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साहित्यकार और संगीत मेरा जीवन है. इसके बावजूद मैं बुनयादी तौर पर संगीतकार पहले हूं और गीतकार बाद मैं! मैं चूंकि अलीगढ. के माहौल में पला बढ़ा हूं इसलिए उर्दू से गहरा लगाव है. वहां मुशायरे सुन-सुन कर ही शायरी का शौक सवार हुआ. संगीत तो बचपन से ही आत्मा में समाया हुआ था. इसलिए कलकत्ता गया तो वहाँ टैगोर संगीत और उनके साहित्य का अध्ययन किया. वहाँ रहते हुए काफी कुछ धुनें भी बनाई. वहाँ खेले जाने वाले नाटकों में संगीत भी दिया. वह संगीत आज यहाँ काम आ रहा है. फिल्म ‘गीत गाता चल’ में ‘जब दीप जले आना’ और ‘शाम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम’ की कम्पोजीशन नाटकों के लिए ही बनाई थी. खुद गीत लिखने का एक लाभ यह हुआ कि निर्माताओं को धुनें सुनाते समय गीतों के बोल भी पसन्द आ जाते थे. इस तरह अपनी शुरू की फिल्म ‘काँच और हीरा’ और ‘सौदागर’ के सारे गीत मैंने स्वयं ही लिखे थे. अलबत्ता ‘चोर मचाये शोर’ में दो गीत तुलसी से भी लिखवाए. इसी तरह संघर्ष के दिनों में देव कोहली भी प्रायः सिटिंग में आजाया करते थे. इसलिए जब काम मिलना शुरू हुआ तो ‘राम भरोसे’ और ‘आखरी कसम’ में उनसे भी गीत लिखवाए. क्योंकि मैं गीत लिखने से अधिक संगीत तैयार करने पर अधिक ध्यान देना चाहता हूं. वैसे भी काम जिनता आपस में बाँटकर किया जाए उतना ही अच्छा रहता है.
रवीन्द्र जैन की जयंती पर विशेष कहानी
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मैंने सबसे पहले गीतकार इन्दरजीत सिंह तुलसी से गीत लिखवाए. वह बड़े ही म्यूजिकल आदमी है. गाकर पढ़ते हैं और खूब पढ़ते हैं. पंजाब का लोक संगीत उन्हें खूब याद है. फिल्मी गीत बनने की भावना ही शायद उन्हें दिल्ली से बम्बई लाई है. बड़े जिन्दा दिल और दोस्त नवाज इन्सान है.
फिल्म ‘चोर मचाये शोर’ के गीत ‘एक डाल पे तोता बोले; को होटल हिलटॉप में सिटिग चल रही थी. दोनों ही अपने अपने कमरे में काम में व्यस्त थे उन्हें मुझसे बात करनी थी तो आपरेटर से अपने ही रूम का नम्बर माँगते रहे. किन्तु क्लास बात तो यह हुई कि मुझे दाढ़ी बनानी थी तो मैं उनसे ब्लैड के लिए पूछ बैठा. यह जरा भी ध्यान में नहीं रहा कि वह सरदार इन्दरजीत सिंह तुसली है. इसीलिए अब जब कभी मुलाकात होती है तो वह इस बात को दोहराने लगते है.
हसरत जयपुरी के साथ फिल्म ‘दो जासूस’ में काम किया. बड़े मेहनती आदमी है. दो अंतरे लिखवाओ तो 10-12 अंतरे लिख लाते है. उन्हें मीटर की बड़ी समझ है. गीतों में कमर्शियल पंच भी खूब ढूंढ़ कर लाते है. उनके काफी गीत मेरे पास पड़े है. सिचूएश्न मिलने पर मैं उन्हें जरूर इस्तेमाल करूंगा. बेचारे ग्रुप बन्दी का शिकार हुए पड़े है. सबके अपने अपने ग्रुप है. वैसे यह ग्रुप एक मिनट में बनते है और दूसरे मिनट में टूट जाते हैं. जिसकी जिससे अंडरस्टैन्डिग हो जाती है. काम हिट हो जाता है, ग्रुप बन जाता है.
