवार के इकट्ठा होने, पूजा-पाठ करने और एक साथ खुशियाँ मनाने के दृश्य दिखाती रही हैं। त्योहार का यह चित्रण भारतीय संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों को दर्शाता है, जहाँ बुराई पर अच्छाई और अंधकार पर प्रकाश की जीत का उत्सव मनाया जाता है।

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दीपावली पर्व पर केंद्रित पहली सामाजिक फिल्म ‘दीवाली’ नाम से ही बनी थी। यह महज़ संयोग ही है कि 1940 में बनी फिल्म ‘दीवाली’ 19 अक्टूबर 1940 को सिनेमाघरों में पहुँची थी, और इस वर्ष दीपावली का त्योहार 20 अक्टूबर को मनाया जा रहा है। जयंत देसाई द्वारा निर्देशित इस सामाजिक फिल्म में एम. भगवानदास, मोतीलाल राजवंश और माधुरी ने अभिनय किया था। यह फिल्म 19 अक्टूबर 1940 को भारत में रिलीज़ हुई थी और इसका निर्माण रंजीत मूवीज़ ने किया था। हालाँकि इस फिल्म का नाम हिंदू त्योहार दीपावली से मिलता-जुलता है, लेकिन यह दीवाली से अलग एक सिनेमाई कृति है। एक सामाजिक फिल्म होने के नाते, इसकी कहानी उस दौर से जुड़े पारिवारिक, सामाजिक मानदंडों और रिश्तों के विषयों के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस फिल्म में वासंती और कांतिलाल द्वारा गाया गया गीत “काहे पंछी बावरिया रोना राग सुनाए” के साथ ही दीपावली पर्व को लेकर भी एक गीत “जल दीपक दीवाली आई...” भी था और ये दोनों गीत आज भी सुनाई देते हैं। दीपावली के त्योहार के दौरान रिलीज़ इस फिल्म ने वास्तविक दुनिया के उत्सव और सिनेमा के अनुभव के बीच एक जुड़ाव पैदा किया था। (History and traditional celebrations of Diwali)

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फिर चार साल बाद ही एक दूसरी फिल्म “रतन” आई। 1944 में रिलीज़ हुई हिंदी व उर्दू भाषा की यह यद्यपि एक रोमांटिक फिल्म है, जिसका निर्देशन एम. सादिक ने किया था और इसमें स्वर्ण लता और करण दीवान ने अभिनय किया था। यह फिल्म 1944 की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म को सफल बनाने का श्रेय दीपावली पर्व से ही जुड़े गीत “आई दीवाली आई दीवाली” को ही जाता है। संगीतकार नौशाद के निर्देशन में इस गीत को ज़ोहराबाई अंबालेवाली ने गाया है। जबकि इस गीत के गीतकार डी.एन. मधोक हैं। इस फिल्म में दीवाली का दृश्य मुख्य पात्रों, गोविंद और गौरी, के बीच, गौरी के घर पर एक अजीब, जटिल और भावनात्मक मुलाकात को दर्शाता है, जो मन ही मन प्यार करते हैं, लेकिन साथ नहीं रह सकते क्योंकि गौरी की शादी रतन से हो चुकी है।

Rattan (film) - Wikipedia

फिल्म में दीवाली का यह दृश्य फिल्म के केंद्रीय संघर्ष को उजागर करता है। क्योंकि गोविंद और गौरी के बीच उनकी अलग-अलग सामाजिक जातियों के कारण वर्जित प्रेम, और गौरी का बड़े रतन से तय किया गया विवाह है। यदि फिल्म “रतन” की कहानी की बात की जाए, तो यह कहानी अलग-अलग जातियों के बचपन के प्रेमियों के बीच एक दुखद प्रेम-प्रसंग पर आधारित है, जिनके परिवार उनकी शादी के लिए मना करते हैं। नायिका की शादी अंततः एक बहुत बड़े आदमी से हो जाती है, लेकिन कहानी उनके भाग्य की पड़ताल करती है। और ऐसे किरदारों की मुलाकात ‘दीपावली’ पर्व पर ही होती है। इस फिल्म में ‘आई दीवाली’ गीत के माध्यम से त्योहार की खुशियाँ और प्रेम संबंधों का चित्रण किया गया है।

