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Birthday Special Gulzar: जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया

गुलज़ार यूँ तो नाम सुनते ही कोई ग़ज़ल, कोई शायरी, कोई नज़्म या कोई उदासी छेड़ता गीत याद आ जाता है। गुलज़ार की आँखों में भी आपको उदासी ठहरी हुई नज़र आ जाती है...

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By Siddharth Arora
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जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

Birthday Special Gulzar: गुलज़ार यूँ तो नाम सुनते ही कोई ग़ज़ल, कोई शायरी, कोई नज़्म या कोई उदासी छेड़ता गीत याद आ जाता है। गुलज़ार की आँखों में भी आपको उदासी ठहरी हुई नज़र आ जाती है।

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

18 अगस्त 1934, दीना पंजाब में जन्में गुलज़ार की सारी शिक्षा उर्दू भाषा में हुई थी। वह स्कूल में बाकी बच्चों संग बैंत बाज़ी किया करते थे।  बैंत बाज़ी को आप उर्दू की अन्ताक्षरी समझिए। बस इसमें गानों की बजाए पुराने उस्तादों के शेर और गज़लें सुनाने (Gulzar poetry on love life) का रिवाज़ होता है।

Gulzar first song

गुलज़ार यहीं ये सब सुना करते थे (Gulzar Sahir Ludhianvi friendship story) और ख़ुद भी कभी-कभी काफिया मिलाने के लिए कुछ न कुछ कह दिया करते थे। गुलज़ार साहब बताते हैं कि “तब तो ये सब समझ आता नहीं था, बस गायत्री मन्त्र की तरह रट लिया करते थे। जिस रोज़ समझ आया कि अच्छा, इसका यह मतलब है। तो ज़ुबान पर ज़ायका आ गया”

गुलज़ार साहब सिख परिवार से हैं। (Gulzar biography and life history) दीना में उनका नाम सम्पूरन सिंह कालरा था। गुलज़ार अपने यारों दोस्तों के साथ ज़िन्दगी सुकून से जी ही रहे थे कि अचानक एक सुगबुगाहट शुरु होने लगी, हिन्दुस्तान के दो टुकड़े होने वाले हैं (Gulzar Mirza Ghalib TV series) और सम्पूरण जहाँ रहते हैं वह टुकड़ा पाकिस्तान कहलायेगा।

पाकिस्तान!

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

ये नाम उससे पहले किसी ने नहीं सुना था पर उस ओर के पंजाब में रहते हिन्दू और सिख डरने लग गये थे। इसी डर से घबराते सम्पूरण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार के परिवार ने अपना सारा रुपिया पैसा-ज़मीन जायदाद वहीं छोड़ा और मायूस आँखें लिए दिल्ली आ गये। (Gulzar original name, Sampurnanand Singh) गुलज़ार साहब की आँखों में वो मायूसी आज़ादी के 75 साल बाद भी झलकती है।

दिल्ली आने के बाद उनके पिता ने सम्पूरण और उनके भाई जसमेर सिंह की पढ़ाई दिल्ली में ही शुरु करवा दी। उनका परिवार व्यापार करता था। सो उनके पिता माखन सिंह ने दिल्ली में भी अपना पुश्तैनी व्यापार जमाने की कोशिश की।

सम्पूरण उन दिनों वक़्त गुज़ारी के लिए लाइब्रेरी से नॉवेल लाकर पढ़ा करते थे। (Gulzar best Hindi film songs) उस दौर में एक ‘आना’ देने पर पूरे हफ्ते में जितनी चाहो उतनी किताबें पढ़ी जा सकती थीं।

सम्पूरण के यार दोस्त उन दिनों बच्चों की किताबें या फैंटम वगरह की कॉमिक्स ले लिया करते थे पर गुलज़ार साहब को जासूसी नॉवेल्स पढ़ने में बहुत मज़ा आता था। (Gulzar famous Bollywood song lyrics) आलम ये था कि जहाँ बाकी बच्चे हफ्ते में मुश्किल से दो कॉमिक ख़त्म कर पाते थे वहीं सम्पूरण सिंह एक दिन में दो मोटी-मोटी नोवेल्स निपटा देते थे और फिर लाइब्रेरियन के पास पहुँचकर मासूमियत से कहते थे “ये तो खत्म हो गयी, कोई और दीजिये”

एक रोज़ लाइब्रेरियन ने खीजकर एक मोटी सी किताब निकाली और बोला “ये लो, अब ये जाकर पढ़ो”

