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हिंदुस्तानी संगीत की दुनिया में अगर किसी एक नाम को सुर, श्रद्धा और साधना का प्रतीक माना जाए, तो वह नाम है – मोहम्मद रफ़ी (Mohammed Rafi). एक ऐसी आवाज़, जो सिर्फ कानों तक नहीं, रूह तक पहुँचती थी. एक ऐसा इंसान, जिसकी नम्रता, दरियादिली और समर्पण ने उन्हें न सिर्फ एक महान गायक, बल्कि एक आदर्श इंसान भी बनाया.
आज, 31 जुलाई को इस महान कलाकार की 45वीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर हम उनके जीवन से जुड़ी कुछ अनसुनी कहानियों, यादगार गीतों और संगीत के प्रति उनके अटूट समर्पण को याद कर रहे हैं. रफ़ी साहब ने अपने करियर में लगभग 26,000 से अधिक गीत गाए — भक्ति, रोमांस, देशभक्ति, दर्द, हास्य — हर भाव को उन्होंने अपनी आवाज़ से जीवंत किया.
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गायकी की शुरुआत और बुलंदियां
24 दिसंबर 1924 को पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में जन्मे रफ़ी साहब का बचपन बेहद सादा था, लेकिन उनकी आवाज़ में ईश्वर की कृपा शुरू से ही थी. उन्होंने 1940 के दशक में अपने गायन करियर की शुरुआत की और फिर ऐसा जादू बिखेरा कि आने वाली कई पीढ़ियों की आवाज़ बन गए.
उनके गीत जैसे ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’, ‘दर्द ए दिल’, ‘यम्मा यम्मा’, ‘चांद सी महबूबा’, ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’, 'ये रेश्मी जुल्फें ये शरबती आंखें', 'मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे', 'ओ फिकरीवाली तू कल फिर आना’, 'गोरे रंग पे ना', पत्थर के सनम तुझे हमने', 'लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में, 'तेरी बिंदिया रे', ‘बागों में बाहर है, ‘क्या हुआ तेरा वादा’, ये दिल तुम बिन कही लगता नहीं', तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम', 'बदन पे सितारें लपटे हुए' , मेरी दोस्ती मेरा प्यार’, तेरी प्यारी प्यारी सूरत’, ‘अभी न जाओ छोडकर’, ‘बहारों फुल बरसाओ’, ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया’ और ‘आज मौसम बड़ा बेईमान है’ आज भी श्रोताओं के दिलों में उसी ताजगी से गूंजते हैं जैसे उस दौर में गूंजते थे.
रफ़ी साहब की खासियत थी उनकी विनम्रता. उन्होंने बड़े से बड़े सितारे के लिए गाया, लेकिन कभी घमंड नहीं किया. कहा जाता है कि वे नए गायकों और संगीतकारों की मदद करने में कभी पीछे नहीं रहते थे, चाहे मेहनताना कम हो या कोई गुमनाम फिल्म हो — उनके लिए हर गीत एक साधना था.
संगीतकारों की पहली पसंद थे रफ़ी साहब
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नौशाद (Naushad), शंकर-जयकिशन (Shankar-Jaikishan), ओ.पी. नैयर (O.P. Nayyar), एस.डी. बर्मन (S.D. Burman) और मदन मोहन (Madan Mohan) जैसे दिग्गज संगीतकारों की पहली पसंद बनने वाले रफ़ी ने दिलीप कुमार (Dilip Kumar), राजेश खन्ना (Rajesh Khanna), धर्मेंद्र (Dharmendra), शम्मी कपूर (Shammi Kapoor) और राजेन्द्र कुमार (Rajendra Kumar) तक के लिए अपनी आवाज़ दी. उनके सुरों में इतनी जीवंतता थी कि शम्मी कपूर (Shammi Kapoor)तक यह मान बैठे कि “ये चाँद सा रोशन चेहरा” (फिल्म- कश्मीर की कली) उन्होंने खुद गाया है.
'ओ दुनिया के रखवाले' – एक प्रार्थना
रफ़ी के जीवन से जुड़ा एक किस्सा आज भी दिल को छू जाता है. मशहूर संगीतकार नौशाद ने जब “ओ दुनिया के रखवाले” रिकॉर्ड करवाना चाहा, तो रफ़ी साहब ने इसे गाने से पहले पूरे 15 बार रियाज़ किया. जब उन्होंने इसे गाया, तो हर स्वर जैसे एक पुकार बन गया — यह सिर्फ एक गीत नहीं, ईश्वर से की गई एक सच्ची अरदास थी.