फिर 1960 में निर्देशक एस. रजनीकांत तेलुगु फिल्म “दीपावली” लेकर आए थे। एन.टी. रामाराव, सावित्री, कृष्णा कुमार आदि के अभिनय से सजी यह फिल्म पूरी तरह से धार्मिक फिल्म थी। (Diwali festival cleaning and home decoration traditions)

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1973 में रिलीज़ हुई प्रकाश मेहरा निर्देशित फिल्म ‘ज़ंजीर’ में दीवाली का बहुत ही महत्वपूर्ण दृश्य है। कहानी की शुरुआत में, युवा विजय खन्ना अपने माता-पिता की हत्या का गवाह बनता है, और यह सब दीवाली की रात को होता है। क्लाइमेक्स भी दीवाली पर होता है, जब विजय बदला लेता है। तो यह फिल्म दीपावली की भावना यानी कि परिवार की और खुशी की बात करती है।

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राजश्री प्रोडक्शन की 1994 में आई सूरज बड़जात्या लिखित व निर्देशित क्लासिक पारिवारिक फिल्म “हम आपके हैं कौन...!” में दीवाली का एक यादगार दृश्य है, जहाँ परिवार एक नए सदस्य के जन्म का जश्न मनाता है। ‘धिक्ताना धिक्ताना’ गाने के साथ पूरा परिवार एक साथ मिलकर खुशी मनाता है। इस फिल्म में सलमान खान, माधुरी दीक्षित, मोहनीश बहल, रेणुका शहाणे, अनुपम खेर, रीमा लागू व आलोक नाथ जैसे कलाकार हैं।

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सात अक्टूबर 1999 को रिलीज़ हुई महेश मांजरेकर निर्देशित फिल्म “वास्तव: द रियालिटी” दीवाली के उत्सव के माहौल में एक अलग तरह का दृश्य प्रस्तुत करती है। इसमें गैंगस्टर बना संजय दत्त अपने परिवार से मिलने के लिए आता है। यह दृश्य एक गैंगस्टर के जीवन की आंतरिक अशांति को दिखाता है, जो बाहर से भले ही भव्य दिख रहा हो, लेकिन अंदर से खोखला है। दीपावली की पृष्ठभूमि में यह भावनात्मक और शक्तिशाली दृश्य काफी प्रभावशाली है।

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इसके बाद यश चोपड़ा निर्मित और आदित्य चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘मोहब्बतें’ 17 अक्टूबर 2000 को रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म में ‘पैरों में बंधन है’ गाना दीवाली के उत्सव के माहौल में फिल्माया गया है। इसमें गुरुकुल के छात्र उत्सव मनाते हैं और शाहरुख खान का किरदार प्यार को बढ़ावा देता है। गाने में रोशनी, नृत्य और भावनाओं का भव्य मिश्रण है।

Mohabbatein

2001 में ही के. राघवेंद्र राव निर्देशित फिल्म “आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया” रिलीज़ हुई, जिसे दीवाली गीत ‘आई है दीवाली सुनो जी घरवाली’ त्योहार की खुशी और पारिवारिक जुड़ाव को दर्शाता है। (Diwali gift-giving and sweets tradition)

आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया - विकिपीडिया

2001 में रिलीज़ हुई करण जौहर निर्देशित फिल्म “कभी खुशी कभी ग़म” बॉलीवुड की सबसे भव्य दीवाली प्रस्तुतियों में से एक है। फिल्म में जया बच्चन का किरदार पूजा की थाली लिए अपने बेटे (शाहरुख खान) की वापसी पर उसका स्वागत करने के लिए तैयार हैं, परिवार और घर की खुशी को दिखाता है। इस फिल्म में लक्ष्मी पूजा और पूरे घर की रोशनी का दृश्य बहुत ही यादगार है। यह फिल्म परिवार के एक होने और साथ रहने के महत्व को दर्शाती है।