सम्पूरण वो किताब घर लाये। (Gulzar award winning Hindi poems) टाइटल देखा – द गार्डनर बाई रबिन्द्र नाथ टैगोर। सम्पूरण सिंह कालरा ने जब उसे पढ़ना शुरु किया तो उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने तो शायद अबतक कुछ पढ़ा ही नहीं था। उनके पढ़ने का टेस्ट बिल्कुल बदल गया।

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फिर गुलज़ार ने गीतांजली पढ़ी। फिर काबुलीवाला पढ़ी। यूँ एक के बाद एक करते-करते उन्होंने टैगोर का जितना भी साहित्य था वो पढ़ डाला। फिर भी प्यास न बुझी तो बांग्ला सीखने लगे ताकि अनुवाद न पढ़ने पड़ें। आख़िर गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर ने तो बांग्ला में ही लिखा था।

बांग्ला सीखने के बाद सम्पूरण सिंह ने शरतचंद्र, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के साथ साथ सारा बंगाली साहित्य पढ़ना शूरु कर दिया। धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि वह भी लिख सकते हैं।

उन्होंने अपने पिता से गुज़ारिश की कि उनका मन लेखन में लगता है, कृपया उन्हें उसी दिशा में पढ़ने दिया जाए तो पिता ने बुरी तरह डांट दिया।

उनके भाई तब मुंबई में व्यापार करने के लिए गये हुए थे। सम्पूरण को भी वहीं भेज दिया। यहाँ उन्हें एक गैराज डेंट लगी गाड़ियों के पेंट कलर पहचानने और उसका कॉमबीनेशन बनाने की जॉब मिली। आखिर पढ़ें लिखे थे तो काम भी वैसा ही मिला। पैसा तो नाम मात्र को, खर्चे निकालने भर का ही मिलता था लेकिन समय बहुत मिल जाता था। समय इतना मिलता था कि दिन में दो किताबें पढ़ जया करते थे। यहीं उन्होंने Progressive Writers association की मेम्बरशिप ले ली और जब समय मिलता तब लेखकों के साथ बैठकर कुछ न कुछ लिखा-पढ़ी भी किया करते।

कुछ पिता की नज़रों से बचने के लिए, कुछ उन दिनों तखल्लुस यानी पेन नेम रखने का शौक हुआ करता था, सम्पूरण सिंह कालरा ने अपना नाम गुलज़ार दीनवी कर लिया। दीनवी यानी दीना का रहने वाला।

फिर जल्द ही गुलज़ार को एहसास हुआ कि वह अब कभी दीना वापस नहीं लौट सकेंगे सो उन्होंने अपने नाम से दीनवी हटा दिया।

मुंबई रहते भी कुछ समय गुज़र गया और गुलज़ार दिन में गैराज और रात में अपने लेखन को समय देते रहे।

1960 का समय था जब मोस्ट अवार्ड विनिंग फिल्ममेकर बिमल रॉय उर्फ़ बिमल दा बंदिनी बना रहे थे। यह फिल्म बंगाली नॉवेल तमसी पर बेस्ड थी जिसे चारूचंद्र चक्रवर्ती ने लिखा था।

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बिमल दा संगीत के मामले में सलिल चौधरी पर ही भरोसा करते थे लेकिन उनकी पिछली फिल्म सुजाता में सचिन देव बर्मन का म्यूजिक बहुत पसंद किया गया था। फिर सलिल चौधरी उन्हीं की दो फिल्मों – परख और प्रेम पत्र के संगीत निर्माण में व्यस्त थे।

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

सचिन देव बर्मन अमूमन शैलेन्द्र से ही गाने लिखवाते थे। बंदिनी के गाने भी शैलेन्द्र ही लिखने वाले थे कि दोनों का किसी बात पर झगड़ा हो गया। शैलेन्द्र ने गीत लिखने से मना कर दिया।

गुलज़ार के एक दोस्त थे, देबू सेन। वह असिस्टेंट के रूप में बिमल दा से जुड़े थे। गुलज़ार की शायरी और लहजे से तो सब वाकिफ थे ही, तो देबू सेन ने गुलज़ार से आग्रह किया कि वह जाएँ और बिमल दा से बात करें, क्या पता काम मिल जाए।

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लेकिन गुलज़ार फिल्म लाइन से दूर ही रहना चाहते थे। वह लिटरेचर के लिए काम करते थे और फिल्म लाइन तब कोई ख़ास अच्छी नहीं मानी जाती थी। गुलज़ार ने दो टूक मना कर दिया कि नहीं भाई, फिल्मों में काम नहीं चाहिए।

देबू सेन ने शैलेन्द्र के सामने गुलज़ार की शिकायत कर दी।

शैलेन्द्र भड़क गये। बोले “तुम्हें बिमल दा से मिलने नहीं जाना? तुम्हें पता भी है कि कितनी दूर-दूर से लोग बिमल दा से मिलने आते हैं और सारा दिन ऑफिस के बाहर ही इंतज़ार करते बिता देते हैं और तुम्हें उनसे मिलने नहीं जाना? क्यों एक तुम ही पढ़े लिखे हो यहाँ बाकी सारे तो अनपढ़ हैं?”