यह गीत इतना प्रभावशाली था कि एक कैदी ने फाँसी से पहले इसे अपनी आखिरी इच्छा के रूप में सुना. जेल प्रशासन ने उसकी अंतिम विनती मान ली. यही रफ़ी की ताकत थी – उनकी आवाज़ जीवन और मृत्यु के बीच एक पुल बन गई.
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नौशाद की अधूरी दुआ
नौशाद साहब ने एक बार किसी इंटरव्यू में रफ़ी के जाने के बाद कहा था – “अब मैं आधा रह गया हूँ. काश! भगवान उन्हें एक घंटे के लिए वापस भेज दे, मैं अपनी ज़िंदगी की सबसे बेहतरीन धुन बना दूँ.”
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नेहरू से लेकर राष्ट्र तक सम्मान
जब महात्मा गांधी की हत्या हुई, तब रफ़ी ने गाया “सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की यह अमर कहानी” (फिल्म- बापू की यह अमर कहानी), जिसे सुनकर नेहरू जी इतने प्रभावित हुए कि उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर सिल्वर मेडल से नवाज़ा और गणतंत्र दिवस पर “लहराओ तिरंगा” गाने के लिए बुलाया.
पाकिस्तान में बैन और लोगों का प्यार
भारत-पाक युद्ध के दौरान उनका गीत “कश्मीर ना देंगे” (जौहर इन कश्मीर,1966) इतना लोकप्रिय हुआ कि पाकिस्तान में उन पर बैन लग गया. लेकिन वहां के लोग चुपचाप उनके गाने सुनते रहे.उनके सुर सरहदें पार करते थे.
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इंसानियत की मिसाल
रफ़ी साहब केवल आवाज़ के बादशाह नहीं थे, बल्कि दिल के भी सम्राट थे. जब उन्हें किसी कारणवश अपने पुराने ड्राइवर को नौकरी से निकालना पड़ा, तो उन्होंने उसे 70,000 रुपये की टैक्सी खरीदकर दी ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके. उनकी सेक्रेटरी बताती हैं कि वे चुपचाप कई जरूरतमंद परिवारों की मदद करते थे.
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जब किशोर कुमार और धर्मेंद्र ने दिया सम्मान
किशोर कुमार उनके प्रीतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उनके मुरीद थे. एक बार किसी कार्यक्रम में फैन द्वारा ऑटोग्राफ मांगे जाने पर किशोर कुमार ने कहा, “जब संगीत खुद सामने खड़ा है, तो मुझसे क्यों?” और धर्मेंद्र जब स्टूडियो आए, तो रफ़ी साहब की आवाज़ को ‘मंदिर’ मानते हुए जूते बाहर उतार दिए.
31 जुलाई 1980 को, मात्र 55 वर्ष की उम्र में, मोहम्मद रफ़ी इस दुनिया को अलविदा कह गए. उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा और भारतीय संगीत जगत हमेशा के लिए एक बेमिसाल आवाज़ से वंचित हो गया. उनके निधन की खबर से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। सरकार ने दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया.
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बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, लेकिन फिर भी 10 लाख से अधिक लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े. हर आंख नम थी, हर दिल बोझिल. संगीतकार, गायक, अभिनेता—हर कोई उनके अंतिम सफर में शामिल था. किशोर कुमार, जो रफ़ी साहब के करीबी मित्रों में से एक थे, उनके पार्थिव शरीर के पास फूट-फूट कर रोते रहे. यह दृश्य बताता है कि मोहम्मद रफ़ी न सिर्फ एक महान गायक थे, बल्कि हर दिल अज़ीज़ इंसान भी थे.
आज जब हम उन्हें याद करते हैं, तो सिर्फ उनकी आवाज़ को नहीं, बल्कि एक ऐसे युग को याद करते हैं जहाँ संगीत में आत्मा बसती थी, जहाँ गायक अपने गीतों से इबादत करते थे. सुरों के इस अमर देवता को भुलाया नहीं जा सकता.
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आज मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि पर ‘मायापुरी परिवार’ उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है. आपके सुरों ने हमारी ज़िंदगियों को रौशन किया. आप भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर आपकी आवाज़ अमर है, अनंत है, अनुपम है.
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