Traditional Diwali celebrations in India

फिर 2007 में रिलीज़ हुई आमिर खान निर्देशित फिल्म “तारे ज़मीन पर” में दीपावली के एक महत्वपूर्ण पहलू को दर्शाया गया है। जब बच्चे इस त्योहार का सबसे ज़्यादा आनंद लेते हैं। इसमें दिखाया गया है कि कैसे ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) को दीवाली के दौरान अपने माता-पिता के साथ मनाया गया त्योहार याद आता है।

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इतना ही नहीं, 2010 में रिलीज़ हुई कॉमेडी से भरपूर फिल्म “गोलमाल 3” में दीवाली से जुड़ा एक मज़ेदार सीन है। फिल्म में करीना कपूर और अजय देवगन सहित कलाकारों की एक टुकड़ी, गलती से आतिशबाज़ी का ढेर जला देती है, जिससे हँसी-मज़ाक का माहौल बनता है।

Traditional Diwali celebrations in India

लेकिन आधुनिक फिल्मों में दीवाली का स्वरूप बदला है और यह अक्सर सिर्फ़ एक ‘बैकग्राउंड’ बनकर रह जाता है, जहाँ त्योहार को कथानक के बजाय दृश्यों और प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया जाता है। जहाँ पहले त्योहार फिल्मों के कथानक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था, वहीं अब इसे अक्सर एक ‘सेट पीस’ की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जो फिल्म को एक खास रंगत देने के लिए होता है, लेकिन उसके आध्यात्मिक या सामाजिक महत्व को गहराई से नहीं दिखाया जाता।

जी हाँ! दीवाली का व्यावसायीकरण बढ़ गया है। फिल्मों में भी इसे बाजार से जोड़े जाने के कारण, त्योहार के पारंपरिक मूल्यों की जगह दिखावे और भौतिक वस्तुओं पर अधिक जोर दिया जाता है। इतना ही नहीं, अब कहानी के स्तर पर भी फिल्मों में दीवाली को केंद्र में नहीं रखा जा रहा है। जबकि पहले दीवाली का त्योहार फिल्म के कथानक में गहराई से जुड़ा होता था। जैसे-जैसे समय बदला, यह त्योहार फिल्मों के केंद्रीय विषय से हटकर केवल एक दृश्य के रूप में रह गया, जो अक्सर शुरुआती या अंत के दृश्यों में दिखाया जाता है। (Diwali in Sikhism as Bandi Chhod Divas)

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फिल्मकारों की मानें, तो इसकी मूल वजह प्रदूषण का बढ़ता प्रभाव और सरकार व न्यायालय के निर्देश भी हैं। बढ़ते प्रदूषण और वायु प्रदूषण के कारण पटाखों पर प्रतिबंध और चिंता ने भी दीवाली को मनाने के तरीके को प्रभावित किया है। फिल्मों में भी अब पटाखों के बजाय दीयों की रोशनी और अन्य प्रतीकात्मक दृश्यों का प्रयोग अधिक होता है, जो त्योहार के बदलते सामाजिक स्वरूप को दर्शाता है।

लेकिन दीवाली के त्योहार पर सबसे बड़ा प्रभाव आधुनिकता का पड़ा है। शहरीकरण और पश्चिमीकरण ने त्योहारों के पारंपरिक तरीकों को बदला है, और इसी बदलाव को फिल्मों में भी दिखाया गया है। अब घरों में बने पकवानों की जगह फैंसी लाइटों और व्यावसायिक उत्पादों का चलन है। परिणामतः फिल्मों में दीवाली का यह बदलाव त्योहार के वास्तविक सार को दरकिनार करता हुआ प्रतीत होता है। पहले त्योहार को सिर्फ़ एक पृष्ठभूमि के बजाय एक भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभव के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब यह अक्सर एक सतही दृश्य बन गया है, जहाँ केवल रोशनी और सजावट दिखाई जाती है।