अब शैलेन्द्र से डांट पड़ी तो गुलज़ार चुपचाप देबू सेन के साथ बिमल रॉय से मिलने चले गये।

गुलज़ार तभी से सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनने लगे थे। दुबले पतले गुलज़ार, आँखों पर नज़र का मोटा चश्मा और चाल में हल्की सी ठिठक देखकर बिमल दा के मुँह से निकला “ए देबू, ए भद्रलोके की कोरे जान्बे जे बेश्नों कबिता टा की?”

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देबू सेन ने हँसते हुए उन्हें टोका  “दादा ये बंगाली समझता है, बहुत अच्छी बोलता भी है”

इतना सुनते ही बिमल दा का चेहरा बिल्कुल शर्म से लाल हो गया। वो ब्लश करने लगे।  ये देख गुलज़ार भी मुँह घुमा के मुस्कुरा दिए।

दरअसल इस फिल्म में लीड करैक्टर कल्याणी के पिता वैष्णवी भजन गाने वाले सज्जन होते हैं इसलिए कल्याणी के लिए भी बिमल दा कोई ऐसा गाना चाहते थे जो वैष्णव कविता की भाषा शैली में हो। उन्होंने बंगाली में गुलज़ार के लिए  देबू सेन से ये कहा था कि “यह भला आदमी क्या जानता होगा कि वैष्णव कविता क्या होती है?”

उन्होंने गुलज़ार को स्टूडियो बुलाया जहाँ सचिन दा यानी एसडी बर्मन मौजूद थे। वहाँ एक अलग ही बहस चल रही थी। फिल्म के राइटर नोबेंदु घोष भी वहाँ मौजूद थे। एसडी बर्मन एक धुन सुना रहे थे। उनके मुताबिक वो धुन रात में घर से निकलती कल्याणी पर फिट बैठ रही थी। वहीं गाँव के किनारे एक क्रन्तिकारी रहता है जिससे कल्याणी प्यार करती है और रात में उससे मिलने जा रही है। गाना नांव में शूट होना था।

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

पर बिमल दा ने उन्हें यहीं टोक दिया

“नहीं सचिन दा, कल्याणी घर से बाहर नहीं निकलेगी। अरे वैष्णवी पोस्ट मास्टर जी की बेटी, रात को ऐसे घर से नहीं निकलेगी। अच्छा नहीं लगेगा”

इस पर सचिन दा भड़क गये “अरे ऐसे कैसे बाहर नहीं जायेगा, अब तो हम म्यूजिक बना लिया उधर का, अब तो जाना पड़ेगा उसको, निकालो घर से बाहर”

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

गुलज़ार बैठे सब देख सुन रहे थे। इतने बड़े दिग्गजों के सामने, जिन्हें अबतक पूजते आए थे, उनके लिए बैठना मुश्किल हो रहा था।

बिमल दा ने फिर टोका “लेकिन घर से बाहर निकलेगी तो अच्छा नहीं लगेगा”

तभी नोबेंदु घोष ने धीरे से बिमल रॉय को टोका “पर दादा, आंगन में पिता सो रहा है, भला उनके सामने गाती अच्छी लगेगी?”

इतना सुनते ही सचिन दा उछल के बोले “ए बोला, अब बताओ क्या करोगे”

तो तय हुआ कि कल्याणी न घर के अन्दर रहेगी न बाहर, वह दहलीज पर खड़े होकर गाना गायेगी और यही सिचुएशन गुलज़ार के लिए दी।

तब गुलज़ार ने लिखा “मोरा गोरा अंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे”

यह गाना बहुत अच्छा रिकॉर्ड हुआ। फिल्म रिलीज़ होने में तो अभी समय था। पर सचिन दा और शैलेन्द्र की सुलह हो गयी और सचिन दा ने फिर एक बार “हम नये लड़के के साथ काम नहीं करेगा” कहके गुलज़ार के लिए मना कर दिया।

पर बिमल दा ने गुलज़ार को बुला लिया। वो एक अन्य फिल्म बना रहे थे – काबुलीवाला। उन्होंने गुलज़ार से पूछा “तुमने काबुलीवाला पढ़ा है?”