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अन्य शायरों में साहिर साहब, आनंद बक्षी, अनजान, योगेश, इन्दीवर, प्रदीप,भरत व्यास, नक्श लायलपुरी आदि के साथ भी फिल्मे की है. इनमें साहिर साहब के साथ काम करने का अपना ही एक आनंद था. साहिर साहब कितने बड़े शायर थे. इस बारे में कुछ बोलना तो सूरज को चिराग दिखाना ही होगा, उनके गीतों में साहित्य भरा होता है. इसीलिए गीत की सिचुएशन पर उनसे पहले लिखवाता था. फिर उसकी धुन बनाता था. क्योंकि ऐसे महान शायरों को मीटर की बंदिश में न फंसाकर गीत लिखवाएं तो वह ज्यादा उभर कर सामने आते है. इसीलिए साहिर साहब से फिल्म ‘इन्साफ का तराजू’ के गीत लिखने की बात हुई तो उन्होंने कहा कि अगर मैं इसके लिए ‘साधना’ से अच्छा गीत लिख सका तो फिल्म के गीत लिखूंगा वरना नही लिखूगां. उसकी वजह यह थी कि वह ‘साधना’ में ‘औरत के जन्म दिया मर्दो को’ जैसा शाहकार गीत लिख चुके थे. इसलिए उससे बेहतर रचना बने तो ही बात बन सकती है. और उन्होंने इसके लिए गीत-लिखा ‘लोग औरत को फकत जिस्म समझ लेते हैं.’ यह गीत लिखने के बाद ही उन्होंने फिल्म के अन्त गीत लिखने स्वीकार किए.
'इंसाफ का तराजू’ से पूर्व मैंने उनके साथ प्रेम सागर की फिल्म ‘हम तेरे आशिक है’ की थी. उसमे एक गीत के लिए उन्हें सिचुएशन समझाई जा रही थी. पहाड़ है, वादियां हैं, हरियाली है, नदी है. कुछ देर साहिर साहब यह सुनते रहे. जब बर्दाश्त न हुआ तो बोल पड़े-‘आप तो लोकेशन बता रहे है. मुझे सिचुएशन बताइये क्या है?’
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कवि प्रदीप भी अपने ढंग के बड़े कवि है. मैंने उनके साथ ‘बोले हे चक्रधारी’ में संगीत दिया था. उनके साथ पहली मुलाकात हुई. मैंने उन्हें बड़ी इज्जत दी. काम की बात आई तो बोले ‘मुझे पानी और एक गिलास चाहिए’ मैंने कहा पानी तो ठीक है किन्तु अभी से गिलास की बात समझ में नहीं आई! कहने लगे-दरअसल इसके बगैर मेरे दिमाग की खिड़कियां नहीं खुलती ! हमने कहा आप घर चलिए हम वही आते है. क्योंकि म्यूजिक रूम हमारे लिए हमारे लिए मन्दिर से कम नहीं है. हम लोग वहां मदिरा पान नहीं करते. इसके बाद सारे गीत हमने प्रदीप जी के घर बैठकर ही तैयार किए.
भरत व्यास जी भी बड़े ही गुनी आदमी हैं. उनके साथ मैंने हर हर गंगे’ में काम किया था. उनके काम का तरीका यह है कि सिचुएशन पर बातचीत होने के बाद जब धुन बनाई जाती है तो थोड़ी देर तक देखते हैं कि क्या धुन बन रही है. फिर बाजा लेकर बैठ जाते है. और अनगिनत गीत सुना डालते हैं. जिसका मकसद यह होता है-मूर्ख सोच क्या रहा है, इसी में से ले ले! क्यों भटक रहा है. वैसे उन्हें भी म्यूजिक का काफी सेन्स है.
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इन्दीवर के साथ फिल्म ‘एक गाँव की कहानी’ में साथ काम करने का अवसर मिला. बड़े ही दिलचस्प आदमी हैं. मेडिकल की इतनी जानकारी रखते हैं कि उसकी क्लास ले सकते हैं.
आनंद बक्षी के साथ ‘पति पत्नी और वो’ के बाद ‘दासी’ और ‘अय्याश’ में संगीत देने का मौका मिला है. बक्षी साहब को संगीत का काफी सेन्स है. उन्हें गाने का भी काफी शौक है. दो एक फिल्मों में गा भी चुके है. इसलिएउनकी फरमाईश रहती है कि हमें भी गाने का अवसर दीजिए. म्यूजिकल आदमी हैं इसलिए धुन बनाने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं. कहते हैं कई लोग तो उन्हीं से टयून ले लिया करते है.
बक्षी साहब को हवाई जहाज के सफर से बड़ा डर लगता है. एक बार उन्हें हवाई जहाह से कही जाना था. कहने लगे-मुझे बड़ी टेन्शन हो रही है. हवाई जहाज से जाना है बड़ा डर लग रहा है.’
मैंने कहा- आपको टेन्शन काहे की टेन्शन तो उन्हें होगी जो आपको ले जा रहे है.’