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आधुनिक फिल्मों में दीवाली का चित्रण अब सिर्फ़ एक सजावटी पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसमें एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। जहाँ पुरानी फिल्मों में इसे परिवार के पुनर्मिलन और उत्सव के रंगीन दृश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता था, वहीं अब यह कहानी को आगे बढ़ाने, चरित्रों के आंतरिक संघर्ष को दर्शाने और यहाँ तक कि नाटकीय मोड़ों के लिए भी एक प्रतीक के रूप में उभरा है। हमने इसी बात को रेखांकित करने के लिए ऊपर दीवाली को लेकर केंद्रित फिल्मों के बारे में पहले ही बताया है।

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परंपरागत बनाम आधुनिक फिल्मों में दीपावली
यदि आप 1940 से 1990 तक की फिल्मों पर नज़र डालेंगे, तो उन फिल्मों में दीपावली अक्सर भव्य पारिवारिक समारोहों, गानों और नाच-गाने के दृश्यों के लिए एक खुशनुमा पृष्ठभूमि के रूप में होती थी। दीपावली का उपयोग कहानी कहने के लिए एक साधन के रूप में किया जाता रहा है, जहाँ यह चरित्रों के आंतरिक संघर्ष और व्यक्तिगत बदलाव को दर्शाती है। इतना ही नहीं, यह त्योहार मुख्य रूप से घर वापसी, परिवार के बंधन और अच्छाई की बुराई पर जीत के पारंपरिक अर्थों को दर्शाता था। मसलन, फिल्म ‘कभी खुशी कभी ग़म’ में राहुल की घर वापसी का दृश्य इसका एक बड़ा उदाहरण है। पर अब यह अच्छाई-बुराई के संघर्ष के साथ-साथ नैतिक द्वंद्व और सामाजिक विसंगतियों को भी दर्शाती है। उदाहरण के लिए, कुछ समय पहले रिलीज़ हुई अजय देवगन की फिल्म ‘शैतान’ को ही लें, इस फिल्म में दीपावली की मस्ती आने वाले खून-खराबे का एक भयावह संकेत बन जाती है। (Five-day Diwali festival celebrations)

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नब्बे के दशक तक दीपावली पर्व, उत्सव और खुशी का माहौल का प्रमुख कारण होता था, जिसमें भावनात्मक दृश्यों को भी उत्सव के माहौल में बुना जाता था। त्योहार के दौरान उदासी, अकेलापन और आंतरिक तनाव जैसे अधिक जटिल और यथार्थवादी भावनाओं को दर्शाया जाता है। ‘तारे ज़मीन पर’ में ईशान अवस्थी की उदासी इसका एक उदाहरण है।

पहले दीपावली पर्व का उपयोग भावनात्मक अपील और पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता था। अब इसका उपयोग कहानी को नया आयाम देने, चरित्रों के बीच तनाव पैदा करने और गंभीर विषयों को सामने लाने के लिए किया जाता है।

नब्बे के दशक के बाद 2007 में रिलीज़ हुई आमिर खान की फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ दीपावली का जश्न एक बच्चे के लिए खुशी की जगह दुख और अकेलेपन का प्रतीक बन जाता है, जिसे बोर्डिंग स्कूल में अकेलापन महसूस होता है। तो वहीं शाहरुख खान की 2004 में रिलीज़ हुई फिल्म “स्वदेस” दीपावली के माध्यम से फिल्म के नायक (शाहरुख खान) के आंतरिक परिवर्तन को दिखाती है, जो अपनी जड़ों से जुड़कर अपने देश के लिए कुछ करने का फैसला करता है। यह दृश्य उसके लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक है।