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गुलज़ार ने हाँ में सिर हिला दिया।

बिमल दा बोले “देखो, मैं जानता है कि तुम फिल्मों में नहीं आना चाहता। मैं समझता है, पर ये डायरेक्टर्स मीडियम है, इधर बहुत कुछ क्रिएटिव करने को मिलता है”

फिर अचानक बिमल दा बिल्कुल हक़ जताते हुए बोले “सुनों तुम मेरा बात, यहाँ असिस्टंट हो जाओ। कुछ ख़ुद करो, कुछ सीखो, पर दोबारा उस मोटर गैराज में अपना लाइफ ख़राब करने का ज़रुरत नहीं है”

बरसों से ये बात वो अपने भाई या अपने पिता से सुनने के लिए बैठे थे।

25 साल की उम्र में लगते गुलज़ार, जिनके पैशन को कभी उनके परिवार ने नहीं समझा था, जिनकी ज़िन्दगी के बारे में अबतक किसी से कुछ नहीं सोचा था, वो बिमल दा के इन अपनेपन के शब्दों को सुन ख़ुद को रोक नहीं पाए और फफक के रो दिए।

बिमल दा ने गले से लगा लिया और कहा “बस बस! अब कभी वापस उस मोटर गैराज में जाने का जरुरत नहीं पड़ेगा”

और देखिए कमाल, 1963 में रिलीज़ हुई बंदिनी में सात गाने थे जिनमें से गुलज़ार ने सिर्फ एक लिखा था। मोरा गोरा अंग लइले, और सबसे ज़्यादा यही गाना पसंद किया गया था।

इसके बाद गुलज़ार साहब ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने 62 साल के महान कैरियर में गुलज़ार साहब एक या दो नहीं बल्कि 22 बार फिल्मफेयर अवार्ड जीत चुके हैं। 5 दफ़ा उन्हें नेशनल अवार्ड मिला है। साहित्य अकैडमी अवार्ड से भी वह नवाज़े जा चुके हैं और भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मभूषण घोषित किया जा चुका है।

यही नहीं, विश्व के सबसे बड़े सिनेमा अवार्ड ऑस्कर भी उनकी झोली में मौजूद है। फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के गाने ‘जय हो’ के लिए उन्हें 2009 में ऑस्कर मिला था। गुलज़ार को दादा साहेब फाल्के अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है।

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उनके लिखे गीतों की दीवानगी भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में इस हद तक है कि 2006 में आई हॉलीवुड की क्राइम थ्रिलर फिल्म ‘इनसाइड मैन’ के कास्टिंग सीन में गुलज़ार और ए-आर रहमान का गाना ‘छैयां-छैयां’ बजाया गया है।

मायापुरी मैगज़ीन की सबसीडरी लॉटपॉट कॉमिक्स के वर्ल्ड फेमस कैरिक्टर मोटू-पतलू केलिए भी उन्होंने गाना लिखा है। मोटू पतलू 3डी फिल्म में यह गाना सुखविंदर सिंह ने गाया है।

गुलज़ार साहब के क़सीदे लिखने के लिए एक दिन एक उम्र भी कम है। बुलंदियों पर पहुँचने के बावजूद उनका मिज़ाज आज भी ज़मीन से जुड़ा ही है।

जब शैलेन्द्र ने गुलज़ार को बुरी तरह झिड़क दिया – Birthday Special Gulzar

मुंशीप्रेमचंद की किताब निर्मला पर लिखे एक प्ले के लॉन्च के दौरान जब सब गुलज़ार के साथ फ़ोटोज़ खिंचवाने में व्यस्त थे, तब गुलज़ार की नज़र एक लड़के पर पड़ी जो पैरों से लाचार था। भरे इवेंट में गुलज़ार तुरंत ज़मीन पर बैठ गए और उसका हाल चाल पूछने लगे। ये तबकी बात है जब वह 82 साल के थे। उनसे मिलने आया लाइन में लगा आखिरी शख्स भी उन्हें साफ नज़र आता है।

मैं मायापुरी मैगज़ीन की ओर से गुलज़ार को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं देता हूँ। मैं दुआ करता हूँ कि वह आने वाले कई दशकों तक यूँ ही स्वस्थ रहें, लिखते रहें और हमारी जेनेरेशन सहित आने वाली हर पीढ़ी को इंस्पायर करते रहे।

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