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गीतकार और संगीतकार के संगम के बाद उस संगीत को लोगों तक पहुंचाने के फिल्मकार और सिंगर्स का भी बड़ा हाथ होता है. हम सिचुएशन के मुताबिक गीत तैयाद कर लेते है. उसके बाद जनता तक पहुंचने से पूर्व उसे फिल्म की पसन्द का सर्टिफिकेट मिलना बहुत जरूरी होता है. एन. एन. सिप्पी राजश्री वाले और राज खोसला आदि ऐसे लोग हैं जिन्हें संगीत की काफी समझ है. इसलिए अच्छी चीज तुरंत पसन्द कर लेते हैं. किन्तु कुछ ऐसे भी है जो खुद फैसला नहीं कर पाते बल्कि सत्तर आदमियों की प्रतिक्रिया देखने के बाद पसन्द करते है. फिर भी कभी कभार मतभेद हो जाता है. ‘आँखियों के झरोखों से’ गीत मैंने फिल्म ‘घर’ के लिए तैयार किया था. निर्देशक माणेक चटर्जी को बहुत पसन्द आया किन्तु सिप्पी साहब ने कहा -‘ठण्डा लगता है.’ और उसे रिजेक्ट कर दिया. मैंने वह गीत राजश्री वालों को सुनाया उन्होंने तुरंत पसन्द कर लिया और रिकार्ड कर लिया. यहाँ तक कि उसे फिल्म का शीर्षक गीत बना डाला. इसके बाद एक दिन सिप्पी साहब ने कहा कि आँखियों वाला गीत माणेकदा का बहुत पसन्द है.‘घर’ की रिकार्डिग उसी से करेंगे. मैंने उन्हें बताया कि आपने रिजेक्ट कर दिया था. इसलिए मैंने वह गीत राजश्री वालों के दे दिया है. बस इस बात पर वह नाराज हो गए और फिल्म हाथ से निकल गई. हालांकि सिप्पी साहब ने ही बम्बई में सबसे पहले मेरा गाना रिकार्ड किया था. और दस-दस रूपये देकर न मालूम कितनी धुनों पर अपना नाम लिखवा रखा है. जो मैंने आज तक किसी को नहीं सुनाई.
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राजश्री वालों का फिल्म के मामले में अपना विशिष्ट टेस्ट है. उनकी फिल्म-‘तूफान’ के लिए मैं सारे गाने तैयार कर चुका था. उनकी रिकार्डिग फिक्स हो चुकी थी. तभी एक दिन राज बाबू ने कहा-‘सेठ जी बाहर से आ गए हैं. उन्हें भी गीत सुना दें.’ राज बाबू ने इसलिए कहा था कि संगीत सुनकर ताराचन्द जी भी खुश होंगे. किन्तु सेठ जी ने सारे रिजेक्ट कर दिए. किन्तु राज बाबू ने वह सारे गाने अपने रिस्क पर रिकार्ड कराये. और जिनमें से शीर्षक गीत-‘तूफान है मेरा नाम’ ‘प्यार कर प्यार कर’ काफी लोकप्रिय भी हुए थे.
‘चोर मचाए शोर’ के लिए ‘आगरे से घाघरा मँगा दे सय्याँ घाघरे के बीचम-बीच ताज की तस्वीर हो’ गीत रिकार्ड होने लगा तो उस पर एतराज हुआ कि ‘बीचम-बीच’ शब्द अच्छा नहीं लगता. इसलिए उसे बदलकर ‘घाघरे के ऊपर ताज की तस्वीर हो’ करना पड़ा तब्दीली से लाइन मीटर से तो नहीं गिरी किन्तु उनकी नजर से जरूर गिर गई. जिसके कारण परिवर्तन करना पड़ा. इस तरह सैन्सर बोर्ड से पूर्व ही अब सिंगर अपने तौर पर ही शब्दों को सैन्सर कर देते है.
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इसी प्रकार ‘तूफान’ के लिए आशा जी की आवाज में हमने एक गीत‘-
परियों की शहजादी
जब होगी तेरी शादी
तो क्या होगा?
बज जाएगा तेरा बाजा
रिकार्डिग के तीन-चार दिन के बाद आशा जी का फोन आया-‘आपने यह क्या गाना रिकार्ड किया है? लोग कह रहे है यह वल्गर है !’
कमाल है गाते वक्त आशा जी को गाना बुरा नहीं लगा किन्तु लोगों ने बिना कारण ही उन्हें चढ़ा डाला. आखिर उन्हें समझाया कि शादी में बैंड-बाजा ही बजता है. यह इंस्ट्रमेन्ट है. इसमें कोई अश्लीलता नहीं है.’ जब जाकर उनको समझ में आया. वरना सैन्सर से पूर्व लोगों ने सैन्सर करके मुसीबत खड़ी करने में कसर नहीं छोड़ी थी.’
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