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2019 में रिलीज़ हुई रजत कपूर की फिल्म “कड़क” में रणवीर शौरी, कल्कि कोचलिन, तारा शर्मा के अहम किरदार थे। यह फिल्म एक दीपावली कार्ड्स पार्टी दिल्ली के अमीर वर्ग के बीच व्यभिचार, धोखाधड़ी और हत्या जैसे गंभीर और विकृत पहलुओं को उजागर करती है, जो दीपावली के पारंपरिक रूप से विपरीत है।

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कुल मिलाकर, आधुनिक फिल्मों में दीवाली का चित्रण अब केवल एक बैकग्राउंड तक सीमित नहीं है। यह कहानी के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है, जो चरित्रों की यात्रा को गहराई से दर्शाता है और सामाजिक यथार्थवाद को सामने लाता है। यह बदलाव यह दिखाता है कि बॉलीवुड समय के साथ कैसे विकसित हुआ है और अब वह अपने दर्शकों के सामने अधिक जटिल और यथार्थवादी कहानियाँ प्रस्तुत करता है।

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बाजारवाद के कारण फिल्मों में त्योहारों का चित्रण अधिक व्यावसायिक हो गया है, जहाँ दिखावे और उपभोग पर जोर दिया जाता है, जिससे त्योहारों के मूल सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व और भावनात्मक गहराई कम हो गई है। यह चित्रण अब केवल आर्थिक लाभ के लिए त्योहारों को एक अवसर के रूप में देखता है, और इस प्रक्रिया में पारंपरिक मूल्यों को दरकिनार किया जा रहा है, जिससे त्योहार भावनात्मक और सांस्कृतिक बजाय भौतिक बन गए हैं। बाजारवाद के दबाव के कारण त्योहारों को ग्लैमर के रूप में दिखाया जाता है, जो केवल व्यावसायिक उद्देश्यों को पूरा करता है। अब फिल्मों में त्योहारों से जुड़े भावनात्मक और सांस्कृतिक पहलुओं के बजाय, उपहारों और भौतिक वस्तुओं पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता है, जिससे त्योहारों का स्वरूप भौतिकवादी हो गया है।

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स्थानीय बाजारवाद का प्रभाव
ग्लोबलाइज़ेशन और स्थानीय बाजारवाद के कारण क्षेत्रीय और सांस्कृतिक पहचान हावी हो रही है, जिससे त्योहारों के पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक बोध को नुकसान पहुँच रहा है। फिल्में त्योहारों के दौरान उपभोग को बढ़ावा देती हैं, जहाँ इन बातों को न मनाने वाले को रूढ़िवादी माना जाता है, जिससे बाजारवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। पर्व से जुड़े गहरे सामाजिक और आध्यात्मिक संदेशों की बजाय, पर्व का चित्रण केवल बाहरी चमक-दमक तक सीमित रह जाता है, जिससे मूल भावनाएँ गौण हो जाती हैं। बाजारवाद ने त्योहारों को पारंपरिक और भावनात्मक तरीकों से मनाने की जगह खर्च और दिखावे का ज़रिया बना दिया है। फिल्मों में अक्सर त्योहारों को भव्य नृत्य-संगीत के दृश्यों, डिज़ाइनर कपड़ों और आलीशान सेटों के साथ चित्रित किया जाता है, जो आम लोगों के जीवन से अलग होता है। अब फिल्में अक्सर ब्रांडेड उत्पादों, नए फैशन और महँगे उपहारों का प्रचार करती हैं, जिससे दर्शक इन वस्तुओं को खरीदना ज़रूरी समझने लगते हैं।

इतना ही नहीं, बाजार की ज़रूरतों के हिसाब से दीपावली सहित दूसरे त्योहारों की जटिल परंपराओं को सरल बना दिया गया है। जैसे, नवरात्रि के दौरान गरबा या डांडिया को पारंपरिक भक्ति गीतों की जगह फिल्म के गानों पर नाचने तक सीमित कर दिया गया है। अब फिल्मों में दीपावली पर्व को अक्सर आधुनिक और पश्चिमी ढंग से मनाते हुए दिखाया जाता है, खासकर युवाओं को ध्यान में रखते हुए। यह चित्रण पब, मॉल और डिस्को में पार्टियों के रूप में होता है, जो पारंपरिक उत्सव से बिल्कुल अलग है। पहले जहाँ फिल्में त्योहारों को पारिवारिक और धार्मिक सद्भाव के साथ दिखाती थीं, वहीं अब कई बार बाजारवाद के प्रभाव में उनमें अश्लीलता और फूहड़ता का समावेश हो गया है।

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बाजारवाद के ही चलते अब फिल्मों में मानवीय रिश्ते और भावनाओं को जगह मिलना असंभव सा हो गया है। दिखावे और भौतिकता के कारण पारिवारिक संबंधों की गहराई कम हो गई है। इसका चित्रण फिल्मों में अक्सर ऑनलाइन शुभकामनाओं या महँगे तोहफों के आदान-प्रदान के रूप में होता है। (Modern Diwali and influence of Western culture)

नब्बे के दशक से पहले की फिल्मों पर गौर करेंगे, तो पाएँगे कि उस वक्त की फिल्मों में दीपावली ही नहीं, सभी त्योहारों को सामाजिक और सांस्कृतिक एकता के प्रतीक के रूप में दिखाया जाता था, जहाँ सभी धर्मों के लोग एक साथ मिलकर खुशियाँ मनाते थे। लेकिन बाजारवादी दौर की फिल्मों में ऐसे दृश्य कम हो गए हैं या उनका चित्रण सतही हो गया है।

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सच तो यही है कि बाजारवाद ने फिल्मों में दीपावली सहित सभी त्योहारों के चित्रण को मनोरंजन और आर्थिक लाभ के लिए एक साधन में बदल दिया है, जिससे उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक गरिमा प्रभावित हुई है। आधुनिकता के हावी होते ही भारतीय फिल्मों में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान को कमतर आँका जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप उत्सव के सामुदायिक तथा पारिवारिक पहलुओं की हानि हो रही है।

लेकिन हम सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यावसायिक हितों के प्रति सचेत रहते हुए त्योहारों की सांस्कृतिक विरासत और उल्लासपूर्ण भावना दोनों को समझना, दीपावली पर्व के सार को बनाए रखने के लिए बहुत ज़रूरी है।

FAQ

Q1. दीपावली का भारत में क्या महत्व है?

A1. दीपावली भारत में सामाजिक, धार्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं और यह अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है।

Q2. दीपावली किस-किस धर्म में मनाई जाती है?

A2. दीपावली हिंदू धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म और बौद्ध धर्म में मनाई जाती है। जैन धर्म में इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में और सिख धर्म में इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाया जाता है।

Q3. दीपावली की पारंपरिक तैयारियाँ क्या होती हैं?

A3. लोग घरों और दुकानों की सफाई, मरम्मत, रंग-रोगन और सजावट करते हैं। बाजार और गलियाँ भी झंडियों और लाइट से सजाई जाती हैं।

Q4. दीपावली मनाने की परंपराएँ क्या हैं?

A4. दीपावली में लोग मिठाइयाँ, उपहार और पैसे बाँटते हैं, पटाखे जलाते हैं, फुलझड़ियाँ सजाते हैं, और रंगोली बनाते हैं। परिवार और मित्रगण मिलकर भोजन और उत्सव मनाते हैं।

Q5. आधुनिक दीपावली और पुरानी दीपावली में क्या अंतर है?

A5. आधुनिक दीपावली में पाश्चात्य संस्कृति, ग्लैमर और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ गया है। फिल्मों और सामाजिक जीवन में त्योहार का स्वरूप बदलता जा रहा है, जबकि पुरानी दीपावली में पारंपरिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर अधिक जोर था